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Saturday, May 11, 2024
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बीता द्विपक्षीय हल का दौर तलाशना होगा नया ठौर

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दुनिया भर के मतदाता इस समय तीन ही शब्दों को पसंद कर रहे हैं और उनकी नफरत भी तीन शब्दों तक ही सीमित है। लोगों को बदलाव, टूटन और मूर्तिभंजन पसंद हैं जबकि यथास्थिति, संस्थानों और संतुलन कायम करने की सोच से नफरत है। अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप इसका ताजा उदाहरण हैं। नरेंद्र मोदी को सत्ता में लाने और उनकी लोकप्रियता बनाए रखने की भी यही वजह है।

राजनीति को लेकर मोदी का रुख सभी पुराने प्रतिष्ठानों पर हमला करने का रहा है। उन्होंने तमाम बुर्जुआ संस्थाओं, उनकी विचार प्रक्रिया, नेटवर्क और उनकी छद्म विनम्रता पर ट्रंप के उदय से बहुत पहले हमला बोल दिया था। वही दौर था जब अरविंद केजरीवाल ने ‘सब मिले हुए हैं’ का जाप शुरू किया था। उनका कहने का तात्पर्य यह था कि सभी बुर्जुआ जो सत्ता में साझेदार हैं, वे एकजुट हैं।

अगर आप पहले से स्थापित प्रतिष्ठानों को छद्म, भ्रष्ट, दिवालिया और केवल अपने लिए काम करने वाला साबित करते हैं तो आपको उनके मूल विचार को भी खारिज करना होगा। खासतौर पर जब ये विचार पार्टी लाइन से परे जाकर साझा किए जा रहे हैं क्योंकि ये विशिष्ट बुर्जुआ मिलीभगत की स्थापना करते हैं। ट्रंप ने जो वादे किए थे उनमें से एक यूरोप को लेकर अमेरिकी नजरिये में बदलाव भी था।

अब तक रिपब्लिकन और डेमोक्रेट्स में यूरोप को लेकर काफी बहस हो चुकी है। अमेरिकी नजरिये वाले आदर्श विश्व में उसकी अहम भूमिका थी जिसकी हर हाल में रक्षा की जानी चाहिए थी। नाटो के प्रति अमेरिकी प्रतिबद्घता इसीलिए है। अब ट्रंप ने भी वादे के मुताबिक एंजेला मर्केल से कहा कि वह नाटो की रक्षा लागत में जर्मनी के हिस्से के लाखों डॉलर का भुगतान करें।

इससे पहले अगर किसी अमेरिकी राष्ट्रपति ने अपने यूरोपियन सहयोगी, वह भी जर्मन से संरक्षण के बदले पैसे मांगे होते तो उसे बहुत बुरा माना जाता। कुछ लोग तो उसे रूसी जासूस तक कह डालते जो किसी तरह अमेरिका का राष्ट्रपति बनने में कामयाब रहा हो। ट्रंप ने तमाम बातों की अनदेखी करते हुए यह कदम उठा ही डाला।

भारत में भी बदलाव देखने को मिला है। नरेंद्र मोदी ने अमेरिका तक पहुंच बनाने में पुरानी विदेश नीति को त्याग दिया। उनके कार्यकाल में गुटनिरपेक्षता की अहमियत कम हुई। उन्होंने अपने पूर्ववर्तियों के उलट चीन को लुभाया। उन्होंने पुरानी मान्यताओं को ठुकराते हुए अपनी विचारधारात्मक छवि के मुताबिक काम किया है। इसमें कोई दिक्कत भी नहीं है। यही वजह है कि हमें एक और क्षेत्र में बदलाव देखने को मिल रहा है।

संयुक्त राष्ट्र में टंरप की राजदूत निक्की हेली ने बीते दिनों एक प्रश्न के उत्तर में कहा कि अमेरिका भारत-पाकिस्तान की दुश्मनी से चिंतित है और वह कुछ बुरा होने की प्रतीक्षा नहीं कर सकता। इसके बाद उन्होंने दोनों के बीच मध्यस्थता की पेशकश कर डाली। जाहिर है भारत की ओर से तीखी प्रतिक्रिया हुई। वही पुरानी बात दोहराई गई कि यह मुदा द्विपक्षीय है और इसे ऐसे ही हल किया जा सकता है। किसी तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप की जरूरत नहीं वगैरह।

अगर आप मोदी के मतदाता होते या उनके तेजी से बढ़ते प्रशंसकों में से एक होते तो आपके मन में यह सवाल अवश्य उठता और आप पूछते भी कि देश की विदेश नीति से जुड़े इस अहम मसले पर वही पुरानी घिसीपिटी पंक्ति क्यों दोहराई जा रही है। शिमला समझौते के बाद से हर नेता, राजनयिक और नीतिगत विशेषज्ञ ने यही बात दोहराई है। क्या आप यह बात सुनकर निराश नहीं होते कि मोदी सरकार और नया सत्ता प्रतिष्ठïान इस अहम मसले को लेकर उसी पुरानी बात पर अड़ा हुआ है। क्या आपने यथास्थिति को खत्म करने के लिए नई सरकार नहीं चुनी थी? क्या आप पुराने सोच को बदलना और इस संतुलन और सामंजस्य की राजनीति में परिवर्तन नहीं चाहते थे?

अब वक्त आ गया है जब इस बात पर बहस की जाए कि वर्ष 2017 में देश का जो कद है क्या उसमें पाकिस्तान और कश्मीर को लेकर कुछ अहम बदलाव नहीं दिखने चाहिए? क्या पाकिस्तान को लेकर द्विपक्षीय चर्चा की बात अब पुरानी नहीं पड़ चुकी? इसके मूल में क्या था खुद पर भरोसा या असुरक्षा? भारत तीसरे पक्ष से डरता क्यों है? क्या ऐसा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सन 1948 के प्रस्ताव की वजह से है? क्या भारत अब भी यह मानता है कि अगर किसी बड़ी शक्ति को मध्यस्थ बनाया गया तो सन 1966 में तत्कालीन सोवियत संघ के ताशकंद के तर्ज पर हम पर दबाव बनाया जाएगा?

अपनी ताकत के शिखर पर नरेंद्र मोदी इस पर पुनर्विचार कर सकते हैं। बीते 44 सालों से अहम नीतिगत स्थिति पर बहस नहीं हुई है। अब इस पर खुलकर चर्चा की जानी चाहिए। समय के साथ मुद्दे भी बदलते हैं और विभिन्न देशों की बातचीत और किसी नतीजे पर पहुंचने की क्षमता भी।
शिमला समझौते में मूल बात यह थी कि कश्मीर पूरी तरह द्विपक्षीय मुद्दा है। इससे सुरक्षा परिषद का प्रस्ताव अप्रासंगिक हो गया। लेकिन उस बात को बहुत वक्त बीत चुका है। अगर सन 1989 के बाद से देखें, जब कश्मीर में दोबारा समस्या शुरू हुई, तो भारत पाकस्तिान के रिश्ते तेजी से बदले हैं। प्रतिव्यक्ति आय देखें तो पाकिस्तान उस वक्त भारत की तुलना में समृद्घ मुल्क था। अब हालात उलट चुके हैं और भारत सालाना पांच फीसदी की दर से पाकिस्तान को पीछे छोड़ रहा है। देश की आबादी पाकिस्तान की तुलना में आधी गति से बढ़ रही है और हमारी वृद्घि दर काफी ज्यादा है। सन 1979 में अफगानिस्तान में सोवियत संघ के हस्तक्षेप के 15 साल बाद पाकिस्तान पश्चिमी ताकतों का अहम सहयोगी था। अमेरिका में 9/11 के हमले ने भी उसे कुछ राहत दी थी लेकिन अब वक्त पूरी तरह पलटा खा चुका है।

इस बीच भारत विश्व शक्ति के रूप में उभरा है। उसने न केवल आर्थिक प्रगति हासिल की है बल्कि उसकी सेना भी ताकतवर हुई है। इंदिरा गांधी के बाद से राजनीतिक स्थिरता पहली बार इतनी ज्यादा है। इस बात को सब मानते हैं। इससे भारत को यह बल मिलना चाहिए कि वह असुरक्षाओं को धता बताकर कश्मीर और पाकिस्तान को लेकर नया रुख अपनाए।

यह कहना हालांकि उचित नहीं कि दो संप्रभु राष्ट्र समान नहीं हैं लेकिन हम चाहते भी तो यही हैं? आज भारत और पाकिस्तान किसी पैमाने पर समान नहीं हैं। यहां तक कि क्रिकेट, हॉकी और सूफी संगीत तक में नहीं। द्विपक्षीय बातचीत का सिद्घांत तभी कारगर होता है जो दोनों पक्ष समान हों। लेकिन अब ऐसी बात नहीं है। भारत के पास बढ़त है जिसका उसे इस्तेमाल करना चाहिए।

इसके अलावा द्विपक्षीय सिद्घांत निरंतर स्थिर देशों के बीच ही लागू होता है। पाकिस्तान का लोकतंत्र मुशर्रफ के बाद से लंबी दूरी तय कर चुका है। लेकिन अन्य नीतिगत मसलों पर वह पूरी तरह नियंत्रण में नहीं है। अगर कोई समझौता हुआ भी तो किसके साथ होगा? पाकिस्तानी शासक अपने पूर्ववर्तियों को मार सकते हैं, जेल में डाल सकते हैं और निर्वासित भी कर सकते हैं। वे अपने अनुकूल संविधान बना सकते हैं। ऐसे लोग किसी अंतरराष्ट्रीय समझौते का सम्मान क्यों करेंगे? मान लीजिए अगले चुनाव के बाद वहां इमरान खान की सरकार आती है तो क्या आपको लगता है कि वह नवाज शरीफ की प्रतिबद्घताओं का मान रखेंगे?

यही वजह है कि पाकिस्तान लगातार शिमला, लाहौर और इस्लामाबाद में हुई घोषणाओं की बात करता है और करता रहेगा। यह अपने आप में इस बात का प्रमाण है कि द्विपक्षीय चर्चा का सिद्घांत विफल हो चुका है। ऐसे में मेरा मानना है कि पाकिस्तान के साथ कोई समझौता तब तक स्थायी नहीं होगा जब तक कि कोई बड़ी शक्ति शामिल न हो। हमें ऐसी मदद की तलाश करनी चाहिए। मोदी के शासन काल में वक्त आ गया है कि शीतयुद्घ के सोच से परे जाकर विकल्प तलाश जाए।

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