पाकिस्तानी सेना को लेकर आप क्या सोचते हैं? क्या यह एक अच्छी सेना है या बुरी? एक महान सेना या शैतान? यह अपराजेय है या इसे हराया जा सकता है? पाकिस्तानी सेना राष्ट्रवादी है या वर्दी में एक और इस्लामिक लश्कर है जिसके पास परमाणु हथियार हैं? इस प्रश्न का उत्तर इस बात में निहित है कि आप किस ओर हैं। एक भारतीय के रूप में मैं शायद उपरोक्त में से कई सकारात्मक बातों को चुनूं लेकिन शायद उसके बाद मुझे निर्वासन में रहना होगा। या फिर हम अपने प्राइम टाइम योद्घाओं के तर्ज पर यह जोर देते रह सकते हैं कि पाकिस्तानी सेना ठीक वैसी है जैसी बॉलीवुड की युद्घ आधारित फिल्मों में दिखाई जाती है। यानी अनाड़ी और कायर सेना जिसे आसानी से हराया जा सकता है, जिसमें कोई सैन्य भाव ही नहीं। खासतौर पर जो सनी देओल, या सुनील शेट्टी अथवा अक्षय कुमार तक के सामने नहीं टिक पाती।
जो भी लोग इस समय राष्ट्रीय हितों की रक्षा को लेकर चर्चा कर रहे हैं उनके लिए सबसे अहम है पाकिस्तानी सेना, उसके मस्तिष्क, उसकी प्रेरणा, उसके प्रदर्शन और उसकी मौजूदा विचार प्रक्रिया आदि का पेशेवर आकलन करना। पाकिस्तान से निपटने की अनिवार्य जटिलता और चुनौती कई दुविधाओं का हल पेश करती है: क्या पाकिस्तान विचारधारा आधारित राष्ट्र है और उसकी सेना भी ऐसी ही है या कुछ अलग है? क्या हम सेना को परे कर पाकिस्तान सरकार (और जनता) से बात कर सकते हैं? क्या इसका उलट हो सकता है? अगर हमें दोनों से निपटना हो तो पहले कौन? क्या ऐसा करना भी संभव होगा?
मैं अपनी प्रेरणा की बात करूं तो मुझे हर शुक्रवार के अपराह्न में यह स्तंभ लिखना होता है। यह अपने आप में जटिल है। हम पेशेवर लिख्खाड़ हैं और आसानी से शब्दों की जादूगरी करते हुए 1300 ऐसे शब्द लिख सकते हैं जिनसे किसी को कोई समस्या न हो। लेकिन एक जटिलता हमारे दिमाग को चुनौती देती है। यह चुनौती है बहस के लिए खुले सवालों के हल तलाशने की। उदाहरण के लिए मैं ईमानदारी से कहता हूं कि पाकिस्तानी सेना के लिए बुरी, शैतान, पराजय योग्य, इस्लामिक लश्कर जैसे विशेषणों में से प्रत्येक को नकार नहीं सकता। यहां तक कि हमारी सेना के पेशेवर जवान भी चिर शत्रु की सेना के बारे में ऐसे विचार से सहमत नहीं होंगे। यही वजह है कि सन 1947 के बाद से हर बार हमारी सेना भारी पड़ी है।
जब भी संदेह की स्थिति बने तो किसी ख्यात विदेशी की राय उधार ले लेनी चाहिए। मैं यहां प्रोफेसर स्टीफन पी कोहेन को उद्घृत करना चाहूंगा। वह भारत और पाकिस्तान तथा उनकी सेनाओं को लेकर अपने अध्ययन के लिए दुनिया भर में जाने जाते हैं। उन्होंने अपनी किताब ‘द पाकिस्तानी आर्मी’ (1984, हिमालयन बुक) में बताया है कि वह दुनिया की सबसे बेहतरीन सेनाओं में से एक है लेकिन उसने कभी कोई जंग नहीं जीती। जिया उल हक ने इस किताब पर प्रतिबंध लगा दिया लेकिन वह कोहेन को महत्त्व देते और जब भी वह पाकिस्तान में होते तो उन्हें खाने पर बुलाते। उनको किताब पसंद थी लेकिन वह यह कैसे स्वीकार कर लेते कि पाकिस्तानी सेना ने कोई जंग नहीं जीती? आखिर सन 1965 की लड़ाई का क्या? आज तो पाकिस्तान यह भी मान लेगा कि उसने अफगानिस्तान में सोवियत संघ के खिलाफ दूसरी लड़ाई भी जीती थी।
पाकिस्तानी सेना के साथ यह समस्या है। वह भ्रमित है। पाकिस्तानी सेना कठोर, सक्षम और निडर है लेकिन इसका दिमाग सही जगह नहीं है। इसने न केवल सन 1965 की लड़ाई में जीत की बात को सुस्थापित कर दिया है बल्कि अब उसने 6 सितंबर को ‘पाकिस्तान रक्षा दिवस’ के रूप में समारोहपूर्वक मनाना भी शुरू कर दिया है। उस मिथकीय जीत की खुशी में बाकायदा परेड आयोजित की जाती है। पाकिस्तान के साथ दिक्कत यह है कि अधिकांश मौकों पर और कम से कम मौजूदा मौके पर कोई उससे सवाल करने की हिम्मत नहीं करेगा। हमारे यहां अनेक बेहतरीन जवानों ने सन 1965 की जंग का इतिहास दर्ज किया है। उस आधार पर मैं कह सकता हूं कि यह परस्पर अक्षमता का युद्घ था जो तीन सप्ताह में ही गतिरोध की स्थिति में आ गया। लेकिन पाकिस्तान में ऐसा नहीं किया जा सकता।
पाकिस्तानी सेना अब भी दुनिया की इकलौती इस्लामी सेना है जो नई तकनीक को अपनाने में आगे है और पेशेवरों की तरह अपने कमांडरों से आदेश लेती है। इसकी समस्या यह है कि वह अपनी भूमिका को किसी भी अन्य पेशेवर सेना से इतर कहीं अधिक व्यापक, महान, वैचारिक, नैतिक और पवित्र संदर्भ में रखकर देखती है। यहीं से खुद पाकिस्तान और हमारे लिए भी समस्या खड़ी होने लगती है। पाकिस्तान अपने राजनीतिक-सैन्य इतिहास में आजकल एक अभूतपूर्व दौर से गुजर रहा है जिसमें सेना ने भले ही खुलेआम सत्ता पर कब्जा नहीं किया है लेकिन इसका नियंत्रण तो उसके ही हाथ में है। पिछले चुनाव में नवाज शरीफ के बहुमत से सत्ता में आने के बाद सेना ने सरकार की राजनीतिक ही नहीं बल्कि नैतिक सत्ता को भी नष्ट कर दिया है। पाकिस्तान के बुद्धिजीवियों समेत ज्यादातर लोगों का ‘आलसी चोरों वाली’ सरकार के बजाय एक संस्थान के तौर पर सेना के प्रति ज्यादा भरोसा है। सेना प्रमुख राहील शरीफ भी सबसे सम्मानित युद्धनायकों के परिवार से ताल्लुक रखते हैं। अब उनका कद काफी बढ़ गया है और संभवत: अब तक के सर्वाधिक लोकप्रिय सैन्य जनरल बन गए हैं।
क्या पाकिस्तानी सेना इस तरह के सम्मान की हकदार है? क्या इसे पाने के लिए उसने कुछ किया है? अगर वह इसे सही ठहराने के लिए कश्मीर को जीतने की बात करती है तो सच यह है कि 70 साल तक लडऩे के बाद भी वह इसमें नाकाम रही है। आज पाकिस्तान के नियंत्रण में उतना कश्मीर भी नहीं है जितना 1948 के संघर्षविराम के बाद उसके पास था। अगर उसकी मान्यता केवल क्षेत्रीय और वैचारिक सीमाओं की रक्षा करने की ही थी तो बांग्लादेश का वजूद में आना इस पर गहरा आघात करता है। बांग्लादेश के साथ ही एक बड़ा भूभाग और आबादी पाकिस्तान से अलग हो गया था और आज एक स्वतंत्र देश के रूप में उसकी स्थिति बेहतर है। सोवियत सेना को हराने का दंभ भी अफगानिस्तान के कबायली लड़ाकों के साथ जारी उसकी लड़ाई के आगे दम तोड़ देता है।
पाकिस्तान की शेखी बघारने वाली सेना असल में बड़ा इलाका गंवा चुकी है, अपने देश के वैचारिक, आर्थिक और बौद्धिक संसाधनों के अलावा लोकतंत्र जैसे संस्थानों को भी गहरी चोट पहुंचाई है। पाकिस्तान की हैसियत पूरी दुनिया में जिहाद की पाठशाला की बन चुकी है। इसके लिए देश के बजट से ही सारा खर्च आता है। मैं पहले कही गई बात को यहां दोहराना चाहूंगा: जब मैं 1985 में पहली बार पाकिस्तान गया था तो वह मुझे भारत से कहीं अधिक संपन्न और आधुनिक लगा था। उस समय पाकिस्तान की प्रति व्यक्ति आय भारत से 65 फीसदी अधिक थी।
यही वह समय था जब उसने अफगानिस्तान के कहने पर सीमापार आतंकवाद का भारत के खिलाफ इस्तेमाल करना शुरू किया। उसे उम्मीद थी कि भारत कराह उठेगा और पतित होकर नष्ट हो जाएगा लेकिन इसके उलट हुआ। भारत तो लगातार आगे बढ़ा है लेकिन पाकिस्तान गर्त में गिरता चला गया है। आज भारत की प्रति व्यक्ति आय पाकिस्तान से 20 फीसदी अधिक है। दोनों के बीच हर साल 5-6 फीसदी का अंतर बढ़ता जा रहा है। इस तरह पाकिस्तानी सेना अपने बंधक देश के लिए लड़े जा रहे युद्ध को भी हार गई है, भले ही वह जो भी दावे करे। समय-समय पर कुछ भारतीयों की मौत की साजिश रचकर हासिल होने वाली खुशी उसके लिए आत्मघाती है। दुनिया की बेहतरीन सेना में शामिल पाकिस्तानी सेना अपने देश को ही बरबाद करने में लगी हुई है।