ओलिंपिक खेलों पर हम भारतीय आमतौर पर दो तरह के विचार रखते हैं। पहला, एक प्रशंसक का नजरिया और ऐसा नजरिया रखने वालों की इस समय बाढ़ आई हुई है। ये लोग मानते हैं कि भारतीय प्रतिस्पर्धी तमाम कमियों के बावजूद अपनी ओर से बेहतर प्रयास कर रहे हैं और अगर वे कुछ पदक भी जीत कर ला सके तो यह बहुत बेहतर प्रदर्शन कहलाएगा। दूसरा धड़ा शोभा डे की तरह सोचने वालों का है। फिलहाल यह तबका अल्पसंख्या में है और खामोश है। इनका मानना है कि ओलिंपिक खेल भारतीयों के लिए केवल सेल्फी खिंचाने और मजे करने के अवसर हैं। ऐसे में अपना धन खर्च करने और भावुक होने का क्या अर्थ है और हम क्यों अधिकारियों और खिलाडिय़ों के चलते अपमानित हों? शोभा डे के सार्वजनिक रूप से अपनी बात कह देने के बाद जो गुस्सा उभरा है, उस परिदृश्य में अगर मैं कहूं कि दोनों सही हैं तो आप चकित होंगे। मैं यह कहकर मामला और जटिल बना सकता हूं कि दोनों गलत भी हैं।
दोनों सही क्यों हैं, इसे समझना आसान है। किसी भी देश के लिए विश्व खेलों के सबसे बड़े मंच पर सम्मान की चाह एकदम स्वाभाविक है और विफल होने पर उसकी निराशा भी जायज है। दोनों गलत क्यों हैं, यह समझना थोड़ा जटिल है खासतौर पर मौजूदा चरम राष्ट्रवादी समय में। आशावाद और निराशावाद दोनो की कमियां सफलता को पदक के रूप में परिभाषित करने में छिपी हुई हैं। मैं यह आलेख उस दिन लिख रहा हूं जब रियो में एथलेटिक्स की स्पर्धाएं शुरू हो रही हैं। यह बात मुझे गंभीर कर रही है कि ओलिंपिक अब तक उस स्तर का नहीं नजर आया है जैसा लंदन में पिछला ओलिंपिक था। मैं उम्मीद करता हूं कि ऐसा न हो लेकिन यह संभव है कि भारतीय टीम बिना किसी पदक के ही वापस आ जाए। गौरतलब है कि हमने 118 सदस्यों के साथ अब तक का सबसे बड़ा दल खेलों में भेजा है। लेकिन ओलिंपिक में कोई भी देश शून्य से शिखर की दूरी तय नहीं करता। 96 वर्ष के अपने इतिहास में हम एकल मुकाबलों में महज एक स्वर्ण, पांच रजत और नौ कांस्य पदक ही जीत सके हैं।
अब अगर कोई कहे कि इस हालात से हम सीधे पदक तालिका में शीर्ष 25 में आ जाएं (पेइचिंग में हम अपने सर्वोच्च 50वें स्थान पर थे) वह भी इसलिए ंकि हम टेस्ट क्रिकेट और एकदिवसीय क्रिकेट में शीर्ष टीमों में हैं तो क्या यह संभव है? बीते कुछ सालों में हमारा देश सबसे तेज विकसित होती अर्थव्यवस्था वाला देश रहा है, हम संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट के दावेदार हैं और मिसाइल तकनीक नियंत्रण व्यवस्था के स्थायी सदस्य भी। परंतु यह सब भ्रम है, ठीक उस दावे की तरह कि हम आर्थिक विकास में चीन को पछाड़ चुके हैं। हकीकत में श्रीलंका का प्रति व्यक्ति जीडीपी हमसे 50 प्रतिशत अधिक है जबकि वह देश 25 साल तक गृहयुद्घ का शिकार रहा है। यह आशावाद ही है कि हमारी वृद्घि दर बढ़ रही है और समय के साथ हम उन देशों के साथ अंतर कम कर पाएंगे जो हमसे आगे हैं। खेलों के क्षेत्र में हमारा प्रदर्शन और तेजी से सुधरना चाहिए।
यहां भी हम अंतर कम कर सकते हैं लेकिन दुनिया को पीछे नहीं छोड़ सकते। ओलिंपिक में पदक जीतना फिल्मों जैसा आसान नहीं है जहां अनुष्का के प्यार में बंधे सलमान सुल्तान फिल्म में 30 की उम्र में कुश्ती को अपनाते हैं और स्वर्ण पदकों की झड़ी लगा देते हैं। हकीकत में एक पहलवान को वर्षों नहीं बल्कि पूरा दशक लग जाता है तब कहीं जाकर वह ओलिंपिक के लिए अहर्ता हासिल कर पाता है। नरसिंह यादव का उदाहरण लीजिए जिन्हें एकदम आखिर में विश्व चैंपियनशिप में कांस्य पदक जीतने के बाद ओलिंपिक में शामिल होने का मौका मिला। एथलेटिक्स की बात करें तो भारत के अधिकांश खिलाडिय़ों में शीर्ष 25 में आने का माद्दा भी नहीं है।
हॉकी में हमें ओलिंपिक में शामिल होने के लिए कड़े क्वालिफिकेशन टूर्नामेंट में जीत हासिल करनी पड़ी। इससे पता चलता है कि क्यों पेइचिंग में हम नजर नहीं आए और पाकिस्तान रियो जा तक नहीं पाया। रियो में 118 सदस्यीय दल का मतलब है, भारत ने अपने स्तर में सुधार किया है। न केवल हॉकी, कुश्ती, बॉक्सिंग और शूटिंग जैसी अपनी पारंपरिक ताकत में बल्कि तीरंदाजी और यहां तक कि जिमनास्टिक तक में। एक महिला जिमनास्ट का ओलिंपिक खेलना और स्पर्धा के फाइनल में पहुंचना एक ऐसे देश के लिए बड़ी उपलब्धि है जहां 25 साल की उम्र के अधिकांश लोग बिना घुटना मोड़े अपने पैर का अंगूठा तक नहीं छू पाते। केवल दो तैराकों को जिन्हें ‘बुलावा’ मिला, उन्हें छोड़ दिया जाए तो बाकी क्वालिफाई हुए हैं और अब अतीत वाला वह चलन नहीं रह गया कि घरेलू प्रशिक्षक आपके प्रदर्शन को तय करे। अब यह प्रक्रिया ज्यादा सख्त नियमन और नियंत्रण वाली है जहां डोपिंग पर सख्ती है। किसी भी देश में अचानक से विश्व विजेता पैदा नहीं हो सकते जब तक कि वह शीर्ष 50, शीर्ष 25 और फिर शीर्ष 10 में नहीं आ जाता। सोल, 1988 तक शीर्ष 25 में भारतीयों की तादाद इकाई अंक में थी। आज यह 100 से ज्यादा है। सबसे ज्यादा तादाद कुश्ती और मुक्केबाजी सरीखे और निशानेबाजी जैसे खेलों में ही है। कम से कम 30 भारतीय खिलाड़ी अपनी खेल विधाओं में शीर्ष 10 में हैं और साइना नेहवाल और हॉकी टीम तो शीर्ष 5 में भी शुमार हैं।
फिर भी पदक की गारंटी नहीं है। हमारे पास कोई माइकल फेल्प्स नहीं है लेकिन यह भी तथ्य है कि अपनी किस्म के वह दुनिया में इकलौते हैं। सवाल है कि क्यों विरले भारतीय ही तैराकी में जाते हैं। इतनी बड़ी खाई को देखते हुए पदक जीतने की कुछ क्षीण उम्मीदें बच जाती हैं। एक तो यही कि मैरी कॉम या साइना नेहवाल जैसे विलक्षण प्रतिभाशाली खिलाड़ी उभरकर आएं। या फिर कोई संघ या प्रतिबद्घ प्रशिक्षक हॉकी या कुश्ती-मुक्केबाजी जैसे खेलों में अपेक्षाकृत कम वजन वाली श्रेणियों में सुशील, विजेंदर और योगेश्वर जैसी प्रतिभाओं को निखारें। या फिर अभिनव बिंद्रा जैसे निजी प्रयासों या राज्यवर्धन सिंह राठौड़ के रूप में संस्थागत कोशिशें रंग लाएं। ऐसी प्रतिभाओं के दम पर किसी भी तरह के नाटकीय नतीजों की उम्मीद करना बहुत महत्त्वाकांक्षी है। मगर जैसे 15 सालों के दौरान सुधारों ने हमारी आर्थिक वृद्घि में सुधार किया है, उस तरह की प्रगति की उम्मीद करना फंतासी होगा।
तथ्य यही है कि उपमहाद्वीपीय जीवन शैली, शारीरिक संरचना और सदियों से कार्बोहाईड्रेट की अधिकता वाला भोजन हमें नैसर्गिक खिलाड़ी नहीं बनाता। मगर यही कड़वा सच है कि जो बांग्लादेश क्रिकेट में ताकत के रूप में उभर रहा है, वह दुनिया में इतनी बड़ी आबादी वाला इकलौता देश है, जिसने आज तक कोई ओलिंपिक पदक नहीं जीता। पाकिस्तान के खाते में भी सिर्फ दो ही पदक हैं। आप दक्षिण एशियाई स्तर पर हंस सकते हैं लेकिन समान कद काठी और नजरिये के साथ भारत ने बाकियों को सभी पैमानों पर काफी पीछे छोड़ दिया है। ऐसा इसके बावजूद कि सैन्य बलों से ट्रैक एवं फील्ड स्पर्धाओं में वैसी प्रतिभाएं मिलना लगभग बंद हो गईं, जिसके लिए अतीत में वे मशहूर रहे हैं। अब सैन्य बलों में भी शारीरिक दमखम वाले खेलों की तुलना में गोल्फ ज्यादा लुभा रहा है। एक और बात कि इतनी बड़ी आबादी का खेलों में उत्कृष्टïता से कोई लेना देना नहीं। यह संस्कृति, परंपरा और आदर्शों से भी जुड़ा है। हरियाणा की आबादी देश की कुल आबादी के 2 फीसदी से भी कम है लेकिन देश के ओलिंपिक पदकों में से तकरीबन दो तिहाई इस राज्य की देन हैं और तमाम बाधाओं के बावजूद बहुत छोटी सी आबादी वाले मणिपुर ने हॉकी, मुक्केबाजी, महिला भारोत्तोलन और तीरंदाजी में तमाम नायाब प्रतिभाएं दी हैं। केरल भी परंपरागत रूप से ताकतवर रहा है। मगर हरियाणा से तीन गुना ज्यादा और केरल से लगभग दोगुनी और मणिपुर की तुलना में 20 गुनी आबादी वाला गुजरात एक अदद क्वालिफायर देने को भी तरस रहा है।
चलिए, अभी भी रियो से कुछ पदकों की उम्मीद और दुआ करते हैं। लेकिन अगर ये पदक नहीं आते तो भी सब कुछ खत्म नहीं होगा। दुनिया के शीर्ष 25 में 100 से ज्यादा खिलाडिय़ों की मौजूदगी के साथ हम तरक्की की राह पर हैं। पिछले एशियाड खेलों में 11 स्वर्ण सहित 57 पदकों के साथ प्रदर्शन शानदार रहा। अगला लक्ष्य एशिया में उत्तर कोरिया, थाईलैंड, कजाकस्तान और ईरान को पछाड़कर चौथे पायदान पर काबिज होने का तय किया जाना चाहिए। यह महत्त्वाकांक्षी होने के बावजूद ज्यादा वास्तविक लगता है।