इन नाजुक भावनाओं, जो हर बात पर आहत हो जाती हैं, का क्या करें?
OpinionThePrint Hindi

इन नाजुक भावनाओं, जो हर बात पर आहत हो जाती हैं, का क्या करें?

हम भावनाएं आहत होनेवाली ऐसी पीढ़ी के साथ जी रहे हैं जिनको सवाल पूछना नहीं सिखाया गया है. एचओएच यानी ह्युमन्स ऑफ हिंदुत्व उनका ताज़ातरीन शिकार है.

Latest news on cow vigilantism | ThePrint.in

Representational image | |Getty Images

हम भावनाएं आहत होनेवाली ऐसी पीढ़ी के साथ जी रहे हैं जिनको सवाल पूछना नहीं सिखाया गया है. एचओएच यानी ह्युमन्स ऑफ हिंदुत्व उनका ताज़ातरीन शिकार है.

एक अतिशय लोकप्रिय फेसबुक पेज, ‘ह्युमन्स ऑफ हिंदुत्व’ का बंद होना हमारे प्यारे देश के ताज में लगा ताजतरीन हीरा है. यह वह देश है, जिसके बारे में हिंदी फिल्म अभिनेता मनोज (भारत) कुमार ने 1970 में गाया थाः है प्रीत जहां की रीत सदा….

उस समय से यह गाना अब बदल गया है. हमारी रीत अब प्रीत की नहीं, भावनाएं आहत होने (ऑफेंस) की है.

हास्य और व्यंग्य किसी भी विकसित समाज के दो स्तंभ हैं. हालांकि, तब आप क्या कहेंगे जब देश में किसी हास्य-कलाकार (कॉमेडियन) का काम सबसे कठिन हो गया है.

यह सचमुच हमारी उपलब्धि है. कुछ साल और बीतने के बाद आश्चर्यचकित न हों अगर अपराध के आंकड़ों में एक कॉलम हास्य-व्यंग्यकारों के लिए हो. आंकड़े आपको बताएंगे कि किसी बस से कुचले जाने की संभावना की तुलना में हास्य या व्यंग्य में शामिल होने पर आपकी बर्बादी के अधिक चांस हैं.

पैरोडी पेज एचओएच के निर्माता इसके ताजातरीन शिकार हैं. उन्होंने खुद को और परिवार को मौत की धमकी मिलने के बाद उस पेज को हटा दिया है. आम तौर पर हास्य-व्यंग्य करने वाले तो विद्रोह की कतार में सबसे अंतिम कड़ी होते हैं, जिसकी शुरूआत तार्किकों, कार्यकर्ताओं और पत्रकारों से होती है. क्या यह कहना ठीक रहेगा कि हास्य-व्यंग्यकार बस कतार में थोड़ा आगे बढ़े हैं. शायद अभी नहीं, लेकिन जल्द ही वे वहीं होंगे.

हास्य/व्यंग्य के बारे में ऐसा क्या है, जिससे भावनाएं आहत करनेवाले अंधे समर्थक इतने असहज हो जाते हैं? चाहे वह युवा मिमिक्री आर्टिस्ट श्याम रंगीला हो, जिसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नकल की, या फिर वह एफएम रेडियो क कार्यक्रम ‘मित्रों’ हो, ये सभी प्रति-उत्पादक (काउंटर प्रोडक्टिव) रहे. हालांकि, उसकी लोकप्रियता और बढ़ गयी। यह मेरे लिए मज़ेदार है.

मैं इन भावनाएं आहत होनेवाली ब्रिगेड के कारनामों पर तिरछी मुस्कान दे सकता हूं, बस। यह तो जाहिर है कि वे अपने नेता, आराध्य या नायक की गलतियां नहीं देखना चाहते. व्यंग्य बस यही तो करता है, बताता है कि राजा नंगा है.

हालांकि, व्यंग्य पर हमला नया नहीं है. सरकारें कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी जैसों पर टूटी है, यहां तक कि देशद्रोह का भी आरोप लगाया गया. यहां तक कि एफआइआर भी कलाकारों के लिए नया नहीं है, जिन्होंने व्यंग्य के जरिए सत्ता पर प्रहार किया.

हालांकि, हालिया वर्षों में कुछ बदल गया है. भीड़ का उदय हो चुका है और वह एक वैध राजनीतिक सत्ता और तंत्र में बदल चुकी है. इसे एफआइआर, कोर्ट या आधिकारिक बंदी की जरूरत नहीं होती और ना ही किसी भी वैधानिक औजार की. अगर लोग आप पर झुंड में हमला करें- ऑफलाइन या ऑनलाइन- तो फिर प्रतिरोध या व्यंग्य-हास्य की जगह ही नहीं बचती. यह आज़ादी नहीं है. यह उसके उलट है. हत्या, सिर काटने की धमकी, नाक काटने का फतवा, कोई फेसबुक पेज चलानेवाले के परिवार को नुकसान की धमकी, इत्यादि अगर किसी आज़ाद देश की निशानियां हैं, तो धार्मिक अतिवादी और आतंकवादी शायद पूर्ण स्वतंत्रता के ध्वजवाहक ही होंगे.

बढ़िया हास्य हमेशा ही किसी तरह के प्रतिरोध का रूप होता है. हालांकि हमारी भारतीय परंपरा में प्रतिरोध को बहुत जल्दी ही कुचल दिया जाता है. यह परिवार से शुरू होता है और स्कूल-महाविद्यालय, यूनिवर्सिटी तक चलता है. प्रतिरोध करनेवाले लड़कों को झगड़ालू (और आखिरकार, देशद्रोही) ठहरा दिया जाता है और हरेक संभव प्रयास किया जाता है कि वे विद्रोह छोड़कर लकीर के फकीर बन जाएं.

हम भावनाएं आहत होनेवाली ऐसी पीढ़ी के साथ जी रहे हैं, जिनको सवाल पूछना नहीं सिखाया गया है, जो बेदिमाग बस आज्ञा पालन करते हैं. एक ऐसी पीढ़ी जो विद्रोह का मूल्य समझे बिना बड़ी हुई है, विरले ही व्यंग्य/हास्य की बड़ाई करेगी, या उसे समझेगी भी.

सचमुच उन दिनों की कल्पना भयावह है, जब कोई किसी चुटकुले से आहत हो जाए. हालांकि, हास्य अपना रास्ता खोज ही लेता है. प्रतिरोध का हास्य होलकॉस्ट के समय भी फला-फूला था. हालांकि आखिर में कौन मुस्कुराएगा ?

संजय राजौरा राजनीतिक व्यंग्यकार हैं और स्टैंड-अप कॉमेडियन भी.