अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डॉनल्ड ट्रंप की जीत को दुनिया भर में व्याप्त प्रवृत्ति की ही पुष्टिï माना जा रहा है। यह प्रवृत्ति है दक्षिणपंथ का सत्ता में वापस आना, वाम का पराभव और साथ ही ढेर सारे उदार विचारों का भी जिनमें द्विपक्षीय स्वीकार्यता बढ़ी थी। अमेरिका में यह मुक्त बाजार, व्यापार और आव्रजन का मुद्दा था, यूरोप में राष्ट्रवाद का पराभव और भारत में धर्म पूरी तरह निजी चीज था और सत्ता में आने के बाद हर नेता हर समुदाय की बात करता था। लेकिन अब हालात बदल गए हैं।
विचारधारा के स्तर पर यह एकरेखीय है। भारत, ब्रिटेन (ब्रेक्सिट), अमेरिका, अर्जेंटीना और ब्राजील दक्षिणपंथी उभार की पुष्टि करते हैं। माना जा रहा है कि जल्दी ही यह लहर इटली, फ्रांस और शायद वेनेजुएला तक पहुंचेगी जहां शॉवेज के उत्तराधिकारी को बढ़ती मुद्रास्फीति के विरोध से निपटना पड़ रहा है। जैसा कि रुचिर शर्मा ने अपनी ताजातरीन पुस्तक ‘द राइज ऐंड फाल ऑफ नेशंस’ में लिखा है, दक्षिणी और लैटिन अमेरिका के अधिकांश देशों में झुकाव अब वाम से दक्षिण की ओर हो रहा है। कोलंबिया में जनमत संग्रह के जरिये एफएआरसी छापामारों के साथ शांति समझौते को नकार दिया गया। वे अपनी दक्षिणपंथी सरकार को ही पूर्णरूपेण दक्षिणपंथी नहीं पा रहे। पूर्वी देश जापान में शिंजो एबे की लोकप्रियता लगातार बढ़ती जा रही है। वहीं एशिया के पश्चिमी किनारे पर एर्डोगन की ताकत बढ़ रही है।
पुराने वाम किलों पर दक्षिणपंथी उभार हावी है और यहां तक कि मध्यमार्गी दक्षिणपंथ भी जोर पर है। लेकिन इस स्थिति में कनाडा में वाम-उदारवादी जस्टिन ट्रूडो के उभार और एशिया में ही फिलीपींस में वाम माने जाने वाले दुतेर्ते के उभार तथा दक्षिण कोरिया में दक्षिणपंथी शासन के प्रति बढ़ते असंतोष को किस तरह देखा जाय? उधर ग्रीस में समाजवादी सिप्रस का उदय हो रहा है जो सारे यूरोप के रुझान के उलट है। वर्ष 2014 की घटनाओं को याद कीजिए। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने आम चुनाव के तत्काल बाद महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड के चुनावों में जीत हासिल की थी जिससे इसी रुझान की पुष्टिï होती है। परंतु दिल्ली, बिहार, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और केरल में क्या हुआ? पहले दो राज्यों में भाजपा की जीत मानी जा रही थी लेकिन वह बुरी तरह परास्त हो गई। अगले दो में वह कोई खास असर छोडऩे में नाकाम रही। वहां वह संसदीय चुनावों मे मिले वोट भी दोबारा नहीं पा सकी। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस जीत गई और केरल में भाजपा का प्रदर्शन असरदार नहीं रहा। कांग्रेस गठबंधन जो खुद मध्यमार्गी वाम के करीब है हारा और वास्तविक वामपंथी दल जीते।
यह बहुत भ्रामक है। मतदाता आखिर क्या कह रहा है? जाहिर है वह बदलाव चाहता है लेकिन यह बदलाव पहले जैसा नहीं रहा जिसे हमें सत्ता विरोधी लहर कहते आए हैं। अगर ऐसा होता तो ब्रिटेन और कोलंबिया की दक्षिणपंथी सरकारें जनमत संग्रह में पराजित क्यों होतीं जबकि वहां वाम का उभार नहीं है। इसी प्रकार अगर दक्षिणपंथी उभार को रोकना संभव नहीं था तो दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की नई नवेली पार्टी इस कदर सफल कैसे रही और पंजाब में भी वह बड़ा जोखिम बनकर उभरी है और गोवा व गुजरात समेत कई ऐसे राज्यों में पांव पसार रही है जो स्थापित राजनीतिक दलों के गढ़ रहे हैं। इसके बाद ट्रंप ने तो मानो रिपब्लिकन पार्टी को अगवा ही कर लिया।
हमें सामान्य वैचारिक संरचना के परे जाकर इनके जवाब तलाश करने होंगे। सबसे पहले तो यह स्पष्ट है कि मतदाता केवल सरकार में बदलाव नहीं चाहते बल्कि वे स्थापित विचारों, आदर्शों और विचार प्रक्रिया में भी परिवर्तन के आकांक्षी हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि यह वाम है या दक्षिण या इसके उलट। मतदाता घोषणापत्र में पूरा बदलाव चाहता है और इसकी तीन वजह हैं। पहला, उसे लगता है कि वह जोखिम उठाने में सक्षम है इसलिए उसे कुछ नया आजमाना चाहिए। दूसरा, वृद्घि, वैश्वीकरण और अत्यधिक संपर्क की चौथाई सदी ने आकांक्षाओं को पर लगा दिए हैं। छोटे कस्बों और गांवों में रहने वाले लोग भी अब केवल बड़े शहरों में जाना भर नहीं चाहते हैं बल्कि वे चाहते हैं कि बड़े शहरों जैसा विकास और तेजी उन जगहों पर आए जहां वे रहते हैं। अंत में यह कि वे पुरानी राजनीति से ऊब हो जाते हैं और इस कुछ नया आजमाना चाहते हैं, नया विचार, नए नेता आदि।
इनमें राष्ट्रवाद का दबदबा है। लेकिन धर्म की तरह ही राष्ट्रवाद भी मनुष्य जाति के सबसे पुराने लगावों में से एक है और वह वापसी कर रहा है। चतुर नेताओं ने इसे भांप लिया है और ट्रंप इस सूची में नवीनतम हैं। वह अति लोकलुभावन और निरंकुश यहां तक कि आत्ममुग्ध नेता जो अपने बनाए नियमों पर जीता है बजाय कि पहले से स्थापित नियमों के, जो अपनी पार्टी तक के कायदों का ख्याल नहीं करता वह एक बड़ी ताकत बनकर उभर रहा है। एक बाहरी व्यक्ति जो एक बागी नेता भी है वह ऊब चुकी उपद्रवी जनता के लिए बदलाव की नई पसंद है।
जब अप्रैल-मई 2014 के चुनाव नतीजे सामने आए तब मैंने लिखा था कि यह नए युवा और उन मतदाताओं का चुनाव है जो विचारधारा से परे हैं। लेकिन इसकी एक तार्किक काट भी थी: आप उन हालात में ऐसा कैसे कह सकते हैं जबकि देश में पहली बार दक्षिणपंथ की सरकार पूर्ण बहुमत से आई है? उस वक्त उम्मीद की एक किरण के साथ यह जवाब था कि शायद भारत ने वैचारिक बदलाव के पक्ष में मतदान नहीं किया था बल्कि उसने कांग्रेस पार्टी के स्वार्थी और गरीबी की राजनीति के संरक्षण के खिलाफ विद्रोह किया था। इसके अतिरिक्त वह सत्ता के शीर्ष पर बैठे परिवार के पाखंड के प्रति भी मतदान था जो सीधे सत्ता पर काबिज नहीं था लेकिन शासन कर रहा था। किसी ने भी गौरक्षा, पाकिस्तान के साथ सामरिक प्रतिरोध के अंत या तीन तलाक के खिलाफ मतदान नहीं किया था। इनमें से कुछ उस वक्त भाजपा का एजेंडा भी नहीं था। अब हमारे पास वैश्विक रुझानों का परिणाम भी है।
लोग पुरानी वफादारियों से बाहर निकल रहे हैं। भारत जैसे देशों में युवा अतीत के कष्टï में डूबी राजनीति को पीछे छोड़कर भविष्य की आकांंक्षा के लिए मतदान कर रहे हैं। विकसित देशों में जहां आबादी उम्रदराज हो रही है वहां एक नई दिक्कत है: वहां मान्यता है कि समृद्घ और महान अतीत वैश्वीकरण और वृद्घि की भेंट चढ़ गया है। इनके अधिकांश लाभ उन लोगों को मिले हैं जो इसके काबिल नहीं थे। इसके लिए खासतौर पर प्रवासियों को जिम्मेदार माना गया। दोनों ही मामलों में प्रतिक्रिया एक जैसी ही रही, यानी आमूलचूल बदलाव और पुरानी स्थापना से जुड़ी हर चीज को खारिज करना। यही वजह है कि मोदी भाजपा पर उस प्रकार काबिज हैं जैसा पहले कोई और नेता नहीं रहा, केजरीवाल कांग्रेस के वोट बैंक का सफाया कर रहे हैं और ट्रंप के मतदाता रोमांचित हैं कि उन्होंने रिपब्लिकन प्रतिष्ठान को अपने डेमोक्रेटिक प्रतिद्वंद्वी की तुलना में कहीं अधिक बुरी तरह फटकारा हैेे।