नई दिल्ली में बौद्घिकों के चर्चित ठिकाने इंडिया इंटरनैशनल सेंटर (आईआईसी) के एक खचाखच भरे हॉल में बीते दिनों एक चकित कर देने वाला दृश्य उत्पन्न हुआ। पी. वी. नरसिंह राव की जीवनी के विमोचन के अवसर पर उसके लेखक विनय सीतापति ने उपस्थित पैनल से पूछा कि नरेंद्र मोदी राव से कौन से कौशल सीख सकते हैं? पैनल में मुझ समेत प्रताप भानु मेहता, सी राजा मोहन, के नटवर सिंह जैसे लोग शामिल थे।
इसकी शुरुआत करने में घबराहट होना लाजिमी था क्योंकि मौजूदा दौर में तो यह सुझाव देना भी गुस्ताखी होगी कि कोई गुण ऐसा भी है जो प्रधानमंत्री को किसी अन्य व्यक्ति से सीखना चाहिए। परंतु चूंकि खामोशी कोई विकल्प नहीं थी और प्रश्न को टाला नहीं जा सकता था इसलिए मैंने वहां उपस्थित श्रोता समूह से कुछ प्रश्न पूछे। मैंने कहा कि वर्ष 2014 की गर्मियों में मोदी नई उम्मीद के वादे पर जबरदस्त जनादेश के साथ चुनाव जीते थे। तो क्या जानकार श्रोताओं का यह समूह मुझे कुछ ऐसे लोगों के नाम बताएगा जो ऐसे मंत्रालय संभाल रहे हों जिनसे उम्मीद है। मैंने कृषि, स्वास्थ्य, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, ग्रामीण विकास, सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालयों का नाम लिया। उस भरे हुए हॉल में तकरीबन 500 प्रबुद्घ लोग बैठे हुए थे। वहां बमुश्किल दो प्रतिशत यानी करीब 10 हाथ यह बताने वालों के लिए उठे कि राधा मोहन सिंह कृषि मंत्री हैं। आश्चर्य नहीं कि सबसे कम लोग ग्रामीण विकास मंत्री बिरेंदर सिंह को जानते थे। इनकी संख्या दो थी। शेष यानी स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री हर्षवर्धन, सामाजिक न्याय मंत्री थावरचंद गहलोत (एक दलित प्रत्याशी जिनको कई बार अगले वर्ष प्रणव मुखर्जी का उत्तराधिकारी भी बताया जाता है।) के नाम जानने वालों का आंकड़ा इसके बीच था। अगर मैं श्रम एवं रोजगार मंत्री बंडारू दत्तात्रेय, जनजातीय मामलों के मंत्री जुएल ओरांव, खनन मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर आदि का नाम लेता तो भी इसमें कोई बेहतरी नहीं आती। दत्तात्रेय को तो रोहित वेमुला पत्र प्रकरण के चलते याद भी किया जाता है। राम विलास पासवान और उमा भारती को हर कोई जानता है लेकिन मोदी मंत्रिमंडल में उनकी क्या भूमिका है यह कोई नहीं जानता। याद रखिए उनके पास खाद्य एवं जल संसाधन मंत्रालय हैं।
जरा साफगोई से बात करते हैं। हमारे हाल के दिनों के मंत्रिमंडलों के अधिकांश मंत्रियों को कोई नहीं जानता। संप्रग जब सत्ता में था तब मैं अक्सर समाचार कक्ष में घूमते हुए प्रश्न किया करता था कि क्या कोई देश के जल संसाधन मंत्री को जानता है। बहुत कम लोगों को यह नाम पता होता था। संप्रग के स्वास्थ्य मंत्री का नाम भी आपको इसलिए याद होगा क्योंकि उनसे कई विवाद जुड़े थे। रामदास बनाम एम्स का मामला तो सबको याद है। गुलाम नबी आजाद कांग्रेस पार्टी के दिग्गज नेता भले हों लेकिन शायद ही किसी को याद होगा कि वह संप्रग के दूसरे कार्यकाल में पांच साल तक देश के स्वास्थ्य मंत्री रहे। संप्रग के दूसरे कार्यकाल में पांच साल में सात रेल मंत्री बने। परंतु यह भी याद रखिए संप्रग जितनी बुरी तरह हारकर सत्ता से बाहर हुआ वैसा दृश्य हालिया अतीत में दुर्लभ है।
स्वास्थ्य, कृषि, ग्रामीण विकास, सामाजिक न्याय, जल, रोजगार, खाद्य एवं तमाम अन्य विभाग हैं जिनसे हमारी उम्मीदें जुड़ी हैं लेकिन प्रश्न यह है कि क्या वे उम्मीदों पर खरे उतर सकते हैं? कृषि मंत्री जैविक खेती और गाय के गोबर और गोमूत्र के चमत्कारों से इतर बात नहीं करते। जल संसाधन विभाग के पास भी नए विचारों और बढिय़ा प्रदर्शन की क्षमता का घोर अभाव है। गत दो वर्षों में खराब मॉनसून के बीच हम ऐसा देख चुके हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय को देखकर आश्चर्य होता है कि कहीं वह आयुष मंत्रालय का हिस्सा तो नहीं। ग्रामीण विकास मंत्री अपने राज्य में सत्ता पर नजर गड़ाए हैं और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री दिल्ली में नेतृत्व छिनने (किरण बेदी के हाथों)की चोट भुलाने में लगे हैं। उनको स्वास्थ्य मंत्रालय से हटाए जाने का भी सदमा है।
मोदी सरकार उतनी बुरी भी नहीं है। चुनौतीपूर्ण वैश्विक माहौल में आर्थिक वृद्घि मजबूत बनी हुई है। सामाजिक समरसता या स्थिरता को कोई चुनौती नहीं है, बावजूद इसके कि कश्मीर में हालात थोड़े बिगड़े हैं। परंतु क्या सरकार वादों पर खरी है? विभिन्न राज्यों में हुए चुनावों के नतीजे और कुछ आसन्न चुनाव वाले राज्यों में आप की मजबूती बताती है कि ऐसा नहीं है। इसका दोष बहुत हद तक सरकार में प्रतिभाओं की कमी को दिया जा सकता है। जरा ध्यान दीजिए किन क्षेत्रों में बढिय़ा काम हो रहा है: राजमार्ग, रेलवे, बिजली, राजकोषीय अनुशासन और बैंकों का सफाई अभियान। इस काम को आप आसानी से इन मंत्रालयों को संभालने वालों की प्रतिभाओं से जोड़कर देख सकते हैं।
गठबंधन के बोझ से मुक्त होकर दो साल पहले मोदी सत्ता में आए तो व्यापक तौर पर यह उम्मीद बंधी कि वह अपनी सरकार में बेहतरीन प्रतिभाओं को शामिल करेंगे। उनकी राजनीतिक ताकत को देखते हुए लगा कि वह अपनी कैबिनेट और शीर्ष नौकरशाही में विशेषज्ञों (टेक्नोक्रेट) को शामिल करने के अलावा ‘बाहरी तंत्र’ से सशक्त प्रतिभाओं को लाकर उन्हें विशेष परियोजनाओं की कमान सौंपेंगे। सिवाय पुराने वैचारिक सोच से संबंधों को छोड़कर उनकी राह में कोई ऐसी बाधा नहीं थी, जो उपलब्ध बेहतरीन भारतीय प्रतिभाओं को अपने साथ जोडऩे से उन्हें रोक सके। हाल के दशकों में मोदी सरकार ने गैर-पार्टी प्रतिभाओं को साथ जोडऩे में सबसे ज्यादा हिचक दिखाई है। यहां तक कि तमाम दुविधाओं के बावजूद संप्रग सरकार दूसरे कार्यकाल में नंदन नीलेकणी को लाई और उन्हें आधार के लिए अधिकार दिए, जिसका असल उपयोग अब मोदी कर रहे हैं। मगर इस सरकार का नीलेकणी कौन है और उसके पास आधार की बराबरी वाला कौनसा विचार है? इंदिरा गांधी भी नियमित रूप से कारोबारी जगत की प्रतिभाओं को टोहती रहती थीं, हालांकि यह अलग मसला है कि उन्होंने उनका कितना बेहतर उपयोग किया। दूरसंचार में क्रांति के लिए राजीव गांधी सैम पित्रोदा को लाए। वाजपेयी के पास आर वी शाही के रूप में ऐसा बिजली सचिव था, जिनकी तैयार बुनियाद के अब बेहतर नतीजे देखने को मिल रहे हैं। यहां तक कि बेहद कम समय के लिए और सियासी रूप से कमजोर प्रधानमंत्री रहे वी पी सिंह भी राजीव गांधी के पाले से अरुण सिंह को खींचने में कामयाब रहे थे ताकि हमारे रक्षा संगठन का आधुनिकीकरण किया जा सके। उनकी बेहतरीन रिपोर्ट अभी तक प्रासंगिक है। आरोपों से घिरे नौकरशाह ‘विदेशी’ तत्त्वों के पहलू को लेकर अति-संवेदनशील हो जाते हैं और उनका अस्तित्व बचाए रखने के लिए नेता को अपनी ताकत का इस्तेमाल करना पड़ता है। रघुराम राजन के साथ ‘तंत्र’ की जो समस्याएं रहीं लेकिन इस परिप्रेक्ष्य में यह पूरी तरह नाकामी है।
चूंकि हमने नरसिंह राव के साथ शुरुआत की थी, जो संभवत: कार्यकाल पूरा करने वाले हमारे सबसे कमजोर और अलोकप्रिय प्रधानमंत्री रहे। उनके पास दमदार बहुमत भी नहीं था और उनके साथी ही उनके बैरी बने हुए थे, फिर भी हरसंभव बेहतरीन प्रतिभाएं जुटाने में वह बड़े दिलवाले साबित हुए। वह मनमोहन सिंह को लाए और उन्हें सीधे वित्त मंत्री बना दिया। मनमोहन सिंह के वित्त सचिव मोंटेक सिंह आहलूवालिया बने, जो आईएएस नहीं थे और उनकी उम्र भी पचास से कम थी। राव ने वाणिज्य मंत्रालय के लिए पी चिदंबरम को चुना और महत्त्वपूर्ण आंतरिक सुरक्षा विभाग का जिम्मा राजेश पायलट को सौंपा, जिन्हें ‘राजीव का शागिर्द’ समझा जाता था। इसका सिला क्या मिला, असल में इससे वह ऐसी विरासत छोड़ गए, जिसकी उनसे किसी को उम्मीद नहीं थी। यही एक गुण या कौशल है, जो मोदी राव से सीख सकते हैं। राव की तुलना में वह कहीं बड़े, चतुर और लोकप्रिय नेता हैं। उम्र भी उनके पक्ष में है, जो बेहद महत्त्वपूर्ण है क्योंकि हमारे तीन सबसे बुद्घिमान प्रधानमंत्री राव, वाजपेयी और मनमोहन को जब प्रधानमंत्री पद मिलना चाहिए था, उसके 10 साल बाद जाकर मिला और राजीव को यह 10 साल पहले कुछ ज्यादा ही जल्दी मिल गया। मोदी के पास नए और उम्मीदों से भरे भारत के विचार के साथ ही उन्हें मतदाताओं तक पहुंचाने की कला भी आती है। मगर अभी तक उसे मूर्त रूप देने के लिए उनके पास टीम तैयार नहीं है और जल्द ही भारतीयों की नई अधीर पीढ़ी इसे लेकर जवाब तलब कर सकती है, जिस पीढ़ी के लिए विचारधारा मायने नहीं रखती।