वित्त मंत्री के दावे सही हो सकते हैं लेकिन इनमें से कोई भी दावा उनके सामने खड़ी चुनौतियों की जटिलताओं को दूर नहीं कर सकेगा.
वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बृहस्पतिवार को संसद में बहस के दौरान जो तीन दावे किए वे सही हो सकते हैं. उनके दावे हैं- जीएसटी से कुछ ही समय में या अंततः फायदा ही होगा; कि भारत लगातार तीन साल से सबसे तेजी से विकास कर रही अर्थव्यवस्था बना हुआ है; और यह भी कि कुछ ताजा आर्थिक आंकड़े आर्थिक गतिविधियों में उछाल के संकेत दे रहे हैं. दुर्भाग्य से, जेटली जब कि पांचवी बार, और इस सरकार का अंतिम बजट तैयार करने जा रहे हैं तब इनमें से कोई भी दावा उनके सामने खड़ी चुनौतियों की जटिलताओं को दूर नहीं कर सकेगा.
सबसे पहला नंबर तो तेल का है, जिसकी कीमत बढ़कर 68 डॉलर प्रति बैरल हो गई है. इसकी उम्मीद किसी ने नहीं की थी. यह तो समय ही बताएगा कि इसका तेल की घरेलू कीमत और व्यापक तौर पर मुद्रास्फीति पर- बजट पर, और व्यापार घाटे पर क्या असर पड़ेगा, अगर पेट्रो उत्पादों पर करों को घटाना पड़ा. अभी वृहत् स्तर पर आर्थिक स्थिरता का ज्यादा खतरा नहीं है, जैसा कि पहले हो चुका है. लेकिन इन सबके चलते विकास कुप्रभावित होगा. यह उस विकास-बोनस का उलटा होगा, जो देश को 2014-16 में तब मिला था जब तेल की कीमतें नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के समय 110 डॉलर से घटकर दो साल पहले करीब 30 डॉलर प्रति बैरल हो गई थी. और 2015-16 में जीडीपी वृद्धिदर उछाल मारकर 7.9 प्रतिशत तक पहुंच गई थी.
ऊंची मुद्रास्फीति के साथ आज खाद्य पदार्थों की कीमतों में भी वृद्धि का खतरा है. तब रिजर्व बैंक के लिए निकट भविष्य मे ब्याजदरों में कटौती करना मुश्किल हो जाएगा. अपेक्षा से ज्यादा वित्तीय घाटा, जिसकी संभावना ज्यादा है, सरकारी (केंद्र$राज्य) घाटे के चढ़ते ग्राफ को र बढ़ाएगा और बॉण्ड दरं के पहले से ही ऊंचे स्तर को और बढ़ाएगा. महंगा धन वृद्धि की तेजी पर रोक लगा देता है.
चालू वित्तीय वर्ष के लिए ‘एडवांस’ जीडीपी वृद्धिदर (मूलतः सरकारी पूर्वानुमान) 6.5 प्रतिशत रहने का अनुमान है, जो 6.7 प्रतिशत के पुराने अनुमान से कमतर है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश ने अगले साल के लिए 7.4 प्रतिशत की वृद्धिदर का अनुमान लगाया था मगर इसमें भी कमी रहने की उम्मीद है मगर यह 7 प्रतिशत की सीमा को पार कर सकती है. इसमें ‘लो बेस’ से होने वाले लाभ के अलावा निर्यातों में ताजा सुधार से मदद मिली होगी. यह राहत की बात हो सकती है. तथ्य यह है कि निवेश वहीं पर स्थिर है जहां एक दशक पहले था, और उपभोग का ग्राफ सपाट होने के संकेत दे रहा है. इसलिए राजस्व में उछाल की उम्मीद रखने की कोई वजह नहीं है, हालांकि इसकी तब जरूरत पड़ेगी जब चुनाव से पहले वाले साल में सरकार कुछ ऊंची घोषणाएं करने की गुंजाइश का आकलन करने बैठेगी. इसलिए खर्चों पर काबू रखना ही कुंजी है, खासकर इसलिए कि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि जीएसटी से राजस्व प्राप्ति प्रति महीने 910 अरब रु. के बजट स्तर को कब हासिल कर पाएगी.
जिस साल से हरेक को उम्मीद थी कि उथलपुथल के बाद मूड भी बदलेगा और कामकाज भी, उस साल में इस तरह के फीके परिदृश्य का तकाजा है कि वित्त मंत्री राजस्व के उन स्रोतों को खंगालों जिन्हें अब तक नहीं छुआ गया है. इन स्रोतों में सबसे जाहिर स्रोत है शेयरों से दीर्घकालिक पूंजीगत लाभ पर कर, जिसे दूसरी तरह की परिसंपत्तियों से होने वाले पूंजीगत लाभ पर लगाए गए करों के बराबर लाया जा सकता है. अनुमान है कि इस मद में सैकड़ों अरब रुपये के कर से सरकार वंचित हो रही है, और यह बात भी तर्कसंगत तथा उचित नहीं लगती कि केवल एक वर्ग के निवेशकों को, जो शेयरों में पैसे लगाते हैं, कर से छुट्टी जारी रखी जाए.
इस तरह का कर बेशक जोखिम से मुक्त नहीं होगा. इसका शेयर बाजार पर गहरा असर पड़ेगा और विदेशी निवेशक मुंह फेर सकते हैं. अगर इसका नतीजा बहुत कठोर होगा तो संपदा पर ऋणात्मक प्रभाव उपभोग को भी प्रभावित करेगा और अंततः वृद्धि को भी. वैसे, इन जोखिमों से निबटने के भी उपाय हैं. उदाहरण के लिए, मुद्रास्फीति को निष्प्रभावी करने के उपाय किए जा सकते हैं और इस कर को धीरे-धीरे, चरणबद्ध तरीके से लागू किया जा सकता है ताकि किसी एक वर्ष में कर का कुल बोझ इतना कम हो कि बाजार पर असर न पड़े और निवेशक भागें नहीं. शुरू में मात्र 3 प्रतिशत का ही कर लगाया जा सकता है, जिसे दो चरणों में 10 प्रतिशत तक बढ़ाया जा सकता है.
‘बिजनेस स्टैंडर्ड’ से विशेष व्यवस्था के तहत