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Friday, April 26, 2024
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यहाँ तक कि अकबर ने भी दी थी बाबरी में चबूतरा बनाने की इजाज़त

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अतीत, मसलन अयोध्या के बारे में जानने के लिए पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक विज्ञान, दोनों का इस्तेमाल किया जा सकता है

अयोध्या पिछले 30 वर्षों से भारतीय राजनीति का सबसे विवादास्पद मसला बना हुआ है. यह कई सरकारों का भाग्य तय कर चुका है. अगर हम यूनेस्को की सांस्कृतिक परिभाषा का इस्तेमाल करें तो अयोध्या ‘सांस्कृतिक संपत्ति’, ‘पवित्र स्थल’, और ‘महत्वपूर्ण स्थल’ की परिभाषा में फिट बैठती है.

एनसाइक्लोपेडिया ब्रिटानिका कहती है, ‘उत्तर प्रदेश के फैजाबाद के पास गोगरा नदी के तट पर बसा भारत का एक प्राचीन शहर अयोध्या (अजोध्या) हिन्दुओं के सात पवित्र तीर्थस्थलों में गिना जाता है… यह रामायण के नायक राम के पिता और कोशल नरेश दशरथ की भव्य राजधानी थी. राम के जन्मस्थल पर बने मंदिर को मुग़ल बादशाह बाबर ने मस्जिद में तब्दील करवा दिया, हालांकि हनुमानगढ़ तथा कनक भवन मंदिर का उपयोग रामभक्त वैष्णव आज भी कर रहे हैं…’

फैजाबाद जिले का गज़टियर ‘द अवध गज़ट’ समेत ब्रिटिश, फ्रेंच तथा पुर्तगाली स्रोत भी अयोध्या में मंदिर तोड़े जाने का उल्लेख करते हैं. यहां तक कि औरंगज़ेब की पोती मिर्ज़ा जान, शेख मुहम्मद अज्मत अली काकोरवी अौर मिर्ज़ा रजब अली बेग सुरूर समेत कई मुग़ल/मुस्लिम स्रोतों ने भी इस तथ्य को उजागर किया है. हिन्दुओं के जनजीवन में अयोध्या का क्या महत्व है, यह भारी तादाद में मौजूद साहित्यिक, पुरातात्विक तथा उत्कीर्णित प्रमाणों से जाना जा सकता है, जो राम की गाथा की प्राचीनता को स्थापित करते हैं. उदाहरण के लिए, ब्रह्मांड पुराण (4,40.91) में अयोध्या को सात पवित्र शहरों में गिना गया है, जहां मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति होती है.

तमाम ऐतिहासिक स्रोत बताते हैं कि हिन्दुओं ने रामजन्मभूमि पर अपना दावा कभी छोड़ा नहीं. उनके इस दावे को मान्य करते हुए मुग़ल बादशाह अकबर ने बाबरी मस्जिद के आंगन में एक चबूतरा बनाने की इजाजत दी थी, जिसे राम के जन्मस्थल का प्रतीक माना गया. अकबर ने मस्जिद के ठीक अंदर हिन्दुओं को पूजा करने का अधिकार भी दिया. दुनियाभर में हर जगह महत्वपूर्ण स्थल सांस्कृतिक परिदृश्य का हिस्सा माने जाते हैं, चाहे उन्हें लोगों ने पौराणिक उत्पत्ति का माना हो या लोगों ने खुद उन्हें वह महत्व दिया हो. सभी समुदाय किसी-न-किसी ऐतिहासिक लैंडस्केप को अतिविशिष्ट का दर्जा देते हैं.

कभी-कभी उन्हें स्मारक या ढांचा बनाकर ठोस रूप दिया जाता है, तो कभी-कभी वे अदृश्य बने रहते हैं. हमें यह भी मानना पड़ेगा कि ऐसे स्थलों, स्थानों या जगहों को केवल पुरातात्विक तथा गोचर रेकार्डों के जरिए ही नहीं पहचाना जा सकता है. ऐसे मामलों में स्थानीय परंपराएं और लोगों की आस्था तथा क्रियाकलाप भी उतने ही महत्वपूर्ण होते हैं.

किसी विशेष स्थान को पवित्र बताने का अर्थ यह नहीं है कि उसे भौतिक तौर पर चिह्नित किया जाए. पवित्र माने जाने वाले स्थलों के साथ कई तरह के नियम-कायदे जुड़े होते हैं जो उनके प्रति लोगों के व्यवहार को निर्धारित करते हैं, और उनके साथ तमाम तरह की आस्थाएं जुड़ी होती हैं जिनमें गैर-अनुभवजन्य बातें, पूर्वजों या दूरस्थ अथवा शक्तिशाली भगवानों की आत्माएं शामिल होती हैं. पवित्र स्थलों के स्वामित्व का सवाल दूसरे लोगों अथवा व्यक्तियों द्वारा अतिक्रमण के संदर्भ में खड़ा होता है. जमीन के टुकड़े का खो जाना भौतिक ही नहीं, आध्यात्मिक क्षति भी मानी जाती है.

पवित्र स्थानों और पुरातात्विक स्थलों को जानने के अलग-अलग तरीके हैं. कुछ तरीके वैज्ञानिक हैं, तो कुछ आध्यात्मिक हैं. एक तरीका दूसरे का खंडन नहीं करता. जरूरी यह है कि वैज्ञानिक ज्ञान तथा प्रभाव को मान्य किया जाए, लेकिन इसके साथ ही पारंपरिक, देसी ज्ञान को भी मान्यता मिले.

अतीत को जानने का पुरातात्विक तरीका ही एकमात्र सही ‘वैज्ञानिक’ तरीका है, इस तर्क पर पुनर्विचार करने की जरूरत है. अतीत के प्रति संकीर्ण नजरिया, जो यह मानता है कि ‘अर्थपूर्ण’ ‘परिपूर्ण’ तारीखों के ‘परीक्षणीय’ सेट पर आधारित एकरेखीय क्रम ही अतीत को समझने का एकमात्र रास्ता है, कई साक्षर तथा निरक्षर ‘सभ्यताओं’ तथा संस्कृतियों की जटिलता की अनदेखी करता है.

अयोध्या विवाद के संदर्भ में कई लोग यह तर्क देते रहे हैं कि वैज्ञानिक तथा आर्थिक विकास को संस्कृति तथा धर्म समेत बाकी सभी चीजों के ऊपर तरजीह दी जाए. लेकिन याद रहे कि यह धारणा पिछले कुछ वर्षों में अपनी विश्वसनीयता काफी खो चुकी है कि एक विश्व संस्कृति का निर्माण तकनीक तथा विज्ञान की सार्वभौमिक शिक्षा में सुधार के जरिए किया जा सकता है.

विज्ञान में प्रगति हो सकती है लेकिन हम सभी अपनी संस्कृति के अतीत से होकर ही आगे बढ़ते हैं, विचारों तथा अनुभव का यह संचयन ही, जो शिक्षा तथा दैनंदिन जीवन के जरिए संचारित होता है, हमारे विचारों, हमारी अर्थवत्ता और हमारे कार्यों को स्वरूप तथा मकसद प्रदान करता है. विज्ञान अपना इतिहास भूल सकता है, लेकिन समाज अपना इतिहास नहीं भूल सकता.

प्रो. माखन लाल दिल्ली इंस्टीट्यूट ऑफ हेरिटेज रिसर्च ऐंड मैनेजमेंट के संस्थापक निदेशक हैं और इन दिनों विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन में सम्मानित फेलो हैं

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