मुसलमानों पर संदेह और पाकिस्तान के खिलाफ नफरत गुजरात में कोई नई बात नहीं. मोदी इसे बख़ूबी समझते हैं और इसका राजनैतिक इस्तेमाल करना जानते हैं
एक प्रधानमंत्री अगर किसी प्रादेशिक चुनाव में मतदाताओं को धर्म के आधार पर ध्रुवीकृत करता है तो उसके परिणाम बेहद गंभीर और दूरगामी हो सकते हैं. लेकिन ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी इस तरह के परिणाम का भी खतरा मोल लेने को तैयार हैं. गुजरात में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव अभियान को मणिशंकर अय्यर/पाकिस्तान/ अहमद पटेल को लेकर जो नया मोड़ दे दिया है, वह आपको चाहे कितना भी आपत्तिजनक क्यों न लगता हो, इससे हैरत में पड़ने की जरूरत नहीं है. मुसलमानों पर जितना संदेह, और पाकिस्तान के खिलाफ जितना उन्माद गुजरात में दिखता है उतना भारत के किसी दूसरे राज्य में नहीं दिखता. इसे मोदी के सिवा और कोई बेहतर नहीं समझता. कयामत की घड़ी जैसे-जैसे करीब आ रही है, उनकी उंगली सबसे कारगर बटन की ओर उतनी ही तेजी से बढ़ रही है.
पहले भी मैं गुजरात की इस अनूठी खासियत का विश्लेषण करने की कोशिश कर चुका हूं लेकिन कभी भी यकीनी तरीके से ऐसा नहीं कर पाया हूं. वैसे, मैंने इसका सीधा अनुभव किया है, वह भी खुद कीमत चुका कर. रिपोर्टर के तौर पर मैं अहमदाबाद पहली बार 1985 में गया था, जब मंडल आयोग रिपोर्ट (जो उन्हीं दिनों सुर्खियों में थी) के कारण भोपाल और अहमदाबाद में दंगे भड़क उठे थे. मैं मंडल और आरक्षण पर एक कवर स्टोरी के लिए काम कर रहा था. जब तक मैं कर्फ्यूग्रस्त अहमदाबाद पहुंचा, दंगों ने सांप्रदायिक रंग ले लिया था. मंडल और जाति वगैरह सब भुला दिए गए थे.
उत्तर-पूर्व में तैनात रह चुके आइबी के एक आला अधिकारी ने मुझे तब बताया था कि गुजरात में कायदा यही है- हर दंगा, हर तनाव, हर विवादास्पद चीज अंततः हिंदू बनाम मुस्लिम रंग ले लेती है. यह भाजपा के उत्कर्ष से बहुत पहले की बात है. तब नरेंद्र मोदी का नाम भी किसी को नहीं मालूम था.
1992 में हम इंडिया टुडे का गुजराती संस्करण शुरू कर रहे थे और मैं अकसर गुजरात के दौरे कर रहा था. कभी-कभी मैं सुबह में अहमदाबाद पहुंचता और शाम में मुंबई पहुंच जाता था. ऐसी ही एक यात्रा में अपने थैले में व्हिस्की की एक बोतल ले जा रहा था. असली बात बताऊं- उस शाम मुंबई में हम कुछ दोस्त मिलने वाले थे और मैं शराब के लिए होटल वाली कीमत नहीं देना चाहता था. हवाईअड्डे पर सिक्युरिटी जांच में मैं पकड़ा गया. मैंने समझाने की कोशिश की कि मैं अहमदाबाद में सुबह चंद घंटों के लिए ही उतरा था और बोतल अभी सीलबंद ही थी, मेरी मंशा गुजरात के मद्यनिषेध कानून को तोड़ने की कतई नहीं थी. लेकिन पुलिसवाला कुछ सुनने को राजी न था. उसने मुझ पर जुर्माना तो नहीं ठोका मगर बोतल जब्त कर ली. इसकी जरूरत क्या थी जबकि मैं राज्य से बाहर जा रहा था और वहां की धरती पर शराब नहीं पीने वाला था? मैंने हर तरह से उसे समझाने की कोशिश की मगर नाकाम रहा. और हताशा में मैं एक भारी भूल कर बैठा. मैं कह बैठा, ‘‘अरे भाई, मैं प्रायः पाकिस्तान जाता रहता हूं. वहां अपने दोस्तों के लिए ड्युटीफ्री शराब ले जाता हूं लेकिन जब बताता हूं कि मैं एक भारतीय, गैर-मुस्लिम और पत्रकार हूं तो मुझे किसी हवाईअड्डे पर रोका नहीं जाता. उस पुलिसवाले का चेहरा लाल हो उठा-‘‘तुम्हें पता भी है कि पाकिस्तान में क्या-क्या होता है? तुमने यहां पाकिस्तान का नाम लेने की हिम्मत कैसे की?’
आखिर मैंने बहस में हार मान ली और ब्लैक लेबल की वह बोतल भी हार बैठा. यह 1992 की गर्मियों की बात है, बाबरी मस्जिद विध्वंस और उसके बाद फूटे सांप्रदायिक दंगों से कई महीने पहले की.
उस साल बाद में नवरात्रि के पहले दिन हमने इंडिया टुडे के गुजराती संस्करण का उद्घाटन किया. उन दिनों मैं अंग्रेजी पत्रिका का सीनियर एडिटर और इसके अंतरराष्ट्रीय तथा भाषायी संस्करणों का प्रकाशक भी था. गुजराती पत्रिकाओं के बाजार में कदम रखना मेरे लिए काफी उत्साहवर्द्धक था क्योंकि यह मेरे द्वारा पहला उद्घाटन था. संयोग से तभी मैं पहली बार मोदी से मिला, जो पार्टी के एक कार्यकर्ता थे और एक कमरे वाले साधारण-से घर में रहते थे. गुजराती इंडिया टुडे की प्रस्तावित संपादक शीला भट्ट ने उनसे मेरा परिचय कराया था.
पत्रिका ने कुछ ही हफ्तों में शानदार जगह बना ली और इसकी लगभग एक लाख प्रतियां बिकने लगीं. अभी इसके छह पाक्षिक अंक ही निकले थे कि बाबरी विध्वंस हो गया. हमने इस कांड पर एकदम मजबूत, सेकुलर तथा संवैधानिक रुख अपना लिया. अंग्रेजी पत्रिका ने मुखपृष्ठ पर शीर्षक दिया- ‘नेशंस शेम’ (राष्ट्रीय शर्म). गुजराती में यह ‘राष्ट्रीय कलंक’ हो गया. हमारे मार्केटिंग प्रमुख दीपक शौरी ने हमें चेताया- गुजराती लोग इसे कबूल नहीं करेंगे. हम अपने संपादकीय रुख पर अडिग रहे और फैसला किया कि हम बाजार की खातिर इसमें कोई समझौता नहीं करेंगे.
शौरी सही साबित हुए. उस अंक का भारी विरोध हुआ. यह इंटरनेट वगैरह से पहले की बात है, लेकिन मेरी मेज पर चिट्ठियां बरसने लगीं, जिनमें हमें ‘पाकिस्तानी टुडे’, ‘इस्लाम टुडे’ और न जाने क्या-क्या कहा गया. अगले महीने तक हमारी बिक्री 75 प्रतिशत तक गिर गई. उसके बाद से वह संस्करण कभी उबर नहीं पाया और उसे जिलाने की तमाम कोशिशों के नाकाम होने के बाद अंततः बंद करना पड़ा. याद रहे, ये मोदी के उत्कर्ष से वर्षों पहले की बात है. कांग्रेस अभी वहां सत्ता में थी इसलिए मोदी या मोदित्व को आप दोषी नहीं ठहरा सकते. यह गुजराती जनमत था.
क्या गुजरातियों में ऐसा कुछ है जो उनमें खासकर मुसलमानों के प्रति गुस्सा पैदा करता है? एनडीटीवी ने 2012 में अखिल भारतीय जनमत सर्वेक्षण किया था, जिसमें यह सवाल भी पूछा गया था कि क्या भारत और पाकिस्तान के रिश्ते बेहतर होने चाहिए? पंजाब के 72 प्रतिशत, हरियाणा में 80 प्रतिशत लोगों ने ‘हां’ में जवाब दिया था. राजस्थान में यह आंकड़ा 42 प्रतिशत था. इन तीनों राज्यों से सैनिक ज्यादा आते हैं और दो राज्यों की सीमा पाकिस्तान से मिलती है.
और गुजरात का हाल? देश के सभी राज्यों में सबसे कम, गुजरात में मात्र 30 प्रतिशत लोगों ने ‘हां’ में जवाब दिया था. ऐसा क्यों है कि गुजरात हमारा सबसे गुस्सैल राज्य है?
मैं इस सवाल का जवाब नहीं पा सका हूं. मेरे कुछ विद्वान गुजराती मित्र मुस्लिम आक्रमण और सोमनाथ मंदिर पर लगातार हमले के इतिहास का हवाला देते हैं. शायद यही वजह है कि अलाउद्दीन खिल्जी के खिलाफ सबसे ज्यादा गुस्सा यहीं दिखता है. इस लिहाज से, पद्मावती विवाद भाजपा के लिए बिलकुल माकूल मौके पर फूटा. सीमावर्ती राज्य होने के बावजूद गुजरात ने कभी भी बहुत लड़ाइयां नहीं देखी लेकिन उसे दो गंभीर झटके झेलने पड़े.
पहला झटका 1965 का कच्छ युद्ध (कैप्टन अमरिंदर सिंह और ले. जनरल ताजिंदर सिंह के मुताबिक, ‘मानसून वार’) था, जिसमें भारत की किरकिरी हो गई थी और उसे अपमान के साथ युद्धविराम करना पड़ा था तथा अंतरराष्ट्रीय सुलह का सहारा लेना पड़ा था. उस युद्ध में गंवाई गई जमीन 1971 के युद्ध में जीती गई. दूसरा झटका सितंबर 1965 के युद्ध के दौरान राज्य सरकार के सरकारी डकोटा का पाकिस्तानी सैबर विमान द्वारा मार गिराया जाना था, जिसमें मुख्यमंत्री बलवंत राय मेहता सवार थे. बेहद लोकप्रिय मेहता हमारे आजाद इतिहास में पहली सार्वजनिक हस्ती थे, जिन्हें एक युद्ध में अपनी जान गंवानी पड़ी है. इन तमाम बातों का असर रहा होगा, लेकिन ये सब बहुत पुरानी बातें दिखती हैं और गुजरात के गुस्से की निर्णायक वजह नहीं लगतीं.
ये सब संकेत हैं और हम इनके ‘क्यों’ वाले पहलू पर भले बहस करें, यह एक वास्तविकता है कि इस्लाम और पाकिस्तान पर गुजराती जनमत किसी भी दूसरे राज्य के जनमत के मुकाबले एकदम अलग है. अयोध्या कांड के बाद जिस संपादकीय रुख तथा शीर्षक ने पत्रिका के गुजराती संस्करण को डुबो दिया, उसी ने हमारे कहीं बड़े हिंदी संस्करण को खूब ऊपर पहंचा दिया. 2002 में हुए सांप्रदायिक दंगे गुजरात के लिए पहले दंगे नहीं थे. लेकिन ये इस मामले में पहले दंगे थे, कि जिन्होंने गुजरातियों को विश्वास दिला दिया कि मुसलमानों को अंततः ‘सबक सिखा’ दिया गया है. यही विश्वास गुजरात में मोदी की मुख्य राजनीतिक पूंजी है. उसके बाद से वे हर बार मतदाताओं को उस दिशा में मोड़ते रहे हैं. 2002 में अगर यह ‘मियां मुशर्रफ’ वाला व्यंग्यबाण था, तो 2007 में यह बयान था- ‘‘असम में अपराधी लोग सीमा पार करके आते रहे हैं लेकिन कोई आलिया, मालिया-जमालिया गुजरात में घुसने की हिम्मत नहीं कर सकता है.’’ 2012 तक वे खुद को राष्ट्रीय भूमिका के लिए तैयार कर रहे थे और कांग्रेस से उन्हें कोई चुनौती नहीं मिल रही थी. इसलिए उन्होंने उस दिशा का रुख नहीं किया और विकास का जाप करते रहे.
इस बार उन्हें काफी चुनौती दिख रही है, क्योंकि उनकी पार्टी की 22 साल पुरानी सरकार के खिलाफ असंतोष है, वे खुद अनुपस्थित रहे हैं, पार्टी की राज्य इकाई में विभाजन है, दो उत्तराधिकारी लचर साबित हो चुके हैं, और तीन जातिवादी नेताओं के समर्थन से कांग्रेस जानदार दिख रही है. अगर वे ‘बुनियादी’ रुख की ओर लौटते हैं तो इसके परिणाम किसी दूसरे मंझोले राज्य के मुख्यमंत्री के ऐसा करने के परिणाम से कहीं ज्यादा गंभीर और दूरगामी होगे. लेकिन उन्हें मालूम है कि गुजरात में क्या कुछ दांव पर लगा है, और कोई चूक नहीं छोड़ सकते. वे किसी भी कीमत पर जीत चाहते हैं और किसी भी परिणाम का खतरा मोल लेने को तैयार हैं. गुजरात फिर उसी ‘मुसलमान माने पाकिस्तान और पाकिस्तान माने जबरदस्त दुश्मन’ फॉर्मूले को कितना कबूल करता है, इसी पर तय होगा कि 18 दिसंबर को आने वाले आंकड़े क्या रूप लेते हैं.