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Tuesday, November 5, 2024
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विदेश नीति के मोर्चे पर मोदी की पहल

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इस सप्ताह के आरंभ में नई दिल्ली स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) में एक संवाद के दौरान अमेरिका के विदेश मंत्री जॉन केरी ने उस बात का जिक्र किया जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस वर्ष की शुरुआत में कैपिटल हिल में अपने संबोधन में कही थी। प्रधानमंत्री ने कहा था कि भारत और अमेरिका अपनी ऐतिहासिक हिचकिचाहट से निजात पा चुके हैं। परंतु उनको अगर ऐतिहासिक हिचकिचाहट और पाखंड का दीदार करना हो तो बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है। परिसर से कुछ दूरी पर उन्हें दिल्ली की आउटर रिंग रोड का वह हिस्सा मिल जाता जिसका नामकरण गैमल अब्दुल नासिर के नाम पर हुआ है। यह शायद दुनिया का एकमात्र इलाका होगा जिसका नाम शीतयुद्घ/गुटनिरपेक्ष दौर के मिस्र के इस तानाशाह के नाम पर रखा गया है। यह वह शख्स है जिसकी विरासत को खुद उसके मुल्क के लोग नकार चुके हैं। एक मील पूर्व में जाने पर इसी सड़क का नाम बदलकर हो ची मिन मार्ग हो जाता है। यह बात जाहिर करती है कि भारत की राजधानी की सड़कों पर शीतयुद्घ अभी भी जिंदा है। लेकिन यह तो आधा ही किस्सा हुआ। उसी शाम केरी ने रहस्यमयी अंदाज में दिल्ली का अपना दौरा बढ़ा दिया। इसकी वजह से अटकलों का बाजार भी गरम रहा। अगले दिन इसकी एक प्रमुख वजह सामने आई। चूंकि मिस्र के राष्ट्रपति अब्दुल फतह अल सिसी औपचारिक यात्रा पर भारत आ रहे थे, इसलिए केरी ने उनसे यहीं मुलाकात करने का निर्णय किया।

यह बात भारत के ऐतिहासिक पाखंड और हिचकिचाहट के मिश्रण को उजागर करता है। शीत युद्घ का 25 साल पहले खात्मा हो चुका है। इसके बाद एकध्रुवीय विश्व का उदय हुआ। उसके बाद यह ध्रुव भी अपने ही चुंबकत्व में तिरोहित हुआ और उसे परेशान करने वाली एक और शक्ति का उदय हुआ। इससे वैश्विक सत्ता संतुलन का विघटन हुआ। क्यूबा, ईरान और अमेरिका ने अपनी पुरानी शत्रुता को त्याग दिया। भारत में हुआ यह कि उसका कुछ हिस्सा तो समय के साथ आगे बढऩे को तैयार था जबकि शेष अतीत में ठहरा हुआ था। यह कुछ कुछ उस बल्लेबाज की तरह था जो फ्रंटफुट पर खेलना चाहता हो लेकिन अपना पिछला पैर उठाने के लिए तैयार न हो। केरी का अल सिसी से मिलने के लिए दिल्ली में रुकना, जबकि दोनों की मेजबानी भारत कर रहा हो, इस हिचकिचाहट और पाख्ंाड तथा बौद्घिक सुस्ती का स्पष्ट उदाहरण है। खेद की बात है कि नासिर मार्ग पर इन तीनों नेताओं की एक तस्वीर नहीं ले सकते। लेकिन आप उस तस्वीर की कल्पना कर सकते हैं और हालिया बदलाव के महत्त्व का अंदाजा लगा सकते हैं। बर्लिन की दीवार गिरने के बाद से तीन महत्त्वपूर्ण प्रधानमंत्रियों, पीवी नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह ने पुरानी अनिच्छा से बाहर निकलने की जरूरत समझी। इनमें से प्रत्येक ने अपने-अपने तरीके से और अपनी विशिष्टï परिस्थिति के अधीन ऐसा करने का प्रयास किया। लेकिन किसी न किसी मोड़ पर उनमें से प्रत्येक पुरानी हिचकिचाहट का शिकार हो गया। मोदी ने बहुत निर्भीक तरीके से उससे पीछा छुड़ा लिया है।

कांग्रेस को संबोधित करते हुए उन्होंने सामरिक साझेदारी की परिभाषा को एक नये स्तर पर पहुंचा दिया। मोदी ने रक्षा, सैन्य और सुरक्षा जैसे क्षेत्रों को साझेदारी की दृष्टिï से अपरिहार्य करार दिया। सबसे अहम बात यह कि उन्होंने कहा कि भारत अमेरिका का सबसे अपरिहार्य रक्षा और सुरक्षा साझेदार है। यह शब्दकोष के हिसाब से चलने वाली कूटनीति नहीं थी बल्कि प्रधानमंत्री ने भारत को एक ऐसे सामरिक साझेदार के रूप में आगे किया जिसके बिना अमेरिका इस क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ सकता। यह सब बिना कहे कह दिया गया।

यह बात ध्यान देने लायक है कि गुटनिरपेक्षता आंदोलन के बाद पहला वर्ष है जब कोई भारतीय प्रधानमंत्री इसमें शामिल नहीं होगा। चौधरी चरण सिंह के प्रशंसकों और उनके वारिसों से माफी के साथ कहना चाहूंगा कि सन 1979 में उनकी अल्पावधि की सरकार को पूरी सरकार नहीं माना जा सकता है और अगर उस वर्ष अगर वह गुटनिरपेक्ष सम्मेलन में शामिल नहीं हुए तो इसकी घरेलू राजनीतिक वजह थीं। मोदी बीते 30 साल में देश के पहले पूर्ण बहुमत वाले प्रधानमंत्री हैं और उनका ऐसा करना मायने रखता है। खासतौर पर यह देखते हुए कि वह बहुत अधिक विदेश यात्राएं करते रहे हैं।

भारतीय विदेश नीति को लेकर निरंतरता बनाम बदलाव की बहस वर्षों से चलती रही है। आमतौर पर निरंतरता इस बहस में बाजी मारती रही है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता परिवर्तन तो होता ही है। लेकिन इसका तात्पर्य विदेश नीति और सामरिक नीति में बदलाव नहीं होना चाहिए क्योंकि वे एक व्यापक राष्ट्रीय सहमति पर आधारित होते हैं। अब तक तो यही मान्यता रही है। लेकिन अपने कार्यकाल के तीसरे ही वर्ष में मोदी ने इसे परे कर दिया।

आप इसे अमेरिका के साथ उनके तारतम्य में देख सकते हैं, जबकि अमेरिका में नए राष्ट्रपति का चुनाव होना है। मोदी इससे एकदम बेपरवाह हैं। या फिर गुटनिरपेक्ष सम्मेलन में उनकी गैरमौजूदगी इसका उदाहरण है। चीन, पाकिस्तान और अन्य इस्लामिक समूहों के प्रति उनके रुख में भी इसे देखा जा सकता है। चीन के साथ उन्होंने निकट भविष्य की सामरिक गर्माहट का समावेशन किया है। उनके प्रयास सफल भले न हों लेकिन बदलाव तो हुआ है। आपको हमारा बाजार चाहिए, हमें आपकी सस्ती चीजें चाहिए यानी व्यापार संतुलन। सामरिक रिश्ता एक अहम पहलू है और अगर आप हमारा बाजार चाहते हैं तो हमारे साथ उलझिए मत। लेकिन जब चीन एनएसजी या मसूद अजहर के मसले पर ऐसा करते है तो वह तत्काल सीपीईसी पर प्रश्न खड़ा करके या चीन से आने वाली कम तकनीक कम कौशल वाली चीजों के आयात के विरुद्घ स्वदेशी का स्वर बुलंद कर जवाब देते हैं। याद कीजिए गत सप्ताह उन्होंने मिट्टïी की मूर्तियों की हिमायत की थी। जाहिर है उनका इशारा चीन में बनी प्लास्टिक की मूर्तियों का प्रयोग न करने के बारे में था।

इसी तरह इस्लामिक जगत की बात करें तो सुन्नी और शिया दोनों के बीच वह अपनी निजी और राष्ट्रीय छवि की बदौलत एक द्विपक्षीय रिश्ता कायम करने के लिए प्रयासरत हैं। नए माहौल में जब अमेरिका से लेकर यूरोप और चीन तक और यहां तक कि सऊदी अरब और यूएई तक हर कोई राज्यविहीन इस्लाम के चलते जड़वत है और जब ईरान को आईएसआईएस का प्रभाव रोकने में अहम माना जा रहा है तब उनके पास मौके का फायदा उठाने का अवसर भी है। वह ऐसा कर भी रहे हैं। वह भारत और इस्लामिक जगत के रिश्ते को फिलीस्तीन और इजरायल के पारंपरिक दायरे से बाहर ले आए हैं।

इसकी वजह से वह पाकिस्तान को लेकर भी एक नई नीति लाने में सफल रहे हैं। इसीलिए उन्होंने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर, गिलगित-बाल्टिस्तान और बलूचिस्तान का जिक्र किया। कश्मीर को लेकर सतर्कता बरतने का 25 साल पुराना रुख त्याग दिया है। हालांकि इसके लाभ-हानि पर बहस हो सकती है। मोदी को लगता है कि अब वक्त आ गया है कि हम इस सोच से आगे बढ़े क्योंकि पाकिस्तान काफी अलग-थलग पड़ गया है। वह अपने ही नागरिकों पर एफ-16 विमानों और गोला-बारूद का प्रयोग कर रहा है और उसके पास कोई नैतिक आधार नहीं है कि वह कश्मीर में मानवाधिकार की बात करे। उसे कोई तवज्जो नहीं देता है और दुनिया में कहीं उसके लिए कोई सहानुभूति नहीं है। इसे इस तरह देख सकते हैं: पाकिस्तान पूरी दुनिया में 22 नहीं बल्कि सैकड़ों दूत भेजे और कहे उसे कश्मीर मुद्दे पर भारत से समस्या है। वहीं दूसरी ओर भारत इसके प्रतिरोध में कहे कि पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद से हर किसी को समस्या है। इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि मोदी कश्मीर और पाकिस्तान मुद्दे पर पुरानी परिपाटी क्यों तोड़ चुके हैं। हमें समझना होगा कि एक और बदलाव की आवश्यकता है: मोदी सरकार ने परमाणु मुद्दे पर भी देश का संकोच तोड़ा है। अब वह इसका प्रयोग केवल पाकिस्तान की हरकतों को सीमित रखने के लिए नहीं कर रहा है। जाहिर है इस मुद्दे पर भी कोई बाधा नहीं है।

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