कुछ हद तक उदार- और ईमानदार- सैन्य इतिहासकार भी बताएंगे कि 1965 का युद्ध आखिरी था, जिसमें भारत के खिलाफ पाकिस्तान के जीतने के अवसर थे। उसके पास बेहतर सैन्य साज-ओ-सामान था, उन्नत टेक्नोलॉजी थी, नाटो से मिली बेहतर ट्रेनिंग, स्पष्ट युद्ध नीति और रणनीतिक लक्ष्य भी था। अब यह भरोसा करना कठिन लगता है, लेकिन तब आंतरिक और राजनीतिक स्तर पर भारत की तुलना में पाकिस्तान अधिक एकजुट दिखाई देता था। भारत के सामने तो नगा विद्रोह, द्रविड़ पृथकतावाद और अस्थिर कश्मीर जैसी समस्याएं थीं।
सबसे महत्वपूर्ण यह था कि युद्ध छेड़ने का समय, स्थान और तरीका पाक ने तय किया था। उद्देश्य था कश्मीर घाटी पर कब्जा। उसने सही निष्कर्ष निकाला था कि चीन से 1962 की हार के बाद भारतीय सेना का आधुनिकीकरण शुरू हो चुका है। साल-दो साल में यह अधिक शक्तिशाली सेना हो जानी थी। वे गलत नहीं थे। आइए देखें कि टेक्नोलॉजी और सैन्य सामग्री में पाक को जमीन, पानी व हवा में कैसी फौजी बढ़त हासिल थी :
-पाक के अमेरिका में बने पैटन टैंक उपमहाद्वीप में सर्वश्रेष्ठ थे। दलील दी सकती है कि भारत के ब्रिटेन में बने ‘सेंचुरिअन’ बराबरी के थे, लेकिन एक तो इनकी संख्या कम थी, पाकिस्तान के पैटन की तुलना में आधे। हमारे शेष टैंक द्वितीय विश्वयुद्ध के शरमन और हल्क फ्रेंच एएमएक्स थे। चिनाब में पाक के मुख्य हमले का मुकाबला करने वाली ब्रिगेड के पास तो एएमएक्स के दो स्क्वैड्रन ही थे। दूसरी बात, भारतीय टैंक रात में उपयोगी नहीं थे। पैटन टैंकों में यह खूबी थी। भारत सिर्फ बड़ी संख्या में इन्फैंट्री डिवीजन के मामले में बेहतर था। किंतु जैसा कि लेफ्टिनेंट जनरल हरबख्श सिंह ने ‘वॉर डिस्पैचेस’ में बताया है कि इनमें कई नए थे, जिन्हें 1962 के युद्ध के बाद गठित किया गया था। वे युद्ध के लिए पूरी तरह तैयार नहीं थे।
-पाक के पास बेहतर तोपखाना और बड़ी संख्या में उच्च क्षमता की अमेरिकी तोपें थीं। बड़े पैमाने पर संतुलन पाक के पक्ष में हो जाता था, जैसा सियालकोट सेक्टर में टैंक व इन्फैंट्री के बीच हुई खुली लड़ाई में साबित हुआ। हरबख्श सिंह ने यहां तक कहा है कि सैन्य उपकरणों और तोपखाने के इस्तेमाल की नीति का पाक ने बेहतर उपयोग किया था। भारतीय सेना का 75 फीसदी नुकसान पाक तोपखाने के कारण ही हुआ।
-हवा में एफ-86 सैबर तथा एफ-104 स्टार फाइटर पर लगी मिसाइलों से पाक हवाई फौज को श्रेष्ठता हासिल थी। भारतीय वायु सेना में मिग-21 का पहला स्क्वैड्रन शामिल किया जा रहा था और सिर्फ नौ विमान मिले थे। पायलटों को नए विमानों की ट्रेनिंग दी जा रही थी। फिर एफ-104 पूरी तरह और कुछ एफ-86 विमान भी रात में कार्रवाई करने में सक्षम थे। भारत के पास रात में कारगर लड़ाकू विमान नहीं थे। इसके कारण रात में पाक बमवर्षक भारतीय ठिकानों तक सुरक्षित पहुंच जाते, जबकि रात में हमारे बमवर्षक पाक हवाई फौज के निशाने पर रहते थे। सी-130 हर्क्यूलिस के रूप में पाक के पास बेहतरीन परिवहन बेड़ा था।
– नौसेना के मोर्चे पर भारत के पास बड़ा बेड़ा था, लेकिन अमेरिका से मिले गाज़ी के साथ पाक पनडुब्बी युग में पहुंच गया था। सोनार व पनडुब्बी का पता लगाने की हमारी क्षमता में खामियां थीं, इसलिए इस क्षेत्र में यह लड़ने के काबिल नहीं थी। एकमात्र विमान वाहक पोत आईएनएस विक्रांत बंदरगाह में था। यह सक्रिय होता भी तो इसका सीमित असर ही होता। ये सारी बातें दिमाग में रखकर अय्युब और भुट्टो ने युद्ध का फैसला लिया। उस साल कच्छ सेक्टर में भारतीय रक्षा ब्रिगेड के कमजोर प्रदर्शन से भी पाक का मुगालता बढ़ गया। वहां भारतीय वायुसेना ने लड़ने से परहेज रखा और पाक को गलतफहमी हो गई कि वह लड़ना ही नहीं चाहती। चूंकि यह 1962 के बाद का वक्त था तो पाक को लगा कि उसका वक्त आ गया है। फिर भी सबकुछ पाक की मर्जी मुताबिक क्यों नहीं हुआ? इन कारणों पर दोनों ओर के निष्पक्ष सैन्य इतिहासकार सहमत हैं :
-पाकिस्तानी कमांडरों का अहंकार और जीत की घोषणा जल्दी करने की दिली तमन्ना। खेमकरण में टैंकों से किया हमला इसका उदाहरण है,जो एक वक्त इतना खतरनाक लग रहा था कि जनरल जेएन चौधुरी व्यास नदी के पीछे नई रक्षा पंक्ति तक हटना चाहते थे (सौभाग्य से हरबख्श सिंह ने उन्हें ऐसा न करने के लिए प्रेरित किया)। यह होता तो पंजाब का ज्यादातर हिस्सा पाक के पास चला जाता। पाक की इस शानदार कार्रवाई से ही उसे सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा। 1 आर्मर्ड डिवीजन नष्ट होने के साथ ही मैदान में पाक की आक्रमण क्षमता काफी हद तक खत्म हो गई।
-भारत की बेहतर युद्ध नीति और टुकड़ियों के स्तर पर बख्तरबंद इकाई का बेहतर नेतृत्व। पहाड़ों में खासतौर पर रात की लड़ाइयों में भारत का बेहतर प्रदर्शन। भारत कश्मीर के पहाड़ी क्षेत्र में हावी रहा, जबकि छंब के मैदानों में इसे एक हिस्सा गंवाना पड़ा।
-पाक की अद्भुत सामरिक पहल, अमल के नाकारापन से बर्बाद हो गई। मसलन, 6 सितंबर की शाम को अग्रिम हवाई ठिकानों पर हमले करके इसने भारत को चौका दिया, खासतौर पर पठानकोट में, जहां अग्रिम मोर्चे के हमारे 10 विमान नष्ट कर दिए गए। किंतु आगे क्या करना है, यह उसे पता नहीं था। हलवारा और आदमपुर में कुछ नुकसान झेलने के बाद पाक हवाई फौज ने भारतीय हवाई ठिकानों पर दिन में हमले नहीं किए, जबकि युद्ध में वह तब तक हावी रही थी। कोई भी नौसेना युद्ध पर असर डालने लायक बड़ी नहीं थी। भारतीय नौसेना तो लड़ाई के लिए तैयार नहीं थी। पाक नौसेना ने द्वारका पर सांकेतिक हमला भर करके मौका गंवा दिया।
-कुल-मिलाकर भारतीय सैन्य बलों ने रक्षात्मक लड़ाई में फौलादी संकल्प व कुशलता दिखाई जैसा कि खेमकरण की लड़ाई में साबित हुआ। यह पाक के इस मिथक के बिल्कुल खिलाफ था कि ‘हिंदू’ सैन्य बल उसे रोक नहीं पाएंगे। रणनीतिक रूप से पाक ने बड़े हमले का वक्त चुनने में गलत अनुमान लगाया और मूर्खतापूर्ण ढंग से यह सोचा कि कश्मीर में उसकी भड़काऊ कार्रवाई का जवाब सिर्फ वहीं तक सीमित रहेगा। भारत ने जैसे ही पंजाब में मोर्चा खोला, इसे फौरन बचाव की मुद्रा में आना पड़ा।
सारे युद्ध गलत अनुमानों से शुरू होते हैं। 1965 का युद्ध पाक की गलतफहमी का नतीजा था। फैसला उसका था, जो तुलनात्मक सैन्य शक्ति के आकलन पर आधारित था। राजनीतिक-आर्थिक रूप से भी भारत संकट में था। इस युद्ध में सिर्फ पाक के रणनीतिक लक्ष्य थे और वह इन्हें हासिल करने में नाकाम रहा। इससे कुछ हद तक इस प्रश्न का जवाब मिलता है कि कौन युद्ध में जीता और कौन हारा? चूंकि पाक कोई उद्देश्य हासिल नहीं कर सका, निश्चित ही पराजय उसी की हुई है। किंतु जमीनी लड़ाइयों में हावी रहने के बावजूद सैन्य स्तर पर भारत युद्ध नहीं जीत सका। यह पाकिस्तान की सामरिक हार थी, लेकिन सैन्य स्तर पर गतिरोध की स्थिति रही।