scorecardresearch
Monday, November 4, 2024
Support Our Journalism
HomeOpinionकहानी एक शेरदिल आईपीएस अधिकारी की: के.पी.एस. गिल को याद करते हुए

कहानी एक शेरदिल आईपीएस अधिकारी की: के.पी.एस. गिल को याद करते हुए

Follow Us :
Text Size:

उन्हें कभी अपनी छड़ी के सिवा किसी और चीज के साथ नहीं देखा गया. उनके मुताबिक बंदूक-पिस्तौल रखना पुलिस अधिकारी की कमजोरी की निशानी थी. फिर भी वे जीतते रहे.

अपने जीवन ही नहीं, अपनी मौत से भी कंवर पाल सिह गिल आपकी समझ और आपकी स्थापित मान्यताओं को चुनौती दे रहे हैं. मसलन, पत्रकारिता में यही सिखाया जाता है कि किसी के निधन पर उसे श्रद्धांजलि देने का पहला नियम यह है कि कभी उसका तारीखवार ब्यौरा मत दो. मैं नहीं जानता कि श्री गिल या गिल साहब (जैसा कि हम उन्हें पुकारते थे) को श्रद्धांजलि लिखते वक्त इस नियम का क्या करूं.

उनसे पहली मुलाकात मेरी यादों में सदा के लिए बस गई है. यह 1981 के शुरू के दिनों की बात है. मैं देश के उत्तर-पूर्वी हिस्से की, जिसे उन दिनों ‘‘जलता हुआ’’ बताया जाता था, खबरें देने के लिए वहां गया था. तब गिल साहब असम पुलिस के डीजी नहीं बने थे, वहां के कई आइजी में से एक थे और कानून-व्यवस्था के प्रभारी थे. वह ब्रह्मपुत्र के किनारे उनका असमिया टाइप बंगला था, जहां मैं उनसे मिलने गया था.

“तो आप ही हैं शेखर गुप्ता?” अपनी मेज के पीछे वर्दी में सजे गिल साहब ने मेरा जायजा लेते हुए ऐसी नजर से देखा था जिसे मैं आज तक नहीं समझ पाया कि उसमें उत्सुकता थी या मखौल उड़ाने का अंदाज. उन्होंने कहा, “बैठिए आप. सुना है बहुत घूमते हैं आप अपनी एनफील्ड बाइक पर.”

मैं संभल पाता इससे पहले ही उन्होंने ऐसी नजर से घूरते हुए सवाल दाग दिया, जिस नजर का मैं अगले 36 साल तक आदी हो गया था. उनका सवाल था- “लाइसेंस है?”

एक पल के लिए तो मैं सकपका गया, और उधर वे इस अंदाज में ठठाकर हंस पड़े मानो कह रहे हों ‘पकड़ लिया न?’ इस तरह हमारा पेशेगत रिश्ता शुरू हुआ, जो असम और पंजाब के संकट के समानांतर बढ़ता गया. इससे फर्क नहीं पड़ा कि 1957 में जब मैं पैदा हुआ था, तब वे आइपीएस की परीक्षा पास करके असम काडर में शामिल हो गए थे. हम सबके बीच वे हमेशा ‘सबसे युवा’ रहे. और भगवान जाने मैंने तो ऐसा कोई शख्स नहीं देखा, जो शराब को उनकी तरह पचा लेता हो.

1995 में जब वे रिटायर हो गए, तब यह रिश्ता निजी दोस्ती में बदल गया. हम एक-दूसरे को प्रायः अच्छी-अच्छी बातें कहते. भारतीय हॉकी संघ के उनके नेतृत्व (जो मेरी नजर में हाइजैक था) को लेकर मैं उनसे लड़ता था क्योंकि मेरे विचार से उनके तौरतरीके के कारण खेल को नुकसान पहुंच रहा था. उनका नियंत्रण हटने के बाद हॉकी में सुधार आया. लेकिन 26 मई 2017 को उनके निधन से दो हफ्ते पहले जब मैं उनसे ‘वाक द टॉक’ कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग के लिए उनसे मिला था, तब भी उन्होंने मेरी खिंचाई की थी कि मैं हॉकी में आई नई जान के बारे में लिख रहा हूं. हम दोनो के ये दोस्ताना झगड़े, खेल चलते रहते थे.

असम में उनके बारे में कुछ अच्छी, कई बुरी दंतकथाएं चलती रहती थीं. उन पर असम के एक आंदोलनकर्ता खड़गेश्वर तालुकदार को जानलेवा चोट पहुंचाने के आरोप लगाए गए. दिल्ली हाइकोर्ट ने बाद में उन्हें इस मामले में बरी कर दिया क्योंकि असम के उस बेहद तनावग्रस्त माहौल के कारण मामले को दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया था और कोई वकील या गवाह सामने आने को तैयार नहीं था. कई वरिष्ठ वकील भी उनके बचाव के लिए वहां जाने को तैयार न थे इसलिए वे के.टी.एस. तुलसी (अब राज्यसभा सदस्य तथा टीवी के परिचित चेहरे) को चंडीगढ़ से ले आए.

वैसे, कुछ वर्षों में मैंने केपीएस आख्यान के एक अहम पहलू को ढूंढ़ निकाला. उन्होंने कभी किसी के खिलाफ व्यक्तिगत हिंसा नहीं की, न कोई पिस्तौल-बंदूक साथ रखी, सिवा एक छड़ी के. अपनी शांत निर्भयता या संकट प्रबंधन के अपने कौशल के क्षणों में वे बस इसी छड़ी से लैस नजर आए. फरवरी 1983 कें असम चुनाव के दौरान गुवाहाटी से मात्र 70 किमी दूर ब्रह्मपुत्र के उस पार मंगलदाई में जातीय हिंसा की पहली वारदात की खबर आई थी. वे सेना के जीअोसी (एक मेजर जनरल) के साथ हालात का जायजा ले रहे थे, और मैं एनफील्ड पर अपनी सहयोगी रिपोर्टर सीमा गुहा के साथ हाइवे पर निषेधाज्ञा का उल्लंघन करते हुए वहां पहुंच गया.

असम में सूरज जल्दी ढल जाता है. जब तक बैठक खत्म हुई, शाम ढल चुकी थी. जीअोसी और गिल अपने सुरक्षा गार्डों के साथ गुवाहाटी के लिए रवाना ह गए थे. हमने उनका पीछा किया. हम एक नदी के पास आकर रुक गए क्योंकि उस पर बने लकड़ी के पुल को आंदोलनकारियों ने जला दिया था. नदी पार शोर मचाती भीड़ खड़ी थी, उनके भाले और तलवारें ढलते सूरज की रोशनी में चमक रही थीं. जनरल खफा थे कि उन्हें काफी कम सुरक्षा गार्ड दिए गए थे. गिल शांत थे और अपने तथा जनरल के जवानों को रक्षात्मक होने और एकमात्र मशीनगन को भी लगाने के निर्देश दे रहे थे. उस समय उनके हाथ में बस वही एक छड़ी थी.

चिंतित होकर मैंने पूछा था कि क्या समस्या आ गई है. वे मुस्कराए थे, और मैं फिर यह नहीं बता सकता कि यह मुस्कराहट यों ही थी या हमारा मखौल उड़ाने के लिए थी, उन्हंने कहा था, ‘‘समस्या यह है कि तुम दोनों यहां हो.’’ उन्होंने इससे ज्यादा कुछ कहने से मना कर दिया.

उस रोमांचक घटना का अंत बेहद नाटकीय हुआ. गिल ने धुआंते पुल का गहरा मुआयना किया, अपनी जीप पर सवार हुए और ड्राइवर को पुल पार करने का इशारा कर दिया. वे सुरक्षित पार पहुंच गए तो बाकी लोग भी एक के बाद एक पार कर गए, जनरल ने पहले पार किया और हम सबसे अंत में गए. बाद में हमने गिल के बंगले में उनकी पसंदीदा अोल्ड मोंक रम के साथ उस घटना की पूरी जानकारी ली लेकिन उन्होंने फिर भी यह नहीं बताया कि हमारी मौजूदगी समस्या क्यों थी.

इसका खुलासा उन्होंने बहुत बाद में किया जब वे पंजाब में सीआरपीएफ के आइजी पद पर तैनात थे और हमारी मुलाकात अमृतसर के सर्किट हाउस में हुई थी. उन्होंने कहा, “हथियारबंद हजारे लोगों की भीड़ हम पर हमला करने को थी. हमारे पास केवल सात राइफले और एक एलएमजी थी. अगर हमें गोलियां चलानी पड़तीं और कई लोग मारे जाते तो ऐसे में क्या आपको लगता है कि मैं यह चाहता कि दो रिपोर्टर इसके चश्मदीद बनें?”

अभी कुछ दिनों पहले जब हम ‘वाक द टॉक’ के लिए मिले थे, वे कश्मीर में पत्थर फेंकने वालों से निबटने के सीआरपी के तरीके से नाराज थे, “आप पत्थर फेंक रही भीड़ पर गोली नहीं चला सकते.” उनका कहना था कि कभी-कभी आपको नया कुछ सोचना पड़ता है, रक्षात्मक भी होना पड़ता है. आप गिल से सहमत हों या नहीं, लेकिन पारंपरिक तौरतरीके उनके लिए नहीं बने थे.

उनके आलोचक उन पर सिखों की मनमानी हत्या का आरोप लगाते हैं. यह गिल की शैली नहीं थी. वास्तव में, 1991-94 के बीच लड़ी गई उस निर्णायक लड़ाई में वे इसलिए सफल हुए क्योंकि दुश्मन के पैदल सैनिकों को उन्होंने नहीं छुआ और उनका इस्तेमाल किया. उन्हें नई पहचान अपनाने और प्रायः दूर के राज्यों में ट्रक डाइवर आदि बनकर बसने में मदद की, लेकिन तभी तक जब तक वे उनके कमांडरों को पकड़वाने में पुलिस की मदद करते रहे. उनकी पुलिस आतंकवादियों को ए से डी तक अलग-अलग वर्गों में सूचीबद्ध करती थी. उस समय उन्होंने मुझे बताया था (जो कि इंडिया टुडे में प्रकाशित हो चुका है) कि एक बार आतंकवादियों को यकीन हो जाए कि हमारी ए सूची में दर्ज होने के बाद उसका छह महीने से ज्यादा बचे रहना मुश्किल है, तब आतंकवाद खत्म हो जाएगा. ऐसा हुआ भी.

उस समय की एक दूसरी कहानी यह है कि 1984 से 1995 के बीच गिल चार बार पंजाब में तैनात किए गए और हर बार उन्हें तब हटाया गया जब नेताओं को, जो तब तक आतंकवादियों से गहरी साठगांठ कर चुके थे- वे असुविधाजनक लगने लगे. 1988 में उनके नेतृत्व में ऑपरेशन ब्लैक थंडर (जिसमें एनएसजी के ब्लैककैट कमांडोज पहली बार सामने आए थे) जबरदस्त कामयाब हुआ. इससे पहले हुए ऑपरेशन ब्लूस्टार से अलग इसकी एक विशेष बात यह थी कि मीडिया को अलग रखने की बजाय उन्होंने हमलोगों को, एक समय तो करीब 100 पत्रकारों को पूरी कार्रवाई देखने की छूट दी. आप एनएसजी के निशानेबाजों के साथ घंटों, तीन दिन तक भी बैठे रहकर देख सकते थे कि वे किस तरह आतंकवादियों को निशाना बनाते हैं. इसे भारी सफलता मिली और ऑपरेशन ब्लूस्टार के विपरीत इसको लेकर कोई मनमानी या बुरी अफवाह नहीं फैली.

जैसे ही केंद्र में राजीव गांधी की जगह वी.पी. सिंह की गठबंधन सरकार सत्ता में आई, गिल को हटा दिया गया. पी,वी. नरसिंहराव उन्हें 1992 में तभी वापस लाए जब आतंकवाद अपने सबसे चरम रूप में वापस लौटा. पंजाब पर खालिस्तानियों का राज हो गया था. यहां तक कि पत्रकारों को भी रातों में सीमावर्ती जिलों के ‘चेक नाकों’ पर हथियारबंद आतंकवादियों के हाथों अपमान झेलना पड़ता था.

1992 तक वह लड़ाई एकतरफा (आतंकवादियों के पक्ष में) हो गई थी और उस साल मारे जाने वालों की संख्या 5000 तक पहुंच गई थी, जिनमें 1000 से ज्यादा तो पुलिसवाले ही थे. इससे दो साल पहले जिस तरह कश्मीर से पंडितों ने पलायन किया था, उसी तरह पंजाब से लाखों हिंदू परिवार समेत अमीर सिख भी पलायन करने लगे थे. लेकिन 1993 तक यह स्थिति नाटकीय रूप से उलट गई थी.

गिल की असम में तैनाती के विपरीत पंजाब में तैनाती का ब्यौरा बेहतर तरीके से रखा गया है. उनका मूल सिद्धांत यह था कि केवल स्थानीय पुलिस ही आतंकवाद से लड़ सकती है. सेना, या केंद्रीय बल इसमें मदद कर सकते हैं लेकिन पंजाब में “आप तब तक नहीं जीत सकते जब तक अच्छे जाट बुरे जाटों से मुकाबला नहीं करते, और मेरी पुलिस में जाट भरे हैं.” उन्होंने पुलिस में जोश भरा; राव की सरकार ने राजेश पाइलट (तत्कालीन आंतरिक सुरक्षा राज्यमंत्री) के जरिए संसाधन उपलब्ध कराए. गिल ने सैकड़ों “सूत्रों और संपत्तियो” का पुनर्वास कराया और अपने प्रमुख अफसरो के कानूनी बचाव के लिए पैसे भी बचाए, क्योंकि उन्हें मालूम था कि आगे उन्हें मानवाधिकार के मामलों का सामना करना पड़ेगा.

उन्होंने हमें “कंडोम” थ्योरी सिखाई. वे कहते, “देखो भाई, सरकार के लिए हम उतने ही काम के हैं जितना कंडोम होता है. काम खत्म होते ही उसे फेंक दिया जाता है.” उन्हें निजी तौर पर गंभीर संकट का भी सामना करना पड़ा, जब उन्हें एक शराब पार्टी में एक महिला आइएएस अधिकारी के साथ अभद्र व्यवहार के लिए आइपीसी की धारा 354 के अंतर्गत आरोप लगाया गया और दोषी करार दिया गया.

अंततः, सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें क्षमा करते हुए उनकी सजा घटाकर जुर्माना, प्रोबेशन और पार्टियों में शराब न पीने की शपथ कर दी. क्या उन्होंने शपथ का पालन किया? मैं यही कहूंगा कि अगर मुझसे इस सवाल का जवाब अदालत में शपथ खाकर देने को कहा जाता तो मैं दुविधा में पड़ जाता. लेकिन यहां मैं गिल साहब की वह बात जरूर याद करूंगा, जो उन्होंने शराब पीने के बारे में मुझे पहली बार कहा था कि ‘‘तुम्हारे सारे शक, डर, सारी उलझने तब खत्म हो जाएंगी जब तुम भगवान का नाम लेकर ओल्ड मोंक की एक चुस्की लगा लोगे.’’ आप समझ गए होंगे कि वे अोल्ड मोंक रम की महिमा बता रहे थे.

यह लेख अंग्रेजी में 26 मई 2017 को गिल के निधन पर प्रकाशित किया गया था.

शेखर गुप्ता दिप्रिंट के एडिटर इन चीफ हैं.

Subscribe to our channels on YouTube, Telegram & WhatsApp

Support Our Journalism

India needs fair, non-hyphenated and questioning journalism, packed with on-ground reporting. ThePrint – with exceptional reporters, columnists and editors – is doing just that.

Sustaining this needs support from wonderful readers like you.

Whether you live in India or overseas, you can take a paid subscription by clicking here.

Support Our Journalism

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular