एक प्रश्न प्राय: मुझसे पूछा जाता है कि वे कौन सबसे रोचक तीन व्यक्ति हैं, जिनसे मैं पत्रकार के रूप में अपनी जिंदगी में मिला हूं। युवा भी पूछते हैं, ‘हमें उस सबसे रोचक व्यक्ति के बारे में बताइए, जिनसे हो सकता है, हम वाकिफ न हों।’ फिर मैं अपने मन को पीछे भूतकाल में जाने देता हूं। सबसे रोचक व्यक्ति? संत जरनैल सिंह भिंडरावाला क्यों नहीं हो सकते। ‘लेकिन सर, वे कौन थे? क्या बहुत अच्छे व्यक्ति थे?’ कभी-कभार ऐसी जिज्ञासा सामने आती है।
अब मुुझे मालूम है कि यह गूगल आने के बाद की पीढ़ी का युग है। इसे गूगल या इंटरनेट के पहले की किसी घटना की चिंता क्यों करनी चाहिए? सबसे महत्वपूर्ण तो यह है कि बुरे, वास्तव में यह हाल के इतिहास (हां, 32 वर्ष तो हाल का ही कहेंगे) के सबसे बुरे दुस्वप्नों में से एक रही उस घटना को क्यों याद किया जाए? इन प्रतिभाशाली 19 साल के युवाओं को क्यों दोष दें, जब मैं खुद उस व्यक्ति को भूल गया, जिसने पूरे एक साल (1983 की गर्मी से 1984 तक) न सिर्फ मेरे कामकाजी जीवन को परिभाषित किया, मुझे कई सनसनीखेज, बड़ी खबरें, स्टोरी, यादें और पुराने रिपोर्टर के रूप में कहने के लिए कथाएं दीं, बल्कि देश के वर्तमान, भविष्य को इस तरह से लिखा, जैसे आजादी बाद के किसी भारतीय ने नहीं लिखा। जब मुझसे उक्त प्रश्न पूछा जाता है तो मैं क्यों भिंडरावालेे के बारे में सोचने लगता हूं? जून 2014 के चुनाव अभियान के दौरान मैं दो बार स्वर्ण मंदिर गया था और तीन दशकों पुरानी यादें ताज़ा हो गईं। हो सकता है इसका असर हुआ हो।
वहां जाकर एक बात मेरे ध्यान में आई-खेद की बात-कि बचपन के शुरुआती वर्षों के बाद पहली बार मैं विनम्र श्रद्धालु के रूप में शांतिपूर्ण स्वर्ण मंदिर आया हूं और आशीर्वाद स्वरूप अकाल तख्त के स्पर्श से पावन कड़ा मुझे मिला है। अब तक मेरी सारी यादें 1978-79 के दौरान हुई हिंसा की रही है। मैं शुरुआत 1978 से करता हूं, क्योंकि तभी बैसाखी (13 अप्रैल) पर भिंडरावाले के समर्थकों और निरंकारियों के जमावड़े में संघर्ष हुआ था। भिंडरावाले के 13 समर्थक मारे गए और अचानक एक युवा धर्मोपदेशक राष्ट्रीय स्तर पर पहचाना जाने लगा। यह मेरे कॅरिअर की सबसे बड़ी स्टोरी थी। यह इस तथ्य से भी खास बन गई कि जब सेना ने 3 जून को घरेलू व विदेशी प्रेस के सारे लोगों को बस में भरकर सैन्य वाहनों के साये में सीधे दिल्ली भेज दिया, तो मैं उन तीन रिपोर्टरों में शामिल था, जो किसी तरह सारी घटनाएं दर्ज करने और बाद में पूरी कहानी कहने के लिए वहां बने रहने में कामयाब हो गए।
एक थे टाइम्स ऑफ इंडिया के सुभाष किर्पेकर। हमसे बहुत सीनियर। खेद है कि अब वे नहीं रहे। दूसरे थे ब्रह्म चेलानी (हां, वही आपके ख्यात रणनीति विशेषज्ञ, टीवी पर नज़र आने वाली शख्सियत), जो तब एसोसिएटेड प्रेस (ऑफ अमेरिका) के लिए काम करते थे। अब मैं वहां चाहे श्रद्धालु के रूप में, परिक्रमा के दौरान सिर झुकाए घूम रहा था, लेकिन मेरे मन की आंखों के सामने दो रामगढ़िया बंगा (टावर) थे, जिन पर रेत की बोरियों व मशीनगन से लैस आतंकियों के ठिकाने मौजूद थे, सेना की हॉविट्जर (4 जून 1984 को) तोपों ने जब उन्हें निशाना बनाया तो उड़ती हुई बोरियां और शव, स्वर्ण मंदिर के पास की गुरु रामदास सराय की छत, जहां मूलरूप से भिंडरावाले का दरबार लगता था और नियमति रूप से हिटलिस्ट (हिट लिस्ट का मतलब था, जिन लोगों को ‘छांटा’ गया है, उन्हें निशाना बनाना) जारी होती थी, ये सारी छवियां उमड़ रही थीं।
इन छवियों में अकाल तख्त की इमारत थी, सिखों की आध्यात्मिक व सांसारिक शक्ति की सर्वोच्च गद्दी, जिसे समुदाय को हुकूमनामा जारी करने का अधिकार है। अपने धर्म के इस वेटिकन को आखिरकार भिंडरावाले ने नियंत्रण में ले लिया और वहीं 6 जून 1984 को भिंडरावाले का अंत हुआ। पहले हथगोले से निकले शार्पनेल चेहरे पर लगे और फिर एक सैनिक की पूरी कार्बाइन की बौछार हुई, लेकिन इसके पहले करीब 2000 लोग मारे गए, जिनमें 136 सैनिक -यह घरेलू अभियान में चौबीस घंटे के दौरान सेना को पहुंची सबसे बड़ी क्षति है- और 600 से 1000 के बीच निर्दोष तीर्थयात्री शामिल थे। भिंडरावाले के साथ उनके प्रतिबद्ध साथी भी मारे गए मेजर जनरल (रिटायर्ड) शाहबेग सिंह, हैंडसम, बोलने में माहिर, लेकिन आग उगलने वाले भाई अमरिक सिंह, जिनके पिता से भिंडरावाले ने दमदमी टकसाल के प्रमुख का पद हासिल किया था। दमदमी टकसाल गुरदासपुर के समीप चौक मेहता स्थित प्राचीन और परंपरागत धार्मिक शिक्षा केंद्र है।
हताहतों में और भी कई थे। नहीं, संत जरनैल सिंह भिंडरावाला कोई संत नहीं थे, लेकिन वे सबसे दिलचस्प व्यक्ति थे, जिनसे मैं पत्रकार के रूप में मिला और उनसे संबंधित घटनाओं को मैंने कवर किया अौर ईश्वर जानता है कि ऐसे और भी कई लोगों से मैं करीब 40 साल के दौर में मिला हूं। और वे सबसे प्रतिभाशाली, करिश्माई तथा दुस्साहसी थे। जब आप किसी प्राचीन इमारत में आखिरी मोर्चा जमाए बैठे हों और सेना की छह सर्वश्रेष्ठ बटालियनों के हमले हो रहे हों तो आपको ऐसा होना ही पड़ता है। फिर कमांडो थे, विजयंत टैंक अपनी मुख्य तोपों से गोलाबारी कर रहे थे, 3.7 इंच माउंटेन हॉविट्जर व द्वितीय विश्वयुद्ध की 25-पाउंडर तोपें थीं। संघर्ष 36 घंटे चला। एक-एक इंच बढ़त के लिए उन्हें मशीनगनों से ठिकाने लगाना और अकाल तख्त की एक सदी पुरानी संगमरमर की दीवारों में बनाई दरारों से झांकना। अपना अंत जानते हुए भी वहां लड़ने के लिए ऐसा होना जरूरी है।
अथवा आप मुगालते में होना चाहिए। भिंडरावाले में थोड़ा यह भी था, बल्कि कहूंगा कि काफी था। वे अपने बारे में खुद अौर उनके अनुयायियों द्वारा फैलाई कहानियों पर भरोसा करने लगे थे कि वे दिव्य शक्ति के साकार रूप हैं, कि उनकी विजय और नए सिख राज्य का निर्माण पूर्व निर्धारित है, कि हिंदुओं के खिलाफ पवित्र युद्ध में सिखों की जीत होगी। वे आखिरी क्षण तक इस पर भरोसा करते रहे। उनके लिए एक ही अपरिहार्य नतीजा था कि उस खूनी जून के अंत में फतह होगी। शिकस्त तो ‘बीबी’ (जैसा वे इंदिरा गांधी को कहते थे) की सेना की होगी। मैं रिपोर्टरों के उस छोटे से समूह का हिस्सा था, िजनसे उन्होंने जड़ी-बूटी से बने पेय (बानाफ्शा को वे तरजीह देते थे। किसी भी मादक पदार्थ की तरह, चाय-कॉफी प्रतिबंधित थी) के साथ सैन्य हमले के ठीक पहले चर्चा की थी। उस शाम प्रेस- विदेशी और भारतीय भी, अमृतसर से बाहर कर दी गई थी। यह बड़ी गलती थी, जिससे संदेह, अफवाहें, अटकलें और त्रासद ऑपरेशन को लेकर क्रोध हमेशा बना रहने वाला था। जैसा पंजाब में आज बढ़े हुए तनाव से सिद्ध होता है।