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Tuesday, April 30, 2024
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तीन तलाक विधेयक: संवैधानिकता की कसौटी पर खरा उतरेगा?

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दरअसल, यह विधेयक बेमानी प्रावधानों से भरा पड़ा है और मुस्लिम महिलाओं की मदद करने के अपने मकसद करने में निष्प्रभावी साबित हो सकता है.

नई दिल्ली: फौरी तीन तलाक को आपराधिक बनाने का विधेयक लोकसभा में भले फटाफट पारित हो गया हो लेकिन इस पर अनिश्चितता का बड़ा बादल मंडरा रहा है- अगर राज्यसभा ने भी इसे पारित कर दिया तो जो कानून लागू होगा उसे अदालत में संवैधानिकता की कसौटी पर खरा उतरना होगा. दरअसल, यह विधेयक बेमानी प्रावधानों से भरा पड़ा है और अपना मकसद पूरा करने में यह निष्प्रभावी साबित हो सकता है. वास्तव में, यह मुस्लिम महिलाओं के लिए शायद ही किसी तरह मददगार सिद्ध हो. इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के सांसद ई.टी. मोहम्मद बशीर का कहना है कि यह “मच्छर को मारने के लिए बंदूक उठाने के समान है”.

आखिर यह विधेयक किस चीज को आपराधिक बनाने की कोशिश कर रहा है?

भला हो सुप्रीम कोर्ट का कि उसके फैसले के बाद से तीन बार तलाक शब्द बोल कर तलाक नहीं दिया जा सकता. यह यही कहने के समान होगा कि “मैं तुम्हें तलाक देना चाहता हूं.” या किसी भी शब्द को तीन बार बोलने जैसा ही निरर्थक होगा. अगर पत्नी को तलाक देने की इच्छा जाहिर करना या वास्तव में तलाक दे देना कोई अपराध नहीं है, तो तलाक शब्द को तीन बार बोलना अपराध कैसे हो जाएगा?

ऐसी कोई परंपरा नहीं है कि किसी शब्द को बोलना, जिसमें कोई ‘क्रिया’ शामिल न हो, अपराध माना जाता हो. सदन में विधेयक प्रस्तुत करते हुए कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के मामले का कई बार जिक्र किया. उन्हने कहा कि हकीकत यह है कि अगस्त में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद से तीन तलाक के करीब 100 मामले सामने आए हैं. लेकिन यहां पेंच यह है कि तलाक देना अपराध नहीं है. हां, तलाक की वजह जरूर अपराध मानी जा सकती है और ऐसा हिंदू कानून या विशेष विवाह कानून में भी दर्ज है.

तलाक शब्द को तीन बार बोलना अगर अपराध घोषित कर दिया जाएगा, तो फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मसला उठ खड़ा होगा. यही नहीं, समानता के अधिकार के उल्लंघन का भी मसला उठेगा क्योंकि तलाक देने की इच्छा जाहिर करने के लिए केवल मुस्लिम पुरुषों को ही क्यों दंडित किया जाए?

सवाल यह भी उठेगा कि पारिवारिक मूल्यों का क्या होगा?

यह विवाह तथा तलाक से संबंधित ऐसा पहला विधेयक है जिसमें पति और पत्नी के बीच सुलह कराने की कोशिश करने का कोई प्रावाधन नहीं है. हिंदू कानून तथा विशेष विवाह कानून के तहत तलाक के मामलों में अदालतें सुलह कराने की कोशिशों को जरूरी मानती हैं. यहां तक कि आपसी सहमति से तलाक के मामले में भी छह से लेकर 18 महीने के बीच तीन सुनवाई रखी जाती है ताकि पति-पत्नी को सुलह करने का पूरा मौका दिया जा सके. ऐसे कुछ चुनिंदा मामलों को अदालतें अपवाद भी मानती हैं, जो कि महिला की शिक्षा या तलाक के बाद के उसके जीवन पर निर्भर करता है.

यहां तक कि मुसलमानों में तलाक-ए-बिद्दत या तीन तलाक के मामलों में विवाह को बचाने के मकसद से पूरी प्रक्रिया को पत्नी के तीन मासिक धर्म की अवधि तक खींचा जाता है.

प्रस्तावित कानून की राह में व्यावहारिक दिक्कतें

विधेयक के सेक्शन 6 में कहा गया है कि जिस मुस्लिम महिला को तलाक-ए-बिद्दत दिया गया है उसे अपने नाबालिग बच्चों को रखने का अधिकार होगा. यह प्रावधान भी निरर्थक है क्योंकि पति जेल में होगा तो वह बच्चों को क्यों अपने पास रखना चाहेगा.

संसद में इस मुद्दे पर भी खूब चर्चा हुई कि पत्नी और उस पर निर्भर बच्चों के लिए गुजारा भत्ता का फैसला कोई मजिस्ट्रेट कैसे कर सकता है. लेकिन विवाहित परंतु परित्यक्ता पत्नी के लिए पहले से प्रावधान मौजूद है. सुप्रीम कोर्ट ने एक दशक पहले आदेश दिया था कि पति द्वारा परित्यक्त मुस्लिम महिला आपराधिक दंड संहिता की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता की मांग कर सकती है.

आप साबित कैसे करेंगे?

जब भी महिलाओं से जुड़े अपराधों पर विचार-विमर्श होता है, उन्हें साबित करने का मसला उठाया जाता है, क्योंकि ऐसे अपराध प्रायः निजी दायरों में होते हैं. लेकिन तीन तलाक के मामले में कोई यह नहीं सोचता कि मुस्लिम पति के खिलाफ मामले को कैसे साबित किया जा सकता है. अगर मामला साबित नहीं होता तो मुस्लिम महिलाओं के साथ न्याय कैसे होगा. सामान्य तौर पर तो गवाहों और पत्नी के बयान सबूत माने जाते हैं. लेकिन क्या वे काफी होंगे?

महिलाओं से संबंधित अपराधों के लिए साक्ष्य संबंधी नियम बदल दिए गए हैं ताकि कानूनों को प्रभावी ढंग से लागू किया जा सके. बलात्कार के मामले में पीड़ित का सुसंगत, अकाट्य बयान आरोपी को दंडित करने के लिए काफी होता है. इसी तरह, दहेज हत्या के मामले में भी सबूत देने का जिम्मा पति पर स्थानांतरित कर दिया गया है. ऐसे बदलावों के बिना मुस्लिम महिलाओं को कथित सुरक्षा देने के लिए बनाए गए छह सेक्शन उन्हें सुरक्षा देने से ज्यादा नुकसान ही पहुंचा सकते हैं. यह भी तब होगा अगर अदालत इस कानून को रद्द नहीं कर देती.

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