अब 2019 लोकसभा चुनाव तक विकास नहीं बल्कि राष्ट्रवाद, हिंदुत्व और भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग के इर्दगिर्द घूमेगी मोदी की राजनीति.
जरा याद कीजिए, साल 2017 को प्रतीक रूप में परिभाषित करने वाली तस्वीर कौन-सी है. कई तस्वीरें हो सकती हैं- गुजरात चुनाव के नतीजे आने के बाद विजय चिह्न ‘वी’ दिखाते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर; कांग्रेस का झंडा फहराते गांधी टोपी पहने राहुल गांधी की तस्वीर; एक नए दलित राष्ट्रपति की तस्वीर; विजयी कैप्टन अमरिंदर सिंह की तस्वीर; ईवीएम को दोषपूर्ण बताते अरविंद केजरीवाल की तस्वीर; नोएडा से जुड़े अंधविश्वासों की परवाह न करते हुए मेट्रो के उद्घाटन के लिए वहां पहुंचे भाजपा के सितारे योगी आदित्यनाथ की तस्वीर.
अगर आपको जटिलताएं पसंद हैं तो आप विजय रुपाणी के शपथ ग्रहण समारोह में भाजपा-एनडीए मुख्यमंत्रियों के साथ खड़े नीतीश कुमार की तस्वीर को चुन सकते हैं. इसी दशक की बात है कि उन्होंने अपने शपथ ग्रहण समारोह में मोदी को नहीं आने दिया था. आप फिर से जेल जाते लालू यादव की तस्वीर भी चुन सकते हैं, जबकि उनका ट्वीटर हैंडल चहचहाता रहा.
लेकिन मैं इनमें से किसी तस्वीर को नहीं चुनूंगा. मेरी तस्वीर तो वह है जिसमें मोदी गुजरात विजय के बाद भाजपा संसदीय दल को संबोधित करते समय रोते नजर आते हैं. मैंने इस तस्वीर को इसलिए चुना है क्योंकि 2017 को परिभाषित करने वाली यह तस्वीर 2018 की राजनीति को ही परिभाषित नहीं करेगी बल्कि 2019 की जंग की पटकथा भी लिखेगी. औरों के मुकाबले प्रधानमंत्री अपनी भावनाओं को अपनी छाती के भीतर दबाए रखने में ज्यादा सक्षम हैं. सार्वजनिक मंचों पर उनकी उपस्थिति काफी सावधानी से नियोजित होती है और भावनाओं का प्रदर्शन भी काफी सोच-समझकर किया जाता है. लेकिन भावना का उपरोक्त उबाल स्वतःस्फूर्त लगता है. या अगर मुझे अतिशयोक्ति की अनुमति दी जाए तो कहूंगा कि इसे बेकाबू उबाल कहा जा सकता है.
प्रधानमंत्री को चुनाव अभियान के दौरान महसूस हो गया था कि गुजरात में तो मुकाबला कड़ा है. भाजपा को बहुमत भले मिल गया हो, लेकिन कांटे की टक्कर वाली सीटें अगर इधर-उधर हो गई होतीं तो उन्हें भारी नुकसान हो जाता. यह कांग्रेस को परिवर्तन वाले इस दौर में मजबूती दे देता, उसे भाजपा विरोधी दलों के लिए ज्यादा मजबूत चुंबक बना देता और नीतीश सरीखी नई, चुनिंदा पेशकश को हिला कर रख देता. इसलिए, मोदी के वे आंसू आक्रोश के साथ-साथ राहत की भी अभिव्यक्ति थे. यह आक्रोश उनकी भावी राजनीति को परिभाषित करेगा.
उनकी पार्टी बहाना बना सकती है कि वह तो 22 साल से गुजरात में सत्ता में है लेकिन मोदी इससे बहलने वाले नहीं हैं. उनके प्रधानमंत्रीत्व काल में गुजरात में यह पहला चुनाव था. इसलिए सरकार के खिलाफ पारंपरिक असंतोष वाला तर्क नहीं दिया जा सकता. पिछले करीब साढ़े तीन साल में उनकी पार्टी ने गुजरात में हालात को बिगड़ने दिया. राज्य में दो मुख्यमंत्री आए, दोनो एक-दूसरे से ज्यादा कमजोर. उनकी पार्टी और सरकार राज्य में उभर रहे जाति केंद्रित आंदोलनों को न तो पहले भांप पाई और न उस पर काबू पाने का उसने कोई उपाय किया.
किसानों का गुस्सा इस स्तर तक पहुंच गया, जो उनके लिए स्वीकार्य नहीं हो सकता था. जिस राज्य में कांग्रेसी नेता तक मोदी से सहमे रहते थे, वहां अब उनके प्रति उग्र तथा बेअदब लोकप्रिय नेताओं की नई पीढ़ी उभर आई है. यह सब उस राज्य में हुआ है, जो अपने मझोले आकार के बावजूद राष्ट्रीय सत्ता समीकरण में इसलिए हावी हो गया है क्योंकि प्रधानमंत्री और शासक दल के अध्यक्ष, दोनों ही गुजराती हैं. इस आकार के किसी राज्य ने अब तक ऐसी हैसियत नहीं हासिल की थी. अगर अपने प्रधानमंत्रित्व के चौथे साल में वे अपने ही राज्य गुजरात को अपनी झोली में पड़ा नहीं मान सकते थे और उनकी पार्टी इसकी गारंटी नहीं दे सकती थी, तब उनका गुस्सा जायज ही था.
वे भी गंभीर मुद्दों को समझते हैं. कुल आर्थिक विकास इस निचले स्तर पर रहा है कि वह ‘फील गुड’ वाला सुकून भरा एहसास नहीं दिलाता. रोजगार के नाकाबिल युवा भी उतने ही गुस्से में हैं जितने किसान गुस्से में हैं. अर्थव्यवस्था में गतिरोध को तोड़ने का कोई फौरी उपाय नहीं होता. ब्याज दरों में कटौती करके विकास को गति देने की उम्मीद धराशायी हो गई है. वास्तव में, बोंड से लाभ 12 सप्ताहों से बढ़ रहा है, जो दिखाता है कि कम ब्याज दर से लाभ का मौका हमने गंवा दिया है. अब अगर आर्थिक वृद्धि होती भी है तो इतने रोजगार पैदा नहीं होंगे जो हताशा को शांत कर दें. मोदी इन वोटरों को अपना सबसे महत्वपूर्ण आधार मानते हैं.
अगले साल वे इन मसलों को अफरातफरी में निबटाते नजर आएंगे और यह उनकी राजनीति के स्वरूप को तय करेगा. उन्हें यह भी पता है कि उन्हें नए जाति समूहों की ओर से चुनौती मिली, जिसके कारण गुजरात पर उनकी पकड़ कमजोर हुई. इस फॉर्मूले की आंशिक सफलता उनके विरोधियों को अब इसे हर जगह लागू करने को प्रेरित करेगी.
राजनीति की दिशा अब गुजरात चुनाव के नतीजे से तय होगी, न कि उत्तर प्रदेश से, जो कि उससे तीन गुना बड़ा है. गुजरात तो मोदी और शाह का माना जाता था, फिर भी वहां लड़ाई कांटे की हो गई. उत्तर प्रदेश में तिकोने मुकाबले में भाजपा का सामना एक अलोकप्रिय शासक दल से था. गुजरात तो अपना ही मैदान था. वहां की करीबी जंग से उभरे निष्कर्षों को मोदी 2019 के चुनाव और उससे पहले 10 राज्यों के चुनावों पर भी लागू करेंगे. इसका पहला सबक तो जाना-पहचाना है. वह यह कि भाजपा तभी जीतती है जब हिंदू एकजुट होकर मतदान करते हैं, न कि बड़ी जातियों के बूते. वैसे, अमित शाह छोटी या उप जातियों के बीच सोशल इंजीनियरिंग करने में माहिर तो हैं ही. हमारी चुनावी राजनीति का केंद्रीय द्वंद्व यह है कि जातियों के बीच जो विभाजन होता है उसे क्या आप आस्था की सुई से जोड़ सकते हैं? जिग्नेश, अल्पेश और हार्दिक के साथ मिलकर कांग्रेस ने गुजरात को लगभग जीत ही लिया था. मोदी-शाह इसकी पुनरावृति नहीं चाहेंगे. इसलिए हिंदुत्व के नाम पर और ध्रुवीकरण की उम्मीद कीजिए.
इसकी पहली चाल है तीन तलाक विधेयक. मार्केटिंग के मुहावरे में इसे अपनी चुनौती को नया रूप देना कहते हैं. राहुल गांधी इसका जवाब और ज्यादा मंदिरों के दौरे करके देंगे लेकिन इस विधेयक का विरोध करने और अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण के आरोप से बचने के लिए राजनीतिक कौशल की जरूरत पड़ेगी. इस तरह के आरोप कर्नाटक में टीपू सुलतान के बहाने लग सकते हैं, तो राजस्थान तथा मध्य प्रदेश के लिए नए बहाने ईजाद किए जा सकते हैं.
‘विकास’ तो नारा बना रहेगा लेकिन भाजपा को पता है कि अर्थव्यवस्था इस अवधि में न तो रोजगार पैदा करने वाली है और न वोट दिलाने वाली है. भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग कुछ चुनावी मसाला जुटा सकती है. और विमर्श इसी पर आकर टिक सकता है. जाने-माने नामों के खिलाफ और ज्यादा छापे और कार्रवाइयां हो सकती हैं और कुछ बड़े कॉरपोरेट घरानों के दिवालिएपन की जांच में तेजी आ सकती है. 2जी घोटाले के आरोपियों के बरी होने और आदर्श घोटाले में अदालत की नरमी से भ्रष्टाचार विरोधी धर्मयोद्धा की मोदी की छवि धूमिल हुई है. लेकिन खुद उन पर या उनकी सरकार पर भ्रष्टाचार का दाग नहीं लगा है. हाल में जो आरोप उभरे हैं वे विश्वसनीय नहीं लगते. ‘अडानी-अंबानी सरकार’ जैसे लांछनों पर ट्वीट तो मिलते हैं, वोट नहीं. इसलिए अगर भ्रष्टाचार के खिलाफ नई जोश से अभियान न चलाई जाए तो आप आश्चर्य कर सकते हैं.
भ्रष्टाचार एक अच्छा मुद्दा तो है लेकिन धर्म तथा राष्ट्रवाद की खिचड़ी चुनावी हांडी पर खूब बढ़िया पकती है. और हम इसे आगे खूब पकती देख सकते हैं. इतिहास बताता है कि संकट के दौर में भारत मौजूदा सरकार के पीछे एकजुट हो जाता रहा है, भले ही वह कितनी भी विफल या नाकारा क्यों न रही हो. हाल के उदाहरण वाजपेयी और मनमोहन की सरकारें हैं, जिन्हें क्रमशः करगिल युद्ध और 26/11 के मुंबई हमले के बाद बड़ा बहुमत हासिल हुआ था. इसलिए आप अंदाजा लगा सकते हैं कि पाकिस्तान संकट को और गहराया जा सकता है, जिसमें हमारे चीखते-चिल्लाते कमांडो-कॉमिक टीवी चैनल खासी मदद दे सकते हैं.
वैसे, इससे एक जटिलता पैदा हो सकती है. कोई नहीं जानता कि चीन के दिमाग में क्या पक रहा है और बर्फ पिघलने के बाद वह डोकलाम या दूसरी जगहों कर क्या करेगा. मौजूदा सरकार के लिए ऐसा कोई संकट तभी तक काम का हो सकता है जब तक वह काबू में किया जा सकता है और गंभीर गोलीबारियां न होने लगें. यह मोदी सरकार के लिए एक चुनौती होगी क्योंकि उसे उग्र राष्ट्रवाद और भारत की रणनीतिक सीमाओं के बीच संतुलन साध कर चलना होगा.
भाजपाई राजनीति के तीन इंजन हैं- धर्म, राष्ट्रवाद और भ्रष्टाचार. इनके बीच कभी आप विकास की बातें सुनेंगे, कभी रोजगार की, कभी ‘अच्छे दिन’ का नारा बुलंद होते सुनेंगे. लेकिन ये सब गौण ही रहेंगे. नरेंद्र मोदी के आंसू भरे चेहरे की तस्वीर उनके कार्यकाल के शेष दिनो को किस तरह परिभाषित कर सकती है, इसका अनुमान हमने इसी तरह लगाया है.
शेखर गुप्ता दिप्रिंट के एडिटर इन चीफ हैं.