scorecardresearch
Saturday, May 11, 2024
Support Our Journalism
HomeSG राष्ट्र हितपंजाब में आप की हार त्रासद अतीत को नकार

पंजाब में आप की हार त्रासद अतीत को नकार

Follow Us :
Text Size:

आम आदमी पार्टी को पंजाब में पराजय का सामना करना पड़ा क्योंकि उसने राज्य को लेकर सांप्रदायिक दृष्टि अपनाई, पुराने गुस्से को भड़काया और कट्टरपंथियों को साथ लिया। यह कटु सत्य है कि पराजय का कोई माई-बाप नहीं होता। यह कहावत मेरे दिमाग में शायद इसलिए आई क्योंकि मैं ब्रिटिश पत्रकार मायरा मैकडॉनल्ड की इसी तरह के नाम से आई किताब पढ़ रहा हूं जो पाकिस्तान के हालिया इतिहास के बारे में है। लेकिन शायद यह ख्याल मेरे दिमाग में इसलिए भी आया क्योंकि अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) को पंजाब और गोवा में हार का सामना करना पड़ा।

गोवा में पार्टी की गति जहां स्पष्टï तौर पर थम गई थी, वहीं पंजाब में तो उसके प्रतिद्वंद्वी और आलोचक (मैं भी) यह मान रहे थे कि वह बेहतर प्रदर्शन करेगी। मेरा मानना था कि वह पहले या दूसरे नंबर पर रहेगी। मैं यह मान रहा था कि यह मजबूती से दूसरे स्थान पर आएगी और उसे 40 से अधिक सीटें मिलेंगी। यह दूसरे स्थान पर आई जो कि एक नई और बाहरी पार्टी के लिए बहुत अच्छा है। वह भी एक ऐसे प्रदेश में जहां राजनीतिक ध्रुवीकरण केरल से कम नहीं है। लेकिन उसे महज 20 सीटें मिलना बहुत ही शर्मिंदगी भरा है। इन चुनावों के बाद आप को लेकर तमाम बातें कही गईं। मसलन अरविंद केजरीवाल क्रिकेटर विनोद कांबली की तरह हो सकते हैं जिन्होंने अचानक चमक बिखेरी और उसके बाद विलुप्त हो गए। पहले देखते हैं कि आप ने कौन से कदम सही उठाए। उसने एकदम सही मुद्दे चुने: पंजाब का पराभव, बेरोजगारी, विरक्ति, एक गर्वीली आबादी के आत्मसम्मान का सामूहिक ह्रïास आदि। दूसरी बात उसने उन लोगों पर आरोप लगाया जिन्हें मोटे तौर पर जनमानस भी दोषी मान रहा था, शिरोमणि अकाली दल। ज्यादा स्पष्टï होकर कहें तो बादल परिवार जिसने एक लोकतांत्रिक ‘पंथ’ आधारित दल को एक सामंती खेमे में बदल दिया।

आप ने राज्य में बहुत जल्दी शुरुआत की। उसने सोशल मीडिया का बेहतरीन इस्तेमाल किया, पंजाब के समकालीन युवा और प्रतिभाशाली सितारों को अपने साथ जोड़ा और वह लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल रही। उसने विचारधारा के दोनों चरम ध्रुवों यानी वाम और दक्षिण से नाराज युवाओं को अपने साथ लिया। दलित (देश में सर्वाधिक 33.4 फीसदी दलित मतदाता पंजाब में हैं), जिनमें से कई पारंपरिक तौर पर कांग्रेस को वोट देते आए थे उन्होंने आप का रुख किया। उनका वोट कांग्रेस को इसलिए जाता था क्योंकि उन्हें लगता था कि वही उनको परेशान करने वाले जाट सिखों का मुकाबला कर सकती है। यह बात ध्यान देने वाली है कि पंजाबी दलितों ने कभी बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का साथ नहीं दिया, हालांकि उसके संस्थापक कांशीराम पंजाब से ही थे। केजरीवाल खूब भीड़ जुटा रहे थे। पिछले लोकसभा चुनाव से अंदाजा लें तो पार्टी को तकरीबन 33 सीटों पर जीत मिली थी और वह दूसरे स्थान पर थी।

आप का नेतृत्व पढ़े-लिखे, चतुर युवाओं के हाथ में है। उनकी राजनीति भ्रष्टïाचार, बदले और युवाओं की राजनीति है। दिल्ली में इसने बखूबी काम किया। लोकसभा चुनाव के बाद हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी का विजय रथ दिल्ली में थम गया था। इसके साथ ही पंजाब में पार्टी की सुगबुगाहट बढऩे लगी। आप के चतुर थिंक टैंक इस पर विचार करेंगे कि उनको पंजाब में हार क्यों मिली। जाहिर है इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन की गड़बड़ी जैसे आरोपों के बजाय उन्हें अधिक ठोस वजह तलाशनी होगी। मैं केवल एक वजह पर बात करूंगा। अब यह स्पष्टï है कि पार्टी ने पंजाब में विशुद्घ सांप्रदायिक दृष्टिïकोण अपनाकर चूक की। मैं शब्दों के चयन में सावधानी बरत रहा हूं। पंजाब की मूल पहचान हैं पगड़ी, भांगड़ा, बल्ले-बल्ले और स्वर्ण मंदिर। लेकिन यह केवल एक सिख राज्य नहीं है। वहां की 40 फीसदी आबादी हिंदू है। वे भी सिखों की तरह ही पंजाबी हैं। उनकी संस्कृति एक है, प्रार्थना एक है और गुरुद्वारे भी वही हैं। इसी तरह सिख भी हिंदुओं जैसे ही हैं। पंजाब के लोग बहिर्मुखी होते हैं और बाहरी लोगों को आगे बढ़कर गले लगाते हैं लेकिन उनको अपनी पहचान को लेकर कोई दुविधा नहीं है। ऐसे में ढीलीढाली पगड़ी लगाए सिख दिखने की कवायद करता कोई व्यक्ति उनको प्रभावित नहीं कर पाएगा। खासतौर पर अगर वह वोट मांग रहा हो। इससे उनका मनोरंजन भी हो सकता है और वे नाराज भी हो सकते हैं। एक पंजाबी की प्रतिक्रिया कुछ इस तरह होगी: मुझे पता है तुम बाहरी हो लेकिन मैं तुमको पसंद करता हूं। तो फिर तुम ये पहनावे से मुझे लुभाने का प्रयास क्यों कर रहे हो?

एक बार जब आप ने यह तय कर लिया कि उसे पंजाब में केवल सिख वोटों की जरूरत है तो उसकी राजनीतिक अपील उसी हिसाब से तय होने लगी। अगली बड़ी गलती थी सिख समुदाय के उन जख्मों को कुरेदना जिन्हें सिख समुदाय 1980 के दशक से भरने में लगा है। यानी ऑपरेशन ब्लूस्टार में उनके पवित्र तीर्थ की अवमानना और इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में सिखों पर हुए जुर्म। पार्टी ने दिल्ली के सबसे प्रमुख कार्यकर्ता-अधिवक्ता एच एस फुलका की मदद लेकर सन 1984 के हत्याकांड के पीडि़तों को न्याय दिलाने की कोशिश की। उन्हें पंजाब में शायद ही कोई जानता था लेकिन पार्टी ने उनको अपना स्थानीय चेहरा बनाया।

ब्लूस्टार से जुड़ी विरक्ति और प्रतिहिंसा की भावना को दोबारा जगाने की कोशिश की गई। इस क्रम में उन लोगों से संपर्क किया गया जो कभी खालिस्तान अभियान में शामिल थे और इतने अरसे बाद भी उनमें अतीत मोह जिंदा था। इस तरह अनिवासी सिखों से समर्थन, आर्थिक मदद और काम करने के लिए लोग भी मिले। खासतौर पर ये सब कनाडा से हासिल हुआ जहां अमीर गुरुद्वारों में खालिस्तान की फैंटेसी अभी जिंदा है। उम्मीद यही थी कि इससे पार्टी को सिख वोट मिलेंगे।

मैंने सबसे पहले 2014 लोकसभा चुनाव के वक्त ही यह ध्यान दिया था कि आप सुसुप्त पड़े कट्टïरपंथियों से खतरनाक ढंग से संपर्क बढ़ा रही है। यह वह दौर था जब कई भूले बिसरे नाम अचानक सामने आने लगे थे। गुरदासपुर में सुच्चा सिंह छोटेपुर को विनोद खन्ना के सामने मैदान में उतारा गया। वह भी पूर्व चरमपंथी हैं। पूर्व राजनयिक हरिंदर सिंह खालसा जिन्होंने नॉर्वे में पदस्थापना के दौरान ब्लूस्टार के विरोध में त्यागपत्र दे दिया था और राजनीतिक शरण चाही थी। उन्हें फतेहगढ़ साहब से उम्मीदवार बनाया गया। आज मैं कह सकता हूं कि वह भी किसी भी अन्य भारतीय की तरह ही देशभक्त हैं लेकिन एक काला इतिहास था जिसका फायदा उठाने की कोशिश की गई। अमृतसर में मुझे पूर्व खालिस्तानी मोहकाम सिंह मिले जो जरनैल सिंह भिंडरांवाले के अंदरूनी सर्किल में मेरे मुलाकाती थे। उस वक्त का यह 24 वर्षीय युवा अब कट्टïरपंथियों के एक ढीलेढाले गठबंधन का संयोजक था। उन्होंने आप को समर्थन दिया। वह भिंडरांवाले की तस्वीर तले बैठकर अपनी बात कहते रहे। इस तरह कनाडाई अतिक्रमण ने डरे हिंदुओं के लिए तस्वीर पूरी कर दी। उन्होंने कांग्रेस को वोट दिया क्योंकि वही आप को हराने की स्थिति में थी।

वर्ष 2014 में योगेंद्र यादव आप के साथ थे और उन्होंने मुझसे कहा था कि ऐसा करके ही पूर्व कट्टïरपंथियों को राजनीति की मुख्य धारा में लाया जा सकता है। परंतु पंजाबी हिंदुओं और सिखों को सन 1979-94 के दौर में बहुत कुछ सहना पड़ा था। उनमें इस बात का धैर्य नहीं था। यह बात फैल गई कि कनाडाई खालिस्तानी पंजाब में सरकार बनाना बस नहीं चाहते। बल्कि वे बाहरी और अच्छे उद्देश्य वाली लेकिन सीधी सादी आप का इस्तेमाल अकाली दल को खत्म करने के लिए करना चाह रहे थे। इस तरह उनका लक्ष्य शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी पर काबिज होना था। एक बार गुरुद्वारों का नियंत्रण मिल जोन के बाद वे वही पुरानी कहानी दोहराते। पंजाब में कोई भी यह नहीं चाहता था, खासतौर पर सिख तो बिल्कुल नहीं। राज्य को उस स्थिति से उबरने में दशकों लग गए थे। कांग्रेस तीन बार चुनी जा चुकी थी ऐसे में अगर आप ने अतीत का दोहन करने के बजाय बेहतर प्रदर्शन का वादा किया होता तो उसका प्रदर्शन बहुत बेहतर हो सकता था। कम से कम मेरा तो यही मानना है।

Subscribe to our channels on YouTube, Telegram & WhatsApp

Support Our Journalism

India needs fair, non-hyphenated and questioning journalism, packed with on-ground reporting. ThePrint – with exceptional reporters, columnists and editors – is doing just that.

Sustaining this needs support from wonderful readers like you.

Whether you live in India or overseas, you can take a paid subscription by clicking here.

Support Our Journalism

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular