भारतीय क्रिकेट में परिवर्तन: हारने वाले ‘गुड ब्वायज’ की जगह हैं जीतने वाले ‘बैड ब्वायज’
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भारतीय क्रिकेट में परिवर्तन: हारने वाले ‘गुड ब्वायज’ की जगह हैं जीतने वाले ‘बैड ब्वायज’

जो भारतीय टीम दक्षिण अफ्रिका दौरे पर है वह पहले की किसी भी टीम के मुकाबले कहीं ज्यादा बेहतर है. पुराने स्टार खिलाड़ियों का इस टीम मे जगह बनाना मुश्किल होता.

The likes of Virat Kohli and R. Ashwin are flag-bearers of a class shift in Indian cricket.

The likes of Virat Kohli and R. Ashwin have left their predecessors far behind. Photo by Cameron Spencer/Getty Images

जो भारतीय टीम दक्षिण अफ्रिका दौरे पर है वह पहले की किसी भी टीम के मुकाबले कहीं ज्यादा बेहतर है. पुराने स्टार खिलाड़ियों का इस टीम मे जगह बनाना मुश्किल होता.

जब कि भारतीय क्रिकेट टीम दक्षिण अफ्रीका दौरे पर है, मैं क्रिकेट के बारे में कुछ असुविधाजनक टिप्पणियां करने की गुस्ताखी कर रहा हूं. ऐसा मैं उस दिन भी कर सकता हूं जब सेवानिवृत्त जजों तथा नौकरशाहों का गुट भारतीय क्रिकेट को बंधक बनाने की पहली वर्षगांठ मना रहा होगा, जबकि तथाकथित सुधारों में से एक को भी लागू नहीं किया गया है.

इसके बावजूद भारतीय क्रिकेट अगर तरक्की कर रहा है तो इसकी वजह यह है कि 1992 में दक्षिण अफ्रीका के इसके पहले दौरे के बाद 25 वर्षों में इसके वर्ग चरित्र में बदलाव आ गया है. ऑक्सब्रिज/हिंदू-स्टीफन के ‘गुड ब्वायज’ और ‘शालीनता से हारने वालों’ ने छोटे शहरों के या शहरी ‘एचएमटी’ (हिंदी मीडियम टाइप) ‘बैड ब्वायज’ के लिए मैदान छोड़ दिया है.

इसके अलावा, पिछले 25 वर्षों में स्तर इतना ऊपर उठ गया है कि 1992 से पहले के हमारे क्रिकेट स्टारों में से तीन (गावसकर, विश्वनाथ, कपिल देव) में से ज्यादा ऐसे होंगे जो सर्वकालिक महान भारतीय टीम में नहीं चुने जा सकेंगे, चाहे वह टीम 18 खिलाड़ियों की ही क्यों न हो. वास्तव में, 1992 में द. अफ्रीका जाने वाली टीम के केवल दो खिलाड़ी (कपिल और सचिन) ही इस महान टीम के लिए चुने जा सकेंगे. याद रखिए कि इनमें से सबसे उम्रदराज विश्वनाथ ने 1969 में खेलना शुरू किया था. यानी, 1932 से 1969 के बीच खेले गए 115 टेस्ट मैचों में खेला कोई भी खिलाड़ी इस महान टीम में नहीं चुना जाएगा.

सो, बेदी-प्रसन्ना की सहज स्पिन गेंदबाजी और तमाम कई बल्लेबाजों के कलात्मक कवर ड्राइव को बड़ी शिद्दत से याद करने वाले जरा गौर फरमाएं. मंसूर अली खान पटौदी को छोड़ ये तमाम दिग्गज आज की टीम में जगह नहीं पा सकेंगे क्योंकि ये फील्डिंग और एथलेटिक वाली क्षमता की कसौटी पर खरे नहीं उतर पाएंगे. और पटौदी भी अपने बैटिंग औसत के बूते तो इसमें जगह नहीं बना सकते.

दरअसल, मैं और भी आगे बढ़कर और ज्यादा विवादास्पद बात रखना चाहूंगा. बिशन सिंह बेदी- एरापल्ली प्रसन्ना- बी.एस. चंद्रशेखर- एस. वेंकटराघवन की हमारी स्पिन चौकड़ी बेशक शानदार थी लेकिन इसे सर्वकालिक महान नहीं कहा जा सकता. हाल के हमारे चार स्पिनर- अनिल कुंबले, हरभजन सिंह, रविचंद्रन अश्विन और, जरा सांसें रोक लीजिए, ‘सर’ रवींद्र जडेजा- उक्त चौकड़ी को काफी पीछे छोड़ चुके हैं.

मेरे दो साथी हैं. एक हैं भारत के सबसे बढ़िया क्रिकेट आंकड़ा विशेषज्ञ मोहनदास मेनन. और दूसरी हैं एक ताजा पुस्तक ‘नंबर्स डोंट लाइ’ (हार्पर कॉलिन्स द्वारा प्रकाशित), जिसे तैयार किया है आंकड़ें की मशीन इम्पैक्ट इंडेक्स ने, जिसमें व्याख्या प्रस्तुत की है पूर्व टेस्ट ओपनर आकाश चोपड़ा ने. मेनन सबूत के तौर पर प्रस्तुत करने के लिए मुझे आंकड़े जुटाते हैं, और ‘नंबर्स डोंट लाइ’ वह तर्क जुटाती है जो किसी खिलाड़ी को महान बताने में दंतकथाओं और पुरानी यादों से ज्यादा मददगार होता है. अन्यथा मैं इतनी हिम्मत नहीं कर सकता था. राजनीतिक तंत्र से बहस करना एक बात है, मगर क्रिकेट के महिमामंडनशास्त्र को चुनौती देना तो मूर्तिभंजन का पाप ही माना जाएगा.

भारत ने अपने पहले 100 टेस्ट मैच 1932 से 1969 के बीच खेले, जिनमें 10 जीते और 40 हारे. उस दौर में हम आज के बांग्लादेश से बेहतर नहीं थे, जो 2000 के बाद से 104 टेस्ट खेल कर मात्र 10 जीत पाया है. वीनू मंकड, लाला अमरनाथ, पॉली उम्रीगर, पंकज राय, सी.के. नायडु, सुभाष गुप्ते, नारि कांट्रैक्टर, बापू नाडकर्णी, नवाब ऑफ पटौदी, चंदू बोर्डे, सलीम दुर्रानी, वगैरह-वगैरह की रोमानी यादें तो अपनी जगह हैं ही.

इसके बाद के 25 वर्षों (1967-91 में जीत का प्रतिशत दोगुना बढ़ा, 174 टेस्ट खेले और 34 जीते. दक्षिण अफ्रीका को रंगभेदी नीतियों के कारण प्रतिबंधित न किया जाता तो हालत और बुरी होती. अगले 25 वर्षों (1992-2017) में जीत का प्रतिशत फिर दोगुना बढ़ा और 39.9 हो गया (248 टेस्ट खेले, 99 जीते).

एक और दिलचस्प मोड़- हमारे क्रिकेट के मौलिक ‘बुरे लड़के’ सौरभ गांगुली नवंबर 2000 में कप्तान बन गए. इसके बाद के 182 टेस्ट मैचों में हमारी जीत का रेकॉर्ड और सुधरा- 82 जीते, 46 हारे. यानी हार का अनुपात घटा. वास्तव में, जैसा कि मेनन याद दिलाते हैं, उसके बाद से भारत की जीत का रेकॉर्ड 44.3 प्रतिशत हो गया- ऑस्ट्रेलिया (60.1 प्रतिशत) और दक्षिण अफ्रीका (49.1) के बाद तीसरे नंबर पर- इंग्लैंड, श्रीलंका, और पाकिस्तान से ऊपर.

यह बताने के लिए किसी आंकड़ा विशेषज्ञ की जरूरत नहीं है कि गांगुली युग में भारतीय क्रिकेट के खाते में बुरे विवादों का प्रतिशत भी बढ़ा. उन्हें ईंट का जवाब पत्थर से देना पसंद था, धौंसबाजी में उन्होंने अस्ट्रेलियाइयों को भी पीछे छोड़ दिया, लॉर्ड्स स्टेडियम की बालकनी पर खड़े होकर उन्होंने अपनी कमीज उतारकर लहराने और छाती दिखाने की हिम्मत की. उनके पहले के खिलाड़ी यह सब करना पसंद नहीं करते. वैसे, गावसकर को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने काउंटी क्रिकेट को ऐसे खेल के तौर पर खारिज कर दिया था, जिसे दोपहर की धूप में बियर गटकते चंद बूढ़े और उनके कुत्ते देखते हैं, और एमसीसी ने पहले तो उन्हें प्रवेश देने से मना कर दिया और बाद में निमंत्रण भेजा तो उन्होंने मना कर दिया.

गांगुली का उत्कर्ष भारतीय क्रिकेट में सामाजिक परिवर्तन के साथ-साथ हुआ जब छोटे शहरों के, अंग्रेजी मीडियम में पढ़ाई न करने वाले, नॉन-कॉलोजियट (सचिन समेत) भदेस खिलाड़ी टीम में जगह बनाने लगे. मेनका गांधी के शब्दों में कहें तो सचमुच ‘हार्मोन विस्फोट’ हो गया था. यह क्रिकेट तक ही सीमित नहीं था. इस दौर में भारतीय हॉकी भी बदल गई, उसने पाकिस्तान से जीतने का रेर्कार्ड लगभग शून्य से बढ़ाकर दोगुना कर लिया. रमेश कृष्णन या विजय अमृतराज के मुकाबले पासंग भर प्रतिभाशाली लिएंडर पेस डेविस कप और डबल्स की एटीपी प्रतिस्पद्र्धाओं में ज्यादा सफलता दर्ज करने लगे.

किसी भी कीमत पर जीतने का जज्बा रखने वाले भारतीय खिलाड़ियों की नई पीढ़ी आ गई थी. इसी के साथ बीसीसीआइ में हार्डबॉल व्यवसायियों या राजनेताओं का पदार्पण होता रहा. अंगरेजीदां राजकुमारों और रसूखदारों का युग खत्म हो गया. जगमोहन डालमिया और गांगुली, आइ.एस. बिंद्रा, ललित मोदी, एन. श्रीनिवासन जैसे लोग विजय मर्चेंट, राजसिंह डूंगरपुर, माधवराव सिंधिया, आर.पी. मेहरा, फतेहसिंह राव गायकवाड़, और इनमें सबसे भद्रपुरुष विजयनगरम के महाराजकुमार यानी विज्जी सरीखों से एकदम अलग थे. उस पीढ़ी के लिए किसी विदेशी टीम की अपने महल में मेजबानी ही क्रिकेट से जुड़ा चरम आमोद- प्रमोद था. अब भारत नंगे टखनों और खुली छातियों के प्रदर्शन के युग में कदम रख चुका था.

यह बदलाव भारतीय क्रिकेट के रूढ़िवादियों और पुरानी व्यवस्था (इंग्लैंड-ऑस्ट्रेलिया) को कई कारणों से पच नहीं रहा है. आज के स्पिनर बेदी-प्रसन्ना वाले स्तर के हों या न हों, आप उन्हें अपनी गेंद पर चौका लगाने वालों के लिए ताली बजाते नहीं देख पाएंगे. उन्हें कोसते ही पाएंगे.

गांगुली युग से पहले कपिल ही हमारे पहले सच्चे भदेस, आक्रामक क्रिकेटर थे. केप्लर वेसेल्स ने जब उन्हें अपने बल्ले से मारा था तब वे चोट और अपमान को पी गए थे, दिसंबर 1992 में पोर्ट एलिजाबेथ में जब उन्होंने पीटर कस्र्टेन का ‘मंकडीकरण’ किया था तब उन्हें अपनी पिंडली पर घाव झेलना पड़ा था. क्या आज विराट कोहली या इशांत शर्मा, अश्विन या जडेजा के साथ वैसा करने की हिम्मत कोई कर सकता है? जॉन लीवर ने गेंद को वेसलीन से खराब करने का जो कांड किया था उस पर कोहली की टीम क्या जवाब देगी? अप्रैल 1976 में सबीना पार्क जैसा कत्लेआम, जिसे गावसकर ने अपनी किताब ‘सनी डेज’ में ‘बारबरिज्म इन किंग्सटन’ कहा है.

इमरान खान के पास बताने को वह कहानी है कि उन्होंने लगभग निरक्षर, पंजाबीभाषी नई टीम को 1970 के दशक में विश्वविजयी टीम में किस तरह ढाला था. इमरान ने उनके दिल से डर और विदेशी के आतंक से दूर भगाया था. अगर सूट-टाइ नहीं जुटा सकते तो सरकारी आयोजनों में सलवार-कमीज पहनकर आओ और विरोधी को कभी ‘सर’ मत कहो, किसी बात के लिए सॉरी मत बोलो और जरूरत पड़े तो कोसो- अंग्रेजी नहीं जानते तो पंजाबी में कोसो, उन्हें समझ में आ जाएगा.

गांगुली के बाद भारतीय क्रिकेट में यह क्रांति आई. कपिल इतने बड़े दिल वाले हैं कि उन्होंने आकाश चोपड़ा की किताब के विमोचन के समय साफगोई से कहा कि यह और बात है कि उनका नाम भारत के ‘इम्पैक्ट’ खिलाड़ियों की सूची में नहीं है लेकिन, उन्होंने कहा कि पुरानी ‘बंबइया शैली’ की बल्लेबाजी में बल्लेबाज जब तेज गेदबाज को चौका लगाता था तब उसकी आंखों में नहीं देखता था ताकि उसे गुस्सा न आ जाए. आज कोहली उसे चौका मारते हैं और उसे कुछ इस तरह देखते हैं मानो कह रहे हैं कि ‘जाओ, गेंद ले आओं’.

हमारा भद्र, नेक इरादे रखने वाला नया बोर्ड इसी चीज को अपनी उन रोमानी धारणाओं से उलटने की कोशिश कर रहा है जिनके तहत वह इसे अब भी गलती से भलेमानुसों का खेल माने बैठा है और आइसीसी को खुश करने में जुटा है, और स्टीव स्मिथ बंगलूरू में डीआरएस पर अपमानजनक टिप्पणी करते हैं तब वह भारतीय टीम को शांत करने में जुट जाता है.

पुनश्चः – हमारे महानतम स्पिनर कौन हैं? अश्विन जिन्होंने हरेक 52.8 गेंद पर एक विकेट लेने का सर्वश्रेष्ठ स्ट्राइक रेट (1945 के बाद से अब तक का) दर्ज किया है. वे मुरली (55) और शेन वार्न (57) से आगे हैं. भारत में उनके बाद जडेजा (61.2) और कुंबले (66) हैं. पुरानी चौकड़ी में चंद्रशेखर कुंबले के बराबर 66 पर हैं, प्रसन्ना (76), बेदी (80), वेंकट (95) काफी पीछे हैं. भज्जी (69) उनसे आगे हैं.

यही वजह है कि इनमें से कोई भी इम्पैक्ट इंडेक्स/इम्पैक्ट प्ल्¨यर्स की आकाश चोपड़ा की सूची में नहीं आए हैं. और सच कहें तो यह भले ही दुखद लगे, इन चारों में से कोई भी वतर्मान भारतीय टीम में जगह नहीं पा सकेगा. अगर हम अंडर आर्म थ्रो या विकेटकीपर को वापस ‘बोलिंग’ की, जिसे आपने अब तीन दशकों से भारतीय फिल्डरों को करते नहीं देखा होगा, अनदेखी कर दे तब भी केवल स्पिन गेंदबाजी की प्रतिभा के बूते तो जगह पाना मुश्किल है.

दक्षिण अफ्रीका की रंगभेद नीति के कारण उसके खेल संबंधों पर लगे प्रतिबंध की समाप्ति के बाद भारत पहला देश था जिसने 1992 में दक्षिण अफ्रीका का पहला दौरा किया था. शेखर गुप्ता ने तब इंडिया टुडे के लिए उस ऐतिहासिक दौरे की रिपोर्टिंग की थी.