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Wednesday, November 6, 2024
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जनादेश का गलत अर्थ लेने से अनर्थ

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चुनाव जीतने के बाद राजनीतिक नेता यदि कोई सबसे बड़ी गलती कर सकते हैं, तो वह यह है कि वे जनादेश का गलत अर्थ लगा लें। नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने यह गलती 2014 के आम चुनाव में मिली जीत के बाद की। इसका नतीजा यह हुआ कि उनका सौभाग्य गोता खा गया। यह तथ्य बिहार चुनाव के परिणामों से स्पष्ट रूप से रेेखांकित हुआ है।

भाजपा नेतृत्व ने 2014 के आम चुनाव में मिले जनादेश को आरएसएस शैली के हिंदू राष्ट्रवाद और सामाजिक रूढ़िवाद की पुष्टि मान लिया। इसे इस रूप में भी देखा कि यह कड़े, तानाशाही शैली के शासन के लिए दिया गया वोट है, क्योंकि लोग यूपीए-2 की ढिले शासन से तंग आ गए थे। तीसरा और सबसे ज्यादा गलत यह नतीजा निकालना रहा कि जीत खासतौर पर उत्तरप्रदेश में विपक्ष के लगभग सफाए जैसी जीत, इस बात को पक्का करती है कि भारत में ध्रुवीकरण की अहम भूमिका है। यह कि यदि आप हिंदुओं में मुस्लिमों का पर्याप्त डर पैदा कर दें तो उनके वोट एकजुट हो जाएंगे और ऐसे विभाजन में बहुसंख्यकों की हमेेशा जीत होगी। यही तो बहुसंख्यकवाद की परिभाषा है। इसी प्रकार की राजनीति गुजरात में करीब दो दशकों से चल रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि 2014 के आम चुनाव में इसने उत्तरप्रदेश में भी असर दिखाया। सोचा गया अब यह बिहार में क्यों नहीं चल सकता?

इसका उत्तर बिहार के मतदाताओं की ओर से आया है। बिहार गुजरात नहीं है। सच तो यह है कि भारत का कोई भी राज्य नहीं है। अपवाद सिर्फ महाराष्ट्र का है, लेकिन वह भी कुछ हद तक। भारत के किसी भी राज्य में मुस्लिमों के प्रति वह संदेह और पाकिस्तान के प्रति वह उन्माद नहीं है, जो आप गुजरात में हम देखते हैं। मैंने भूतकाल में इसका विश्लेषण करने की कोशिश की है, लेकिन कभी भी यकीनी तौर पर ऐसा नहीं कर सका हूं। मैंने इसको खुद देखा है और इसकी भारी कीमत भी चुकाई है।

वर्ष 1992 में नवरात्रि के पहले दिन मैंने इंडिया टुडे पत्रिका का गुजराती संस्करण लॉन्च किया। मैं तब अंग्रेजी पत्रिका का वरिष्ठ संपादक होने के अलावा इसके अंतरराष्ट्रीय और देश की अन्य भाषाओं के संस्करणों का प्रकाशक भी था। गुजरात के पत्रिका बाजार में प्रवेश बहुत रोमांचक था, क्योंकि यह मेरा पहला लॉन्च था। संयोग से उसी दौरान मेरी नरेंद्र मोदी से पहली मुलाकात हुई। तब वे एक कमरे में रहने वाले साधारण पार्टी कार्यकर्ता थे। गुजराती संस्करण की पहली संपादक शीला भट्‌ट ने उनसे मेरी मुलाकात करवाई।

संस्करण ने अच्छा प्रदर्शन किया अौर कुछ ही हफ्तों में हम एक लाख प्रतियों के निकट पहुंच गए। तब मुश्किल से हमारा छठा अंक होगा (इंडिया टुडे तब पाक्षिक पत्रिका थी) और बाबरी मस्जिद की घटना हुई। हमने इस पर बहुत दृढ़, धर्मनिरपेक्ष और संवैधानिक रुख अपनाया। हमारे अंग्रेजी संस्करण के आवरण का शीर्षक था, ‘नेशन्स शेम।’ गुजराती में शेम का ठीक-ठीक तर्जुमा था ‘कलंक।’ मार्केटिंग हैड दीपक शौरी ने हमें इसके खिलाफ आगाह किया। उन्होंने कहा कि गुजराती इसे कभी स्वीकार नहीं करेंगे। हम अपने संपादकीय रुख पर कायम रहे और फैसला किया कि हम बाजार के अनुकूल होने के लिए अपने मूलभूत दृष्टिकोण में नरमी नहीं लाएंगे। शौरी सही साबित हुए। अंक के बाजार में आते ही विरोध-प्रदर्शनों की सुनामी आ गई। ये इंटरनेट के पहले के दिन थे, लेकिन मेरी मेज पर इंडिया टुडे को ‘पाकिस्तान टुडे’ और ‘इस्लाम टुडे’ आदि कहने वाले पत्रों की बाढ़ आ गई। एक महीने में ही हमारी बिक्री 75 फीसदी गिर गई। संस्करण इससे कभी उबर नहीं पाया और कुछ वर्षों बाद इसे बंद करना पड़ा। गौर करें कि यह सब मोदी के उदय के बरसों पहले हुआ था। गुजरात में तब कांग्रेस सत्ता में थी, इसलिए मोदी या हिंदुत्व को दोष मत दीजिए। यह गुजरात की जनता का दृष्टिकोण था।

ऐसा क्यों है, मैं इसका कभी जवाब नहीं खोज पाया। मेरे कुछ विद्वान गुजराती मित्रों ने मुस्लिम हमलों के लंबे इतिहास और सोमनाथ मंदिर को कई बार ध्वस्त करने की अोर इशारा किया। कुछ लोगों नेे यह भी ध्यान दिलाया कि सीमावर्ती राज्य होने के बाद भी गुजरात ज्यादा लड़ाइयों का साक्षी नहीं बना, लेकिन इसे दो झटके जरूर लगे। 1965 की शुरुआत में हुई कच्छ की लड़ाई, जिसमें भारत ने बड़ी उदासीनता से लड़ाई लड़ी और उसे अपमानजनक युद्ध विराम के लिए राजी होना पड़ा (जो जमीन हम गंवा बैठे थे, उसे 1971 में फिर हासिल कर लिया गया) और दूसरा झटका सितंबर 1965 के युद्ध में लगा जब पाकिस्तान के सेबर विमान ने गुजरात सरकार के आधिकारिक डकोटा विमान को मार गिराया, जिसमें मुख्यमंत्री बलवंत राय मेहता सवार थे। तब अत्यधिक लोकप्रिय नेता रहे मेहता एकमात्र ऐसे बड़े व्यक्ति थे, जो स्वतंत्रता के बाद हुए संघर्ष के शिकार हुए। किंतु ये बातें अब बहुत दूर की दिखाई पड़ती हैं और इससे गुजराती भावना की सच्ची व्याख्या नहीं होती।

मैं रास्ता नहीं भटका हूं और अपने मुख्य विषय पर लौट रहा हूं। तो सच्चाई यही है कि मैं चाहे इसे समझा न पाऊं कि गुजरात इस तरह क्यों सोचता है पर शेष भारत इस तरह नहीं सोचता। अयोध्या की घटनाअों के बाद वाले हमारे उसी शीर्षक व दृष्टिकोण ने बिहार सहित पूरे हिंदी हृदय प्रदेश में हमारे कहीं बड़े हिंदी संस्करण की बिक्री को आसमान पर पहुंचा दिया। जाहिर है शेष भारत अलग ढंग से सोचता है।

यदि गुजरात द्वारा इतनी शिद्‌दत से ठुकराए गए संस्करण का हिंदी प्रदेश ने इतना स्वागत किया तो इसका अर्थ यही है कि जो वहां बिकता है, वह यहां ठुकराया जा सकता है। 2014 के चुनाव में उत्तरप्रदेश में इतनी जबर्दस्त जीत इसलिए मिली, क्योंकि युवाओं को आर्थिक तरक्की और निर्णायक सरकार के वादे में नई उम्मीद नज़र आई। यह कोई मुस्लिम या पाकिस्तान के खिलाफ जनादेश नहीं था। बिहार में बिल्कुल उलटा हो गया। मतदाताओं ने देखा कि नीतीश वही सकारात्मक, रचनात्मक आह्वान कर रहे हैं, जबकि भाजपा ने उन्हें मुस्लिम, पाकिस्तान, आतंकवाद से डराने की कोशिश की या उनसे गोरक्षा का आह्वान किया। लोगों ने सकारात्मकता को चुना।

इसलिए हमारा निष्कर्ष : तरक्की के गुजरात मॉडल ने नरेंद्र मोदी को 2014 में जीत दिलाई किंतु, चूंकि भाजपा ने जनादेश का गलत अर्थ निकाला, इसलिए वह ध्रुवीकरण के गुजरात मॉडल को भारत में अन्य जगहों पर भी आजमा रही है। कोई अचरज नहीं कि बिहार ने इस मॉडल को ठुकरा दिया।

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