कैसे तीन प्रतिद्वंद्वी पार्टियों के चार महान नेताओं ने सुखोई-30 सौदा बचाया
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कैसे तीन प्रतिद्वंद्वी पार्टियों के चार महान नेताओं ने सुखोई-30 सौदा बचाया

यह कहानी है कि कैसे नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी, जसवंत सिंह और अविश्वसनीय रूप से मुलायम सिंह की बुद्धिमत्ता के बिना भारतीय वायु सेना का सुखोई-30 हासिल करने का सपना उड़ान भरने से पहले ही ध्वस्त हो गया होता।

A Sukhoi Su-30MKI makes touchdown on the Lucknow-Agra Expressway

A Sukhoi Su-30MKI | Subhankar Chakraborty/Hindustan Times via Getty Images

सुखोई-30 विमान ने ब्रम्होस मिसाइल दागी। रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन ने वर्ल्ड रिकॉर्ड बताते हुए इसकी तारीफ की। यह कहानी है कि कैसे नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी, जसवंत सिंह और मुलायम सिंह की बुद्धिमत्ता के बिना भारतीय वायु सेना का सुखोई-30 हासिल करने का सपना उड़ान भरने से पहले ही ध्वस्त हो गया होता।

यह 1996 की गर्मियों की बात है। आप में से कुछ को याद होगा (अन्य गूगल कर सकते हैं) कि कैसे नरसिंह राव की सरकार के अंतिम दिनों में एक छोटा विवाद पनपने लगा था। उस समय चुनाव प्रचार अभियान चरम पर था। सरकार ने रूस के साथ सुखोई विमान के समझौते पर हस्ताक्षर किए थे और द इंडियन एक्सप्रेस ने खबर ब्रेक की थी। इसके तुरंत बाद भाजपा ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया था। आखिरकार राव सरकार के मुखिया थे और आचार संहिता लागू थी।

जैसा कि सभी हथियार समझौतों के साथ होता है, गंभीर आरोप लगाए जा रहे थे : क्या राव अपने चुनावी अभियान के लिए करोड़ों रुपए इकट्‌ठे करने की जल्दी में हैं? तब आश्चर्यजनक रूप से भाजपा विरोध से पीछे हट गई। क्योंकि तथ्य बिल्कुल विपरीत थे। कोई तो सुखोई डील से चुनाव के लिये पैसा चाहता था, लेकिन वे राव नहीं थे।

1996 चुनाव के पहले चरण के करीब दो सप्ताह पहले एक सुबह मुझे जसवंत सिंह का फोन आया। वे सुखोई की खबर के बारे में बात करना चाहते थे।

उन्होंने पूछा कि मैं इस सौदे के बारे में क्या सोचता हूं। क्या मुझे बोफोर्स की तरह इसमें भी किसी घोटाले का संदेह है? मैंने उनसे कहा कि मुझे ऐसा कुछ भी सुनने को नहीं मिला है और वायु सेना में मेरे एक दोस्त को लगता है कि यह अच्छा विमान है। इसके बाद उन्होंने पूछा कि क्या मैं इस मुद्‌दे पर और चर्चा के लिए वाजपेयीजी (तब विपक्ष के नेता थे) से मिल सकता हूँ।

उसी दिन दोपहर में मुझे वाजपेयीजी के घर से फोन आया। वे अगली सुबह नाश्ते पर मिलना चाहते थे। वाजपेयी बड़े प्यार से कुरकुरे टोस्ट पर मक्खन लगा रहे थे और छोटे-छोटे टुकड़ों मे अपने प्यारे पामेरियन को खिलाते हुए चुनाव अभियान के समय घोटाले के रूप में मिले अनपेक्षित लाभ की संभावनाओं पर विचार कर रहे थे।

उनके प्रश्न संक्षिप्त में इस प्रकार थे। कांग्रेस सरकार ने अपने अंतिम दिनों में जल्दबाजी में डील फाइनल की है। उनकी जानकारी में यह बात भी थी कि इसके लिए सरकार ने कोई अंतिम कीमत तय किए बिना एडवांस के रूप में 35 करोड़ डॉलर की राशि का भुगतान किया है। ऐसी हड़बड़ाहट क्यों? क्या कांग्रेस अंत में पैसे लेकर अपनी सरकार बनाए रखना चाहती है?

उन्होंने कहा कि उनके सुनने में आया है कि एक्सप्रेस इसके बारे में और भी जानता है और यदि नहीं भी तो क्या मैं इसे और करीब से देखूंगा? उन्होंने कहा कि उन्हें सिर्फ इस बात भय है कि “यदि यह अच्छा एयरक्राफ्ट है तो घोटाले की अप्रमाणित बातों से यह डील खराब नहीं होनी चाहिए।’

हमने अपने सूत्रों से पता किया और ऐसा नहीं लग रहा था कि इस फैसले में कोई गड़बड़ी थी। भाजपा ने मामले पर चुप्पी साध ली। वैसे भी कांग्रेस चुनाव हार गई और वाजपेयी की गठबंधन वाली सरकार ने शपथ ली। हालांकि पहली बार यह सिर्फ 13 दिन ही चल पाई।

यह सरकार के अंतिम दिनों की बात है जब जसवंत सिंह ने मुझे एक सार्वजनिक समारोह के दौरान बातचीत के लिए बुलाया। उन्होंने कहा कि वह सुखोई वाली बात वास्तव में कुछ भी नहीं थी। सरकार में रहने के दौरान उन्होंने इससे संबंधित दस्तावेज देखे थे और कोई गड़बड़ी नहीं थी, यदि कोई जल्दबाजी थी तो यह बड़े राष्ट्रीय हित को ध्यान में रखकर की गई थी, इसलिए बेहतर होगा कि हम इसे भुला दें। उन्होंने मुझे यह नहीं बताया कि वह बड़ा राष्ट्रीय हित क्या था।

अब दृश्य दिल्ली के जाकिर हुसैन मार्ग पर स्थित भारतीय वायु सेना के मेस की ओर मुड़ता है और कुछ महीने बाद हम फिर सुखोई की कहानी उठाते हैं। अब एचडी देवगौड़ा की गठबंधन सरकार सत्ता में थी और मुलायम सिंह रक्षा मंत्री थे। मंत्रालय ने उनके लिए वरिष्ठ संपादकों से मिलने हेतु भारतीय वायु सेना के मेस में एक डिनर पार्टी आयोजित की थी। रक्षा मंत्री मुलायम ने अभी-अभी पूरी सुखोई डील को अंतिम रूप दिया था। मैंने एक पल चुराते हुए पूछा कि क्या उन्होंने सुखोई डील को करीब से देखा है, क्योंकि राव सरकार द्वारा यह जल्दबाजी में तय की गई थी, इसमें बड़ी रकम लगी हुई है और एक समय भाजपा के कई बड़े नेता इसे संदेह की नजरों से देख रहे थे।

उन्होंने कहा “पता है, पता है, जसवंत जी और अटल जी इसके लिए मेरे पास आए थे।’ फिर वे विस्तार से समझाने लगे कि कैसे अंतिम समझौता तय करने से पहले उन्होंने वाजपेयी जी और जसवंत जी को साउथ ब्लॉक आमंत्रित किया था और इसके बारे में पूरी जानकारी दी थी। उन्होंने समझौते के दस्तावेजों में कुछ बदलाव सुझाए थे जैसे रूसी सरकार द्वारा स्वायत्त गारंटी का प्रावधान कि इसके लिए किसी भी प्रकार की रिश्वत नहीं दी गई है और यदि ऐसा कुछ भविष्य में सामने आता है तो वे भारत सरकार को इसकी भरपाई करेंगे।

मुलायम ने अत्यधिक खुश होते हुए कहा “वे मेरे आफिस आए, हमने सब कुछ तय किया, लेकिन आप लोेग कुछ पता नहीं लगा पाए।’

मुलायम विजयी भाव से बार-बार यह कहते रहे “देखा, मीडिया फेल हो गया’ यह मुलाकात यहीं खत्म हो गई।

ठीक है, हम एक बहुत ही गजब की स्टोरी ब्रेक करने में नाकाम हो गए कि कैसे कट्‌टर प्रतिद्वंदी मुलायम और भाजपा ने बंद दरवाजों के पीछे एक बहुत की संवेदनशील मुद्दे के दस्तावेज साझा किए। मैंने सोचा, हालांकि देर से ही सही लेकिन यह लाजवाब खबर थी और एक्सप्रेस इनवेस्टिगेटिव ब्यूरो की हेड रितु सरीन को इस बारे में पता करने को कहा।

निश्चित रूप से वे पता करने के लिए जसवंत सिंह के ऑफिस गईं। इसी दौरान मुझे एक बार फिर वाजपेयी जी के घर से निमंत्रण मिला। इस बार बात सीधी और सरल थी। क्या एक्सप्रेस इस खबर को टाल सकता है? क्योंकि अगर यह छप गई तो “संवेदनशील मुद्दों और राष्ट्रीय हितों पर अन्य पार्टियों से बात करने के हमारी काबिलियत को धक्का पहुंच सकता है।’ उन्होंने कहा कि ये कड़वी सैद्धांतिक राजनीति के दिन हैं, लेकिन सरकार चलाना एक गंभीर मसला है।

अब रहस्य यह था कि ऐसे कौन से बड़े राष्ट्रीय हित थे, जिसकी वजह से इतनी जल्दबाजी की गई और राव सरकार को इतना बड़ा एडवांस पेमेंट करना पड़ा। एेसा लगता है कि बोरिस येल्तसिन ने राव को बताया था कि वे भी चुनाव के करीब हैं और सुखोई फैक्टरी उनके चुनाव क्षेत्र में आती है। लेकिन इसकी हालत इतनी खराब है कि स्टाफ को वेतन भी नहीं दिया जा रहा है। ऐसे में यदि भारत एडवांस पेमेंट करता है तो वेतन दिया जा सकेगा। यह बात चुनाव में जादू की तरह काम करेगी।

वह एडवांस पेमेंट बड़े लोगों के बीच किया गया सिर्फ एक राजनीतिक सौदा था, जिसे अंतिम कीमत तय करते समय समायोजित किया जाना था। काफी सूझ-बूझ से भरा और कूटनीतिक निर्णय था, जिसे राव ने मंजूरी दी थी तथा किसी और ने नहीं बल्कि तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह से इसे अमल में लाया था।
राव ने अत्यंत साहसी फैसला लिया (बोफोर्स की पृष्ठभूमि के बावजूद), जिस पर उनसे कटु चुनाव संघर्ष में उलझी भाजपा को संदेह था लेकिन, राष्ट्रहित में उसने इसे मुद्‌दा नहीं बनाया।

जब भाजपा को इसके असल कारण (येल्ससिन के अनुरोध) के बारे में पता चला तो वह चुप रही, यहां तक कि उसके नेताओं ने यह भी कहा कि राव सरकार ने इसे बड़ी कुशलता से संभाला है। फिर मुलायम सिंह ने अपनी पूरी राजनीति भाजपा विरोधी होने के बावजूद बड़ा दिल दिखाते हुए राष्ट्रीय हितों के लिए भाजपा नेताओं के सामने दस्तावेज रखे और सुझाव मांगे।

इस एक कहानी में तीन बड़ी पार्टियों के शीर्ष नेता, एक-दूसरे के कट्‌टर शत्रु, शामिल हैं। इसके बावजूद उन्होंने बातें कीं, गोपनीय चीजें साझा कीं और देश के हित में सही निर्णय लिया। अब इसकी तुलना पिछले एक माह की राजनीति में संवाद, यहां तक कि सामाजिक गरिमा का अभाव, मनमुटाव से कीजिए और आप जान जाएंगे कि क्यों सुखोई की कहानी और भी प्रासंगिक और फिर याद करने लायक है।