हमारे लिए सतलज-यमुना नदी जोड़ (एसवाईएल) जैसे अस्वाभाविक मुद्दे पर ध्यान केंद्रित करना थोड़ा कठिन काम है। खासकर तब जबकि यह लड़ाई पंजाब और हरियाणा जैसे दो ऐसे राज्यों के बीच हो जो मिलकर लोकसभा में केवल 23 सांसद भेजते हैं। यह लड़ाई हमें झिंझोड़ती नहीं है क्योंकि ठीक एक दिन बाद कोलकाता में भारत और पाकिस्तान के बीच बहुचर्चित क्रिकेट मैच होने वाला है और सारा प्राइम टाइम इस मुकाबले के हवाले है। बचीखुची जगह भारत माता की जय जैसे मुद्दों ने घेर ली है। ऐसे में मुझे कोशिश करने दीजिए कि मैं इस मुद्दे को थोड़ा सनसनीखेज अंदाज में पेश कर सकूं। तो अब हरियाणा, पंजाब और सतलज को भूल जाइए। चूंकि श्री श्री भी जा चुके हैं तो यमुना को भी भूल ही जाइए। जरा पठानकोट को याद कीजिए।
जरा अपनी नजर को पठानकोट से 10 मील उत्तर की ओर घुमाइए जहां जम्मू कश्मीर राज्य शुरू होता है। अब जरा कल्पना कीजिए कि राज्य विधानसभा एक ऐसा कानून पारित करती है जो सिंधु जल संधि को खत्म कर देता है। या फिर मान लेते हैं कि वह रेलवे को राज्य में विनिर्माण के लिए दी गई अनुमति रद्द कर देता है, सेना को काम करने से रोकता है, एएफएसपीए कानून को लागू करने से मना कर देता है। ऐसा होते ही हममें से कुछ लोग मूंछे फड़काते हुए देशद्रोह-देशद्रोह चिल्लाने लगेंगे। कुछ लोग अपनी बंदूकें तान लेंगे और अन्य कहेंगे कि देखो, हमने आपसे कहा था कि ऐसा ही होगा। आप कश्मीरियों से और क्या अपेक्षा करते हैं। अनुच्छेद 370 को तत्काल खत्म कीजिए।
अगर इतनी सनसनी पर्याप्त है तो वापस पठानकोट से नीचे लौटते हैं। पठानकोट पंजाब में आता है और उस राज्य ने हाल ही में अपने पड़ोसी हरियाणा के साथ नदी जल समझौता समाप्त किया है। इसके अलावा उसने किसानों को वह भूमि लौटाने का फैसला भी किया है जो करीब 38 साल पहले 213 किलोमीटर लंबी एसवाईएल नहर तैयार करने के लिए अधिग्रहीत की गई थी। केवल एक समाचार पत्र द ट्रिब्यून ने हमें इस अद्भुत संवैधानिक अराजकता से अवगत कराने का बीड़ा उठाए रखा है। तथ्य तो यह है कि राज्यपाल कप्तान सिंह सोलंकी ने पंजाब के उस नए कानून पर हस्ताक्षर तक नहीं किए हैं जिसके जरिये यह जमीन लौटाई जानी है। लेकिन इसकी परवाह ही किसे है। कानून का प्रवर्तन किया जा रहा है। जेसीबी और बुलडोजर की मदद से हजारों वृक्ष ढहाए जा रहे हैं और उनकी मदद से तथा मलबे और मिट्टी से नहर को भरा जा रहा है। समूचे देश और संस्थानों को ताक पर रख दिया गया है। यथास्थिति बरकरार रखने के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले तक को धता बता दी गई है। पंजाब का कहना है कि उसके पास किसी के लिए कोई पानी नहीं है।
अगर इतना ही काफी नहीं है तो यह भी जान लीजिए कि सोलंकी पंजाब और हरियाणा दोनों राज्यों के राज्यपाल हैं। दोनों की विधानसभाओं का बजट सत्र चल रहा है और उन्होंने दोनों राज्यों द्वारा प्रदत्त अभिभाषण विधानसभाओं में पढ़े हैं। पंजाब के लिए उन्होंने कहा कि कोई पानी नहीं दिया जाएगा जबकि हरियाणा के लिए कहा कि यह अन्याय बरदाश्त नहीं किया जाएगा। विचित्रताएं यहीं समाप्त नहीं होतीं। हरियाणा और पंजाब दोनों में भाजपा का शासन है। पंजाब में वह शिरोमणि अकाली दल के साथ साझेदार है। हरियाणा में कांग्रेस और चौटाला का दल (अकाली दल के विश्वसनीय साझेदार) भाजपा को हवा दे रहे हैं कि वह अपने-अपने राज्य के अधिकार के लिए लड़े। पंजाब में कांग्रेस अकाली दल का खुलकर समर्थन कर रही है। पवित्रता की मूर्ति बनी आम आदमी पार्टी भी इस मसले में कूद गई है। अरविंद केजरीवाल ने कहा है कि पंजाब को अपना पानी हरियाणा को नहीं देना चाहिए। बदले में हरियाणा कह रहा है कि हम दिल्ली को पानी नहीं देंगे। उधर पंजाब में आप की बढ़ती चुनौती को देखकर बादल और अमरिंदर सिंह दोनों मतदाताओं से कह रहे हैं कि केजरीवाल हरियाणवी है जो हमारा पानी चुराना चाहता है। हरियाणा में सरकार जाटों से छिपती रही और गोरक्षा तथा सरस्वती को खोजने में व्यस्त रही, वहीं इस बीच यह सारा कुछ हो गया।
अब इस संवैधानिक मूर्खता में बस एक चीज की कमी है। वह यह कि राष्ट्रीय हरित पंचाट पंजाब को वृक्ष न काटने का आदेश जारी कर दे। उसे भी वही जवाब मिलेगा जो सर्वोच्च न्यायालय को मिला। यानी, हमारे पास बचाने के लिए वृक्ष ही नहीं है, वैसे ही जैसे देने के लिए पानी नहीं है। इसलिए बेहतर होगा एनजीटी आर्ट ऑफ लिविंग से 4.75 करोड़ रुपये का बकाया वसूलने का प्रयास करे।
केंद्र सरकार विमुख नजर आ रही है और गजब गजब की नजीरें पेश की जा रही हैं। संबंधित मंत्रालय यानी गृह मंत्रालय कभी जेएनयू में हाफिज सईद समर्थित विद्रोह की बात करता है तो कभी वह सोमनाथ मंदिर पर हमले के षडयंत्र का भंडाफोड़ करता है और कुछ आतंकियों को एटीएम लूटते हुए पकड़ लेता है क्योंकि शायद आईएसआई ने उनको पर्याप्त भत्ता देकर नहीं भेजा था।
यह चीजों को सनसनीखेज बनाना नहीं है। पठानकोट और उसके बाद लिखा एक एक शब्द सही है। संवैधानिक क्षय, अराजकता और अफरातफरी का इतिहास रचा जा रहा है। अब केवल यही बाकी रह गया है कि महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश आदि राज्य भी कृष्णा, गोदावरी, कावेरी, नर्मदा और सतलज, ब्यास और रावी नदी संबंधी अपने-अपने जल समझौते को रद्द कर दें। वे सभी ये दलील दे सकते हैं कि हमारे पास पानी नहीं है। केवल अरुणाचल प्रदेश ही ऐसा राज्य है जो यह नहीं कर सकता क्योंकि ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियां बहुत वेग से बहती हैं और उनमें प्रचुर जल है। यह तिब्बत में चीन के लिए एक संकेत हो सकता है। बहरहाल पंजाब की सतलज नदी वहीं से निकलती है।
अगर ऐसे पुराने विवादों को याद किया जाए तो पूरा पन्ना लग जाएगा और हम बमुश्किल 2004 तक ही पहुंच पाएंगे। बेहर होगा मैं अपने चंडीगढ़ के मित्र और सहयोगी विपिन पबी के आलेख का जिक्र कर दूं जिसमें उन्होंने एसवाईएल के किस्से के 10 मोड़ों का सारगर्भित उल्लेख किया है। आलेख का शीर्षक है-‘टेन रीजंस टु वरी अबाउट सतलज-यमुना लिंक रो बिटवीन पंजाब ऐंड हरियाणा।’ एसवाईएल के लिए भूमि अधिग्रहण का काम सन 1978 में शुरू हुआ जब पंजाब में अकालियों और दिल्ली में जनता पार्टी (जनसंघ समेत) का शासन था। उस वक्त भी प्रकाश सिंह बादल ही पंजाब के मुखिया थे। सन 1981 में पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के बीच एक त्रिपक्षीय समझौता हुआ। उस वक्त पंजाब और केंद्र में कांग्रेस का शासन था।
सन 1982 में इंदिरा गांधी ने इसकी आधारशिला रखी और अमरिंदर सिंह ने इसे पंजाबी मानस के लिहाज से बड़ा कदम बताया। सन 1985 में राजीव-लोंगोवाल समझौते में इस संधि को लेकर नई प्रतिबद्धता जताई गई। लेकिन सन 2004 में अमरिंदर सिंह ने संविधान की अवज्ञा कर इतिहास रच दिया। उन्होंने पंजाब टर्मिनेशन ऑफ एग्रीमेंट्स ऐक्ट (यह कोई मजाक नहीं कानून का नाम है)नामक कानून पारित किया। कानून सर्वमान्य ढंग से पारित हुआ और बावजूद इसके कि अमरिंदर ऐसे मामले में सत्ता गंवा बैठे, अकाली उनको सत्ता में आने से रोकने के लिए वही सब दोहरा रहे हैं। सबसे बढ़कर अब 12 साल बाद राज्य में ऐन चुनाव के वक्त इस कानून को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रेसिडेंशियल रेफरेंस सामने आया है। इस शर्मनाक इतिहास में एक और बात का उल्लेख बनता है। ऐसे वक्त में जब हर कोई नहर और उसके निर्माण पर सहमत लग रहा था तब आतंकियों सन 1990 में परियोजना के मुख्य अभियंता, उसके कनिष्ठ और 35 श्रमिकों की हत्या कर दी थी और काम रुक गया था। इस बीच अकाली दल, भाजपा और कांग्रेस तथा अब आप के समर्थन से आंतकियों का मकसद हासिल हो गया है।