तकरीबन छह वर्ष पहले अन्ना आंदोलन की शुरुआत राजनेताओं के विरोध से हुई थी। भारतीय समाज, राजनीति और व्यवस्था की हर खामी के लिए राजनीति और नेताओं को दोषी ठहराया जा रहा था। नेता शब्द ही अपमान का पर्याय बन गया था। शायद अब वह यह सब याद करना नहीं चाहें लेकिन चेतन भगत ने इस आंदोलन से एक जुमला उछाला: मेरा नेता चोर है। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन बहुत जल्दी ही जोर पकड़ गया शहरी क्षेत्र के पेशेवरों ने सड़ चुके राजनीतिक वर्ग और व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन कर दिया।
इसने तमाम विचारधाराओं में अपनी जगह बनाई और हमने आरएसएस के लोगों और उनके प्रति सहानुभूति रखने वालों से लेकर वाम और उदार विचार वालों तक को इसका समर्थन करते देखा। इसमें बाबा रामदेव, जनरल वीके सिंह, किरण बेदी, प्रशांत भूषण, शबाना आजमी, ओम पुरी और आमिर खान तक सब शामिल थे। अन्ना हजारे और उनके साथी अरविंद केजरीवाल ने भी इस गुस्से का पूरा लाभ उठाया। वे कहते कि राजनीति भ्रष्टों के लिए है, लोग 500 रुपये या एक बोतल शराब के बदले वोट देते हैं, संसद बलात्कारियों और चोरों से भर गई है। ऐसा लगने लगा कि अब बस क्रांति होनी बाकी है।
अन्ना गांधी बनने का दिखावा करते रहे। कार्यकर्ताओं, टीवी प्रस्तोताओं और समाजवादियों ने भी उन्हें इसी रूप में पेश किया। उन्होंने अनशन का गांधी का हथियार भी उधार ले लिया। लेकिन वह गांधीवादी नहीं थे। वह भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस और महाराणा प्रताप तक जाते। रामलीला मैदान में वह दिलीप कुमार की फिल्म कर्मा का गीत गुनगुनाते नजर आये: दिल दिया है जान भी देंगे, ए वतन तेरे लिए। या फिर किरण बेदी को जब पुलिस की बस में गिरफ्तार कर ले जाया जा रहा था तो वह टीवी कैमरों को देखकर चिल्लाईं: अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो। संदेश साफ था, व्यवस्था को बदलने के लिए क्रांति की शुरुआत हो चुकी थी और इसका राजनीतिक सत्ता से कोई लेनादेना नहीं था।
अब अन्ना वहां वापस जा चुके हैं जहां से आए थे। रालेगण सिद्घी के अपने एकांत में वह काल्पनिक शत्रुओं से लड़ रहे हैं और वह बाज दफा प्रधानमंत्री के विचित्र कदमों की तारीफ या अरविंद केजरीवाल की आलोचना करके अखबारों की सुर्खियां बन जाते हैं। किरण बेदी, मनीष सिसोदिया, योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण (वह खुद चुनाव नहीं लड़े), गोपाल राय और एक बहुराष्ट्रीय कंपनी से आई उनकी प्रवक्ता मीरा सान्याल और वाम रुझान वाली मेधा पाटकर तक सभी चुनावी राजनीति में शामिल हुए। जिन लोगों ने उनके तरीकों और उद्देश्यों पर सवाल खड़े किए (मुझ समेत) वे कह सकते हैं कि हमने मूलभूत बौद्घिक बहस में जीत हासिल कर ली थी। हमारा कहना था कि व्यवस्था में बदलाव के लिए उसमें शामिल होना पड़ता है। सत्ता पाने के लिए राजनीति में शामिल होना जरूरी है। तर्क यही है कि सत्ता पाने की राह मतदान पेटी से होकर जाती है। यह प्रक्रिया निष्पक्ष हो और मतदाता समझदार और मोटे तौर पर ईमानदार।
दिल्ली चुनाव में एकतरफा जीत के बाद आम आदमी पार्टी (आप) पंजाब और गोवा में अपनी राष्ट्रीय पहचान कायम करने की ओर बढ़ रही है और गुजरात में भी छाप छोड़ सकती है। इस बीच अब आप और केजरीवाल अब यह दावा नहीं कर सकते कि राजनीति और चुनाव तमाशा हैं। आखिर अन्ना आंदोलन के दौर में हम भी तो यही कह रहे थे। सारी शंकाएं खत्म करने के लिए हम बताते हैं कि हमने क्या कहा था: ईमानदार रहें और स्पष्टï कहें कि आपको राजनीतिक सत्ता चाहिए। या फिर केजरीवाल की पसंदीदा भाषा में: अगर राजनीति करनी है तो खुलकर सामने आओ।
आप को पंजाब और गोवा चुनाव में चाहे जो स्थान मिले लेकिन यह तय है कि वह बड़ी जगह हासिल कर रही है। गुजरात में भी कमोबेश यही भावना है। यह बात उल्लेखनीय है कि राजनीतिक सत्ता हासिल करने की चाह रखते हुए भी आप ने सत्ता विरोध को अपनी मुख्य अपील बनाए रखा है। इस दौरान उसने भाजपा के अति राष्ट्रवाद और कांग्रेस के गरीब समर्थन को अपनाए रखा। केजरीवाल अपने अभियान में शायद ही कभी किसी खास पार्टी का नाम लेते हों। वह एक साथ हर दल की आलोचना करते हैं। उनकी ब्रांड छवि अब भी एक बड़े विध्वंसक की है।
केजरीवाल और उनके अनुयायी युवा हैं और उन्हें आमतौर पर ईमानदार माना जाता है। उन्हें युवा मतदाताओं की बड़ी तादाद का समर्थन हासिल है। उनके कुछ प्रतिद्वंद्वीयों मसलन सुखबीर बादल, राहुल गांधी भी बहुत उम्रदराज नहीं हैं। लेकिन वे पात्रता की राजनीति करते हैं जबकि अरविंद केजरीवाल ने अपना कद खुद बनाया है। उनके आकलन के लिए कोई पुराना रिकॉर्ड नहीं है, वह अनुभवहीन हैं यह भी उनकी बढ़त है। उनको कम से कम एक मौका देना जरूरी है। वह युवाओं तक अपनी यह बात अच्छी तरह पहुंचाते हैं। दिल्ली में उनको एकतरफा जीत मिली क्योंकि उन्होंने कांग्रेस के सारे वोट अपने पाले में कर लिए। वहीं पंजाब में वह अकाली-भाजपा गठजोड़ के वोट में सेंध लगा सकते हैं। यह किसी एक विचारधारा से जुड़े न होने का फायदा है। वह राज्य की राजनीतिक जरूरतों के हिसाब से काम कर सकती है।
इसके अलावा क्या आप और पुराने राजनीतिक दलों के बीच कोई बड़ा अंतर है? पुराने दलों से हमारी जो शिकायतें हैं उनकी एक सूची बनाएं तो भ्रष्टाचार के अलावा उम्र और ट्रैक रिकॉर्ड, व्यक्तित्व केंद्रित, और आंतरिक लोकतंत्र की कमी, आला कमान की संस्कृति, मीडिया को लेकर असहिष्णुता, गहरे तौर पर आंशिक लोकतंत्र, सुप्रीमो व्यवस्था आदि होती है। आप के नेता में सुप्रीमो शैली साफ नजर आती है और वह लोकप्रिय भी हैं। वह महीनों तक अपने राज्य से बाहर चुनाव प्रचार कर सकते हैं। इसके बाद वह एक तीसरे शहर में 15 दिन के लिए इलाज कराने चले जाते हैं जहां उनसे संपर्क संभव नहीं। वहीं राहुल गांधी वर्षांत में अवकाश लेते हैं तो भी उनको आड़े हाथों लिया जाता है जबकि उनकी कोई संवैधानिक जवाबदेही या राजनैतिक उत्तरदायित्व नहीं हैं।
अपनी शुरुआत के करीब छह साल बाद अन्ना आंदोलन अब एक नई देशव्यापी राजनीतिक शक्ति के रूप में तब्दील हो चला है। इसके पास एक मजबूत नेता है। पार्टी को एक विचारधारा की तलाश है जिसके बारे में उसके नेता को शायद लगता है कि उसकी कोई जरूरत नहीं। इस बात ने देश की ठहरी हुई और उबाऊ हो चली राजनीति में एक नया आयाम जोड़ा है। इसके बाद राजनीतिक रिपोर्टिंग करने वालों और विचार लेख लिखने वालों का काम भी और रोचक हो जाएगा। भले ही इस चक्कर में थोड़ा अपमान हिस्से आए।
पुनश्च: गत सप्ताह मैंने पंजाब में आम आदमी पार्टी के उभार को लेकर जो स्तंभ लिखा था। उसके बाद मुझसे यह सवाल पूछा गया कि मैं आप को लेकर सकारात्मक रिपोर्ट कैसे लिख सकता हूं जब आप प्रमुख ने सोशल मीडिया में मेरे बारे में अपमानजनक बातें कही थीं। मैंने इस प्रश्न के प्रत्युत्तर में पूछा: सिर्फ इसलिए कि कोई मेरा अपमान करता है क्या मैं बतौर रिपोर्टर झूठ लिखना शुरू कर दूं? और इस तरह अपने पाठकों का अपमान करूं?
रॉयटर्स के प्रधान संपादक स्टीव एडलर ने अपने साथियों को अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप से जुड़ी कवरेज को लेकर जो खत लिखा था उसे पढऩा काफी जानकारी परक होगा। उनका कहना था: तथ्यों के साथ रहें, खुद रिपोर्ट का हिस्सा न बनें, यह याद रखें। ट्रंप हों या नरेंद्र मोदी या फिर अरविंद केजरीवाल, रिपोर्टिंग करते वक्त इस बात को याद रखा जाना चाहिए।