जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, कन्हैया कुमार और दिल्ली पुलिस का मामला मेरे मन में 35 साल पुरानी याद ताजा करता है। सन 1981 में पूर्वोत्तर में पांच विद्रोह हुए थे और मैंने उन्हें कवर किया था। विद्रोहियों की संख्या चाहे जितनी हो लेकिन आधिकारिक ब्रीफिंग में उनको राष्ट्रविरोधी तत्त्व और भूमिगत कहकर ही पुकारा जाता था। उस दौरान उन्हें पकड़ा जाता, उनसे पूछताछ होती और कई बार उनको मार भी दिया जाता। दरअसल किसी के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा दर्ज करने की तुलना में यह सब करना अधिक आसान था। हालांकि इसकी वजह से अत्यंत मूर्खतापूर्ण हालात भी बने।
ऐसे हालात में सैनिक, जासूस और संवाददाताओं के बीच एक अस्वाभाविक रिश्ता पनपता है। कई बार वह मित्रवत भी हो सकता है लेकिन अक्सर वह शत्रुतापूर्ण ही होता है। लेकिन इसके बावजूद उनके बीच साझे और सह अस्तित्व की भावना रहती है। क्षेत्र में खुफिया विभाग के बेहतरीन लोगों (मिजोरम और गंगटोक में अजित डोभााल के अलावा) में से एक कोशी कोशी मेरे मित्र थे। वह हरियाणा कैडर के पुलिस सेवा अधिकारी रहे और सेवानिवृत्ति के बाद फरीदाबाद में रहते हैं। उस वक्त वह गुवाहाटी में खुफिया विभाग के अधिकारी थे। हम अक्सर नोट्स साझा करते और गप्पें मारते। अक्सर किसी बंद वाले रोज मैं उनके कार्यालय जाता या फिर शाम के समय हम केपीएस गिल के घर पर ‘बूढ़े संत’ को श्रद्घांजलि देने के लिए मिलते। हम ओल्ड मॉन्क रम को इसी नाम से बुलाते थे।
एक दिन उन्होंने मुझे बुलाया और कहा कि एक बड़ी खबर है: कर्नल एक्स (सेना के खुफिया विभाग में उनके समकक्ष) जो उनके साथ बैठे थे, उनके पास एक बड़ा शिकार था लेकिन वह मेरी मदद से यह जानना चाहते थे कि राष्ट्रविरोधी रैंकिंग में वह किस क्रम पर था। मैं तत्काल वहां पहुंचा। कर्नल ने कहा कि उनके लड़कों ने एक नगा (एक बेनामी समूह का स्वयंभू कर्नल) को पकड़ा है और उसका दावा था कि वह साल्वेशन आर्मी नामक संगठन का सदस्य है। कोशी एक प्रतिबद्घ ईसाई धर्मावलंबी थे। अब तक गंभीर चेहरा बनाए प्रतीक्षा कर रहे कोशी मुस्कराए और उन्होंने कर्नल को बताया कि साल्वेशन आर्मी कितना निर्दोष संगठन है और क्यों ईश्वर के उस गरीब सिपाही को तुरंत क्षमा प्रार्थना के साथ रिहा कर दिया जाना चाहिए। अगले एक घंटे में यह काम हो गया और हमारे पास जीवन भर सुनाने के लिए एक किस्सा रह गया।
हम इस तार्किक और बेहतर निष्कर्ष पर पहुंच सके क्योंकि वह वक्त दूसरा था। समस्याग्रस्त क्षेत्रों में भी हालात आज से बेहतर थे। कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी के मामले में सबकुछ कमोबेश इसी अंदाज में घटित हुआ है। हालांकि हमें सरकार या न्यायालय के फैसले की प्रतीक्षा करनी होगी लेकिन यह घटना पर्याप्त हास्यास्पद भी है। दिल्ली पुलिस और देश की राजनीति के दिग्गज हाफिज सईद के नाम से बने नकली ट्विटर हैंडल और एक छेड़छाड़ किए हुए वीडियो से बेवकूफ बन गए। इसके बाद देश के अग्रणी विश्वविद्यालय के निर्वाचित छात्र संघ अध्यक्ष पर देशद्रोह का आरोप मढ़ दिया गया। अब उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि उनके साथ करना क्या है। सोशल मीडिया और पारंपरिक मीडिया पर तमाम वाद प्रतिवाद हो जाने के बाद यह मामला गुवाहाटी के कर्नल की तरह क्षमा मांग कर निजात पाने का नहीं रह गया है। वह समय भी अलग था। अब हम भारतीय मानसिकता के सनी देओलीकरण से जूझ रहे हैं। रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद उपजे दबाव में सरकार ने पहले कहा कि वह दलित नहीं थे, बाद में वाम विचारधारा के गढ़ जेएनयू पर धावा बोलकर पूरी बहस का जाति और वंचना से राष्ट्रवाद में तब्दील कर दिया गया। हालांकि पिछले कुछ दशकों से वहां वाम और दक्षिण (अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद यानी अभाविप) के बीच द्वंद्व चल रहा है। लेकिन वहां अब तक हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं रहा है।
भाजपा के सत्ता में आने के बाद अभाविप का धैर्य समाप्त हो चला है। अब वह सत्ता की हनक का प्रयोग वाम नियंत्रण वाले शैक्षणिक परिसरों पर काबिज होने के लिए करना चाहती है। मुहावरे का प्रयोग करें तो ‘सैंया भये कोतवाल, अब डर काहे का’ जैसा मामला है। दुर्भाग्यवश सरकार ने हैदराबाद और जेएनयू में पक्षपाती कोतवाल की भूमिका निभाने का निर्णय लिया। नतीजा एक दलित छात्र की मृत्यु और एक गरीब छात्र को जेल के रूप में सामने आया, जिसके बारे में उनको नहीं पता कि उसके साथ करना क्या है? अगर वे माफी मांगते हैं तो उन पर आरोप लगेगा कि वे बलि का बकरा तलाश कर रहे थे। यदि वे कन्हैया को जाने देते हैं तो हैदराबाद के बाद यह उनकी दूसरी पराजय होगी। अगर उन पर मुकदमा चलाया जाता है तो यही संभावना है कि आज नहीं तो कल कोई न कोई अदालत उनको रिहा कर देगी। देशद्रोह के आरोपों से तो यकीनन। चाहे जो भी हो कन्हैया का चमकना लाजिमी है। ऐसे में भाजपा के लिए रास्ता एकदम सीधा है। वह या तो गलती स्वीकार कर ले और थोड़ा शर्मिंदा होले या फिर वह बेशर्मी दिखाए जबकि इस स्थिति में भी उसे अंतत: बड़े पैमाने पर शर्मिंदा ही होना है। जब ओपी शर्मा जैसे लोग छात्रों को पीट रहे थे और सेवानिवृत्त होने जा रहे पुलिस प्रमुख ने उनकी रक्षा करने से इनकार कर दिया तो ऐसा लग रहा है कि तानाशाह स्वभाव वाले बुजुर्गों ने नियम कायदे न मानने वाले बच्चों के खिलाफ जंग छेड़ दी है। आपको अंदाजा है कि एक युवा देश में बुजुर्ग बनाम युवा के संघर्ष की क्या परिणति होगी?
एक अच्छा विचार यह है कि संकट के समय अपने कार्यों को वाजपेयी के हिसाब से कसा जाए। वह इस मामले से कैसे निपटते? आपको इसका जवाब उससे काफी अलग मिलेगा जो राजग के मौजूदा शसन में उनके वारिस अपना रहे हैं। सन 1997 के आरंभ में भाजपा-अकाली दल (उस वक्त यह उतना ही असहज था जितना आज भाजपा-पीडीपी) ने पंजाब में सत्ता हासिल की। तत्काल भिंडरांवाले और खालिस्तान समर्थक झड़पें शुरू हो गईं। उस वक्त मैं द इंडियन एक्सप्रेस का संपादक था। अखबार ने इस घटना पर तीखे हमले शुरू किए। भाजपा जो उस समय केंद्र में विपक्ष में थी से कहा गया कि वह गठबंधन की समीक्षा करे। एक दोपहर वाजपेयी ने मुझे अपने घर पर तलब किया। लालकृष्ण आडवाणी और मदनलाल खुराना वहां मौजूद थे। चाय और पाइनऐपल पेस्ट्रीज के बीच वाजपेयी ने मुझे एक भाषण दिया: हिंदू और सिख पंजाब में एकदूसरे के खून के प्यासे थे। सिख आतंकी भाजपा नेताओं की हत्या कर रहे थे। अब अगर भाजपा और अकाली साथ हैं तो यह पंजाब और भारत के लिए बेहतर है या नहीं? हमें छोटी मोटी बातों की अनदेखी कर व्यापक तस्वीर पर नजर डालनी चाहिए। उन्होंने मुझसे कहा, ‘थोड़े परिपक्व बनिए संपादक जी।’ मैंने पूछा कि अगर यह सब नियंत्रण से बाहर हो गया तो क्या होगा? उन्होंने खुराना जी की ओर इशारा करते हुए कहा कि वह किस मर्ज की दवा हैं?
जरा सोचिए उन्होंने हैदराबाद और जेएनयू मामले में क्या किया होता। अगर उनको पता चलता कि उनके दो मंत्री अभाविप का पक्ष ले रहे हैं तो वह यकीनन अप्रसन्न होते। अगर इसके बावजूद रोहित वेमुला ने आत्महत्या की होती तो उसका दलित होना नकारने के बजाय वह पहले अपना दुख और अपनी समानुभूति प्रकट करते। जेएनयू में शायद उन्होंने कुछ ऐसा कहा होता, ‘छोकरे हैं, बोलने दीजिए, फिर आईएएस में जाएंगे।’ यह भी याद रखिए कश्मीर में अलगाववादियों द्वारा यह पूछे जाने पर वह उनसे कैसे निपटे थे कि सरकार से कैसे बात की जाए जब वह संविधान के तय दायरे में बात करने को कहती है। वाजपेयी ने कहा था, ‘संविधान ही क्यों मैं आपके साथ मानवता के दायरे में बात करूंगा।’ यह विवाद को हल करने की सोच थी। फिलवक्त हमें विवाद पैदा करने की तलाश अधिक नजर आ रही है। यह तरीका कारगर नहीं है।