मरहूम ज्ञानी जैल सिंह एक किस्सा सुनाया करते थे। जब वह पंजाब के मुख्यमंत्री थे तब पटियाला का समृद्घ कारोबारी समुदाय उनकी पार्टी को चंदा नहीं दिया करता था। उन्होंने अपने खुराफाती पुलिस उपाधीक्षक से कहा कि वह पटियाला के लालाओं को थोड़ा सबक सिखाए। इसका नतीजा जल्द सामने आया। वफादार डीएसपी जब लौटा तो धन की थैलियां लेकर। उसने किया यह कि खिड़कियों पर परदे लगी एक वैन मंडी में घुमा दी। उसके आगे और पीछे पुलिस की लाउडस्पीकर लगी गाड़ी थी जिनमें नकदी रजिस्टर और खाली थैले थे। लाउडस्पीकर से घोषणा की गई कि पुलिस ने बीती रात एक कुख्यात ठिकाने पर छापा मारा। वैन में उस घर की मैडम थी जो उन सभी लालाओं को पहचानेगी जिन्होंने उसकी लड़कियों की सेवाएं ली थीं। वे हर दुकान के सामने रुकते और घबराया दुकान मालिक पैसे देकर अपनी जान बचाता। किसी ने पूछा, ‘लेकिन ज्ञानी जी, क्या वाकई में डीएसपी ने किसी वेश्यालय पर छापा मारा था।’
वह कहते, ‘ओये यार, कमाल करते हो। सियासत करने आये हैं या तीर्थ यात्रा पे?’ उसके बाद वह खुशी के साथ बताते कि ऐसा कोई वेश्यालय था ही नहीं। वह कहते, ‘क्या तुम अंदाजा लगा सकते हो कि एक प्रतिष्ठित लाला पर क्या गुजरती अगर कोई मैडम उसकी शिनाख्त करती। उसके दोस्त, परिवार, बिरादरी वाले सब उस पर थूकते। वह अपना नाम भला कैसे साफ करता। हम तो उस पर आरोप भी नहीं लगाने वाले थे।’
वह अपनी बात स्पष्ट करते, ‘वह तो इन बातों के बजाय केवल पैसे से अपने लिए सम्मान और शांति खरीद रहा होता।’ ज्ञानी जी को यह बात बहुत मजेदार लगती थी लेकिन वह बहुत गंभीरता से यह भी कहते, ‘देखिए इज्जतदार आदमी इज्जत जाने से डरता है, ऐसे में किसी को जेल क्यों भेजना?’ हमें अब राजनीति और सार्वजनिक बहस में अक्सर यही खेल देखने को मिलता है। अब इसका इस्तेमाल राष्ट्रीय राजनीति में होने लगा है और हम मीडिया वाले पूरी बेहूदगी से इसका आनंद लेते नजर आते हैं।
हाल के दिनों में हमें पटियाला मैडम का किस्सा दोबारा दोहराया जाता दिखा। पहली बार अगस्टा सौदे के मामले में। इटली की अदालत में भ्रष्टाचार साबित हो चुका था। रिश्वत देने वालों को सजा हो गई थी। रिश्वत लेने वालों में किसी का नाम अलग से उजागर नहीं हुआ (2013 में दर्ज प्राथमिकी में इकलौता बड़ा नाम एयर चीफ मार्शल त्यागी का है) लेकिन ऐसी हवा बनाई गई मानो तमाम राजनीतिक विरोधी, आधा दर्जन 2-3 स्टार वाले वायुसेना अधिकारी और शीर्ष के नौकरशाह (जिनमें से कुछ सीएजी, सीवीसी और लोकसेवा आयोग जैसे संवैधानिक पदों पर रहे) आदि रिश्वतखोरी में शामिल थे।
किसी पर अभियोग नहीं, कोई आधिकारिक नाम नहीं लेकिन कथित नामों के लीक होने ने लुटियन की दिल्ली में ऐसा माहौल रच दिया मानो चारों तरफ चोर ही चोर हों। अफवाह उड़ी कि अगस्टा से पैसा लेने वाले पत्रकारों की एक सूची मौजूद है। यहां तक कि साइबर स्पेस में अगस्टापत्रकार नामक हैशटैग भी चला। मामला बिल्कुल वही था: कोई नाम नहीं, कोई आरोप नहीं, कोई तथ्य नहीं केवल काल्पनिक और कीचड़ उछालू बातों का बतौर हथियार प्रयोग किया गया जो अपने आप में आत्मघाती है।
ज्ञानी जी काल्पनिक मैडम की तरह अगर इस मामले में किसी ने पैसा लिया भी है तो हम नहीं जानते। लेकिन पूरी व्यवस्था की विश्वसनीयता को गहरी ठेस लग चुकी है और उन बहुसख्ंयक लोगों को भी जो ईमानदार और गंभीरता से काम करने वाले हैं। वायु सेना के किसी भी अधिकारी से पूछिए कि निजी तौर पर उसे कितनी ठेस पहुंची और पेशेवर और संस्थागत रूप से इस बदनामी ने कितना परेशान किया। हमने 35 साल पहले भी ‘बोफोर्स’ के रूप में यही सबकुछ देखा है। विन चड्ढïा ने भी दुबई में सुरक्षित रहकर यही किया था। आज अगस्टा मामला भी बोफोर्स कांड की तरह एक ठंडे अंत की ओर बढ़ रहा है। अगस्टा मामला ठंडा पडऩे के साथ ही संजय भंडारी का मामला उभर आया है।
इस बार भी किसी का नाम सामने नहीं है। हम नहीं जानते उन्होंने कौन सा सौदा कराया? उनको कितना पैसा मिला और यह पैसा उन्होंने किसके साथ बांटा? लेकिन लग तो ऐसा रहा है मानो आधे दिल्ली शहर को उन्होंने भुगतान किया हो। इसमें गांधी परिवार के दामाद से लेकर भाजपा के एक भद्र प्रवक्ता और एक प्रमुख पत्रकार तक शामिल हैं। एक बार फिर, कोई आरोप नहीं, कोई नाम नहीं केवल कीचड़। भंडारी की कथित कॉल डिटेल रिकॉर्ड की सादे कागज पर दर्ज अहस्ताक्षरित प्रतियां घूम रही हैं जिनमें दिखाया गया है कि आखिरी दो ने उनको सैकड़ों बार फोन किया। आखिर उन्होंने भंडारी की क्या मदद की? भंडारी ने उनको कैसे और कितना भुगतान किया, यह सब जानने या कहने की आवश्यकता नहीं। जैसा ज्ञानी जी हमसे कहा करते थे, भरेपूरे लोग अपनी इज्जत खोने से डरते हैं और हमारी व्यवस्था में कोई इतने दिन नहीं जीता कि खुद को बरी कर सके।
खासतौर पर तब जबकि कोई औपचारिक आरोप ही न लगा हो। सभी पक्ष इस खेल में शामिल हैं। अब कांग्रेस जीएसपीएस के जरिये मोदी पर हमला कर रही है। यह राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट जैसा मामला है। निशाने बदलते हैं और पार्टी लाइन भी। एक दिन वसुंधरा राजे तो दूसरे दिन सुषमा स्वराज और उसके अगले दिन अरुण जेटली निशाने पर होते हैं। विजय माल्या और ललित मोदी लंदन में बैठे हम पर हंसते हैं। कुछ महीने पहले ललित मोदी दुश्मन नंबर एक थे। अब आपको दाद देनी होगी कि वह उस समय टोक्यो पहुंचे जब जेटली भी आधिकारिक यात्रा पर वहां गए। ललित ने टोक्यो से अपनी मुस्कराती हुई तस्वीर भी सोशल मीडिया पर डाली। मानो वह हमारी संप्रभुता का मजाक उड़ा रहे हों। इस बीच हम भारत माता की जय ही बोल सकते हैं। ललित मोदी, माल्या, माइकल ये तीनों हमें याद दिलाते हैं कि हम कितने अक्षम हैं। यह भी कि हम कितने भ्रष्ट, समझौतापरक और गड़बड़ हैं।
यह कितना आत्मघाती है इसका एक उदाहरण तथाकथित टाट्रा घोटाले से सामने आया। वर्ष 2012 में कुछ जिम्मेदार लोगों ने आरोप लगाया कि हमारी मिसाइल प्रणाली के लिए वाहन बनाने वाली चेक कंपनी ने अनुबंध के लिए रिश्वत दी है। केंद्रीय जांच ब्यूरो ने मामला दर्ज किया, ऑर्डर रद्द किए गए। वाहनों का निर्माण एक सरकारी रक्षा उपक्रम भारत अर्थमूवर्स लिमिटेड कर रहा था जिसके सीएमडी नटराजन को निलंबित कर दिया गया। अब मामला बंद है। हर कोई बरी है। टाट्रा सौदा दोबारा पटरी पर है और चेक कंपनी अब एक निजी साझेदार (अनिल अंबानी की रिलायंस डिफेंस) के साथ काम कर रही है। नटराजन अदालतों से जीत गए हैं। इस बीच हमारे सैन्य बल को तीन साल से अधिक समय तक अक्षमता झेलनी पड़ी और पूरा देश यह मानता रहा कि हमारे यहां रक्षा क्षेत्र तक में चोरों की भरमार है।
ठगों, धोखेबाजों, लॉबीइंग करने वालों, फिक्सरों के लिए समस्या खड़ी करने के बजाय पूरा देश उनकी दया पर है। हर कोई यह मानता है कि उसके अलावा सब चोर हैं। इससे हमारी अक्षम समझौतापरक जांच एजेसियां (सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय और एनआईए तक) आश्वस्त हो जाती हैं कि उनको किसी नतीजे पर पहुंचना ही नहीं है। वे सत्ता की इच्छा के मुताबिक गंदगी फैलाती हैं या क्लीन चिट देती हैं। मालेगांव और समझौता एक्सप्रेस मामले में एनआईए के रुख का बदलाव राष्ट्रीय शर्म का विषय है लेकिन इसकी बदौलत इसके प्रमुख को किसी नियामक या सीवीसी अथवा यूपीएससी के सदस्य के रूप में एक और अवसर मिल सकता है जहां वे भविष्य के आईएएस/आईपीएस चुनने में ‘राजद्रोह विरोधी’ बस्सी की मदद कर सकेंगे। किसी को नहीं बख्शेंगे। राजनेता, न्यायाधीश, नियामक, संवैधानिक प्रमुख, आरबीआई प्रमुख और पत्रकार। नई दिल्ली नकारात्मक आवरण में घिर गई है। जब राजनीतिक लड़ाई संसद, चुनाव या सार्वजनिक बहस के बजाय गंदे हथकंडों से लड़ी जाएंगी तो आप उम्मीद भी क्या कर सकते हैं।