हमारे पास अपने पुरखों जैसी बुद्घिमता नहीं है। मिसाल के तौर पर कहावत है कि गैर जरूरी चीजों के साथ जरूरी चीज को न फेंक दें लेकिन हम गैर जरूरी चीजों को रख लेते हैं और जरूरी चीज ठिकाने लगा देते हैं। सैन्य खरीद का उदाहरण लें तो अधिकांश नए सौदे घोटालों का शिकार हो चुके हैं। उनमें से कई को बाद में रद्द कर दिया गया। नतीजतन सैन्य बल जरूरी साजोसामान से वंचित हैं, उनके पास पर्याप्त गोला बारूद और कलपुर्जे नहीं हैं। जबकि इन मामलों में न कोई पकड़ा गया, न किसी को सजा हुई।
हमारे दौर के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं:
1. बोफोर्स हमारे वक्त का सबसे चर्चित घोटाला है। सेना के पास अब केवल शुरुआती खरीद वाली तोपें रह गई हैं। मौजूदा तोपें भी गोला-बारूद की कमी झेल रही हैं। 17 साल पहले हुए करगिल युद्घ के दौरान सेना ने जमकर गोला-बारूद का आयात किया। बोफोर्स के बाद पिछले 30 साल से भारत ने कोई तोप नहीं खरीदी है। सबसे अहम बात यह है कि आज तक किसी को रिश्वत के लिए सजा नहीं हुई, न ही कोई पैसा बरामद हुआ। लब्बोलुआब यही कि गैर जरूरी चीजों पर तवज्जो दी गई और जरूरी चीजों को त्याग दिया गया।
2. जर्मन एचडीडब्ल्यू पनडुब्बी जिसे टाइप 209 कहा जाता है, वह भी उसी दर्जे का कांड है। इन्हें देश की नौसेना की पहली ‘पनडुब्बी से पनडुब्बी मारक’ हथियार होना था। सौदा विफल हो गया। केवल दो पनडुब्बियां खरीदी गईं और 10 साल बाद दो भारत में बनाई गईं। तकनीक हस्तांतरण और विस्तार का काम तो कभी हो ही
नहीं सका।
3. यह सैन्य खरीद का मामला नहीं है लेकिन मैं इंडियन एयरलाइंस द्वारा अपनी पहली ए-320 एयरबस खरीद को शामिल करना चाहूंगा क्योंकि यह भी बोफोर्स और टाइप 209 के वक्त ही घोटाले में तब्दील हुआ। जैसे ही अफवाहों का दौर शुरू हुआ तभी एक नया ए-320 एयरबस बेंगलूरु में दुर्घटनाग्रस्त हो गया। इस बात का फायदा संपूर्ण सौदे को खारिज करने में किया गया, हालांकि भाग्यवश यह विमान बच गया। जब सद्दाम हुसैन ने कुवैत पर हमला किया, भारत को हजारों नागरिकों को कुवैत से बाहर निकालना पड़ा (वास्तविक जीवन में एयरलिफ्ट करने के लिए अक्षय कुमार मौजूद नहीं थे)। उस वक्त एयर इंडिया और भारतीय वायुसेना की क्षमताएं नाकाफी साबित हो रही थीं। वीपी सिंह के पास ए-320 के इस्तेमाल के सिवा कोई विकल्प बाकी नहीं रह गया था। इंडियन एयरलाइंस पूरे बेड़े के जमींदोज होने के कारण हुए वित्तीय नुकसान से कभी उबर न सकी। इस मामले में भी न कुछ साबित हुआ और न ही किसी को गिरफ्तार किया गया अथवा सजा हुई।
बोफोर्स के कारण लगे झटके और बदनामी ने कई राजनीतिक संघर्षों की जमीन तैयार की। तहलका स्टिंग के साथ ही कांग्रेस को बदला लेने का अवसर मिला। बंगारू लक्ष्मण और जॉर्ज फर्नांडिस (इनको अस्थायी तौर पर) को पद त्यागने पड़े। बंगारू को छोड़कर किसी को कानून ने सजा नहीं दी जबकि उनका रक्षा सौदे से कोई संबंध नहीं था। गांधी परिवार ने तहलका मामले से बढिय़ा बदला लिया। क्योंकि इससे न केवल भाजपा की छवि खराब हुई बल्कि बोफोर्स मामले में राजीव गांधी के खिलाफ खूब बोलने वाले जॉर्ज फर्नांडिस भी निशाने पर रहे। लेकिन वाजपेयी की लोकप्रियता और विश्वसनीयता के कारण तथा बंगारू लक्ष्मण को त्याग कर फर्नांडिस अपनी जगह वापस पाने में कामयाब रहे। बदला अधूरा रहा। बाद में एक बार फिर ताबूत घोटाला सामने आया, हालांकि इसमें कुछ भी साबित नहीं हुआ। परिणामस्वरूप वाजपेयी के छह साल के कार्यकाल में कोई सौदा नहीं हो सका, जबकि करगिल में संघर्ष हुआ और ऑपरेशन पराक्रम में लगभग युद्घ जैसे हालात बन गए थे। सरकार ने एक भी गैर रूसी शस्त्र प्रणाली नहीं खरीदी। यहां तक कि हमारी बहुमूल्य नौसैनिक परिसंपत्तियों को दुश्मनों के विमान व मिसाइल से बचाने वाली बराक मिसाइल का सौदा भी निष्प्रभावी हुआ क्योंकि उसके निर्माता पर ही प्रतिबंध लगा दिया गया। ऐसा ही कुछ हाल में स्कॉर्पियन पनडुब्बी की खरीद के वक्त हुआ जिसे बिना टॉरपीडो के ही समुद्र में उतारना पड़ा। इन्हें बनाने वाली कंपनी डब्ल्यूएएसएस अगस्टा की अनुषंगी है और पूर्व रक्षा मंत्री एंटनी द्वारा लगाए गए प्रतिबंध की शिकार भी।
जब कांग्रेस 2004 में सत्ता में आई तो उसने राजग के रक्षा घोटालों की पड़ताल की कोशिश की लेकिन कुछ नहीं मिल सका। संप्रग-1 के रक्षा मंत्री प्रणव मुखर्जी में पीछे पड़कर दोष सिद्घ करने की प्रवृत्ति नहीं थी। घोटाला न खोज पाने की उनकी इस अक्षमता ने 10 जनपथ को नाखुश कर दिया और शायद इसीलिए उनकी जगह वफादार ए के एंटनी को रक्षा मंत्री बनाया गया। एंटनी ने भी ऐसा कुछ नहीं किया। उन्होंने अपना दामन साफ रखने में रुचि दिखाई। घोटाले की पहली अफवाह उडऩे पर उन्होंने सीबीआई बुलाई और आपूर्तिकर्ता पर प्रतिबंध लगा दिया। इस तरह वह न केवल देश के सबसे लंबी अवधि तक काम करने वाले रक्षा मंत्री बन गए बल्कि सर्वाधिक आपूर्तिकर्ताओं को प्रतिबंध लगाने वाले रक्षा मंत्री भी हो गए। हालात ऐसे हो गए कि कोई ऐसा आपूर्तिकर्ता नहीं बचा जिसकी सेवाएं ली जा सकें। वर्ष 2012 में जब उन्होंने राइनमेटल नामक जर्मन कंपनी पर प्रतिबंध लगाया तो इसके साथ ही उसने 100 से अधिक अन्य पश्चिमी हथियार कंपनियों पर भी प्रतिबंध लगा दिया जो इस कंपनी से के साम्राज्य का हिस्सा हैं।
सेनाएं हताश हो रही थीं और उनके रवैये के चलते मैंने एक बार रक्षा आधुनिकीकरण को लेकर उनके रुख की आलोचना की थी। इतना ही नहीं एक बार मैंने उनको क्रिकेटर बापू नाडकर्णी का राजनैतिक संस्करण कहा था। नाडकर्णी न तो रन देते थे और न ही बल्लेबाज को आउट करते थे। लगातार 21 मेडन ओवर फेंकने का विश्व रिकॉर्ड उनके नाम है जो शायद ही टूटे। अगस्टा वेस्टलैंड रिश्वत मामले की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि यह एंटनी की मौजूदगी में हुआ। उनको यह मानना पड़ा कि रिश्वत ली गई। इसलिए सौदा रद्द करना पड़ा तथा जांच के आदेश जारी करने पड़े। यह निर्विवाद तथ्य है कि उन्होंने इटली के अधिकारियों द्वारा गड़बडिय़ां पकडऩे के बाद कदम उठाए। एक भारतीय अखबार और उसके संवाददाता ने खबर का खुलासा किया और इस पर लगातार खबरें कीं। वह आज भी ऐसा कर रहा है।
चूंकि अगस्टा द्वारा रिश्वत देने पर कोई विवाद नहीं है इसलिए मामले की तेजी से जांच होनी चाहिए और दोषियों को सजा होनी चाहिए। परंतु क्या हमारे पास इतनी बुद्घिमता है कि हम घोटाले को आधुनिकीकरण के बड़े मुद्दे से अलग करके देख सकें? हम मेक इन इंडिया की बात भले करें लेकिन देश की अधिकांश शस्त्र प्रणाली विदेशी आयात पर भी निर्भर होंगी ही। इनमें तेजस, एएलएच, छिपने में सक्षम पोत और एमबीटी अर्जुन जैसे उपकरण भी शामिल हैं जो तय समय से 30 वर्ष तक पीछे हैं।
भारत को अब तीन में से एक संभावना चुननी होगी। पहली, चूंकि निविदा आधारित, वेंडर खरीद का विकल्प अब नहीं रह गया है इसलिए भविष्य के सारे सौदे सरकार से सरकार के माध्यम से होंगे। जिसे अमेरिका एफएमएस यानी विदेशी सेना बिक्री कहता है। संप्रग ने वायुसेना और नौसेना के सी-130, सी-17 और पी-8आई का ऑर्डर ऐसे ही दिया। इसने एंटनी को वह करने को मजबूर किया जो वैचारिक रूप से उनको पसंद नहीं था यानी अमेरिका से खरीद। उनके कार्यकाल में अमेरिका 65 साल में पहली बार सबसे बड़ा हथियार आपूर्तिकर्ता बन गया। अब भाजपा सरकार इसी तरीके से फ्रांसीसी राफेल विमान के दो बेड़े खरीद रही है और अमेरिकी तोपखाने में संभावना तलाश रही है। इससे विकल्प और लेनदेन के अवसर सीमित हो जाते हैं लेकिन कमीशन एजेंट भी बाहर हो जाते हैं। दूसरा विकल्प है खरीद का एक सटीक तरीका खोजना लेकिन हमारी बंटी हुई राजनीति में यह मुश्किल है। तीसरा है समयबद्घ खरीद को लेकर अपनी व्यवस्थागत कमियों को स्वीकार करना। लेकिन ऐसा कोई नहीं चाहेगा। यानी हम तमाम कमियों के बावजूद घोटालों में उलझे रहेंगे जबकि किसी को दोषी नहीं ठहरा पाएंगे। उधर हमारे जवान हताश होते रहेंगे। लब्बोलुआब यह कि हम अच्छाई की अनदेखी कर गलतियों को गले लगाते रहेंगे।