शीर्षक में गुलजार साहेब की पंक्तियों से छेड़-छाड़ के लिए माफी, लेकिन नरेंद्र मोदी की विदेश नीति में भारी तब्दीली इससे बेहतर ढंग से नहीं बताई जा सकती है। पिछले हफ्ते दिल्ली आईआईटी में मेरे संचालन में हुए संवाद में अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अमेरिका के कैपिटल हिल में इस्तेमाल जुमले का उल्लेख किया। केरी ने उसे दोहराते हुए कहा कि भारत और अमेरिका ने इतिहास की हिचकिचाहट से पिंड छुड़ा लिया है।
सबूत पाने के लिए उन्हें ज्यादा दूर नहीं जाना पड़ता कि न सिर्फ झिझक दूर हुई है बल्कि इतिहास के पाखंडों से भी मुक्ति पा ली गई है। कैम्पस से बाहर थोड़ी चहलकदमी करते तो वे दिल्ली के बाहरी रिंग रोड के उस हिस्से में पहुंच जाते, जिसे गमाल अब्देल नासेर का नाम दिया गया है। शायद दुनिया में यह एकमात्र सड़क है, जिसे शीत युद्ध/ गुटनिरपेक्षता के वर्षों के मिस्र के तानाशाह का नाम दिया गया है, जबकि उनके अपने देश ने उनकी विरासत पूरी तरह खारिज कर दी है। उसी शाम केरी ने रहस्यमय तरीके से दिल्ली में अपना पड़ाव दो दिन और बढ़ा दिया, जिस पर खूब अटकलें लगाई गईं। अगले दिन एक प्रमुख कारण जाहिर हुआ। केरी मिस्र के राष्ट्रपति अब्देल फतह अल-सीसी से मिलना चाहते थे,जो औपचारिक यात्रा पर दिल्ली आ रहे थे। इससे भारत की एेतिहासिक हिचकिचाहट और पाखंडों का अनूठा घालमेल रेखांकित हुआ। शीत युद्ध 25 साल पहले खत्म हुआ, एक ध्रुवीय विश्व उभरा, फिर इस ध्रुव की चुंबकीयता कम हुई, दूसरा इसे परेशान करने के लिए बढ़ा। नतीजे में और भी अस्पष्ट-सा वैश्विक सत्ता संतुलन वजूद में आया। क्यूबा, ईरान और अमेरिका ने पुरानी शत्रुताएं भुला दीं। भारत असमंजस में ही रहा। नई स्थिति से एक हिस्सा तो गर्मजोशी से मिला, जबकि दूसरा हिस्सा भूतकाल मंे अटका रहा। यह उस बल्लेबाज जैसी ही स्थिति थी, जो फ्रंट फुट पर आगे बढ़कर मारना चाहता है, लेकिन पिछला पैर क्रीज से उठाने को इच्छुक नहीं है। केरी का सीसी से मिलने के लिए दिल्ली में रुकना और दोनों की नरेंद्र मोदी के भारत द्वारा मेजबानी इन हिचकिचाहटों, पाखंडों और बौद्धिक सुस्ती का असाधारण प्रदर्शन था।
बर्लिन की दीवार ढहने के बाद तीन महत्वपूर्ण प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव, अटलबिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह ने माना था कि पुरानी उदासीनता को झटक देने की जरूरत है। इनमें से प्रत्येक ने अपने भिन्न तरीकों से और अपनी-अपनी परिस्थिितयों के अनुरूप ऐसा करने का प्रयत्न किया, लेकिन प्रत्येक मौके पर पाखंड की बजाय हिचकिचाहट ने उन्हें रोक दिया। मोदी ने उस भूतकाल को फेंक दिया है और वह भी पूरे दुस्साहस के साथ। अमेरिकी कांग्रेस में दिए अपने भाषण में मोदी ‘अपरिहार्य’ जैसे विशेषण का उपयोग कर रणनीतिक भागीदारी की परिभाषा को अगले स्तर पर ले गए और इस भागीदारी को आम रणनीतिक स्तर पर रखने की बजाय प्रतिरक्षा, सैन्य और सुरक्षा पर आधारित रखा। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि उन्होंने यह विचार रखा कि भारत, अमेरिका का सबसे अपरिहार्य रक्षा व सुरक्षा भागीदार है। जब हमारे प्रधानमंत्री भारत को अमेरिका के ऐसे रणनीतिक सहयोगी के रूप में प्रस्तुत करते हैं जिसके बिना इस क्षेत्र में अमेिरका का काम नहीं चल सकता तो कहने की जरूरत नहीं कि यह किताबी राजनयन नहीं बल्कि आगे की ओर उठाया गया कदम है।
गौर करें कि गुटनिरपेक्ष आंदोलन (नाम) के गठन के बाद से यह पहला वर्ष होगा, जब भारतीय प्रधानमंत्री इसमें मौजूद नहीं होंगे। चौधरी चरण सिंह के प्रशंसकों और वंशजों से माफी के साथ कहना होगा कि 1979 की उनकी अल्पावधि सरकार उन्हें वास्तविक प्रधानमंत्री का दर्जा नहीं देती और यदि उस वर्ष वे ‘नाम’ सम्मेलन में नहीं गए तो इसके पीछे तब के राजनीतिक कारण थे। तीस साल में पूर्ण बहुमत हासिल करने वाले पहले प्रधानमंत्री मोदी जब ऐसा करते हैं तो वह एक वक्तव्य होता है, खासतौर पर तब जब वे विदेश यात्रा के इतने शौकीन हैं।
आपको यह बदलाव चीन, इस्लामी जगत और पाकिस्तान के प्रति उनके रवैये में भी दिखता है। चाहे अभी सफल नहीं हुए हैं, लेकिन उनके प्रयास चीन के साथ संबंधों को पूरी तरह लेन-देन के आधार पर ढालने के हैं। अापको हमारे बाजार चाहिए, हमें आपका सस्ता सामान चाहिए, तो व्यापार संतुलन के भीतर अपने विशाल फायदे का लुत्फ उठाइए। आपको हमारे बाजार चाहिए तो कम से कम वहां तो नाव को झटका मत दीजिए। लेकिन जब चीन एनएसजी, मसूद आदि जैसे झटके देता है तो वे चीन में बने लो टेक, लो स्किल वाले सामान के आयात पर हमला करके स्ट्रीट-फाइटर जैसी प्रतिक्रिया देते हैं। गौर करें कि पिछले हफ्ते उन्होंने भारतीयों से मिट्टी की बनी मूर्तियों के प्रति परंपरागत प्यार व प्रतिबद्धता की ओर लौटने का आह्वान किया। इसमें यह रेखांकित करने की जरूरत नहीं है : चीन से आने वाले भड़कीले रंगों की प्लास्टिक मूर्तियों की आराधना करना घटिया बात है। इसी तरह सुन्नी व शिया सहित पूरे इस्लामी जगत से द्विपक्षीय संबंधों के लिए वे व्यक्तिगत व राष्ट्रीय दोनों हैसियतों का इस्तेमाल कर रहे हैं। एक ऐसे वक्त जब अमेरिका से यूरोप व चीन तक और यहां तक कि सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात कट्टरपंथी इस्लाम से तंग आ चुके हैं और आईएसआईएस का विस्तार रोकने में ईरान की प्रमुख भूमिका देखते हुए मोदी के लिए पूरी गुंजाइश है।
यही रवैया पाकिस्तान के प्रति नई नीति और पाक अधिकृत कश्मीर, गिलगित-बाल्तिस्तान और बलूचिस्तान के जिक्र की वजह है। कश्मीर पर सावधानी बरतने की 25 साल पुरानी नीति को डम्प कर दिया गया है, खासतौर पर तब जब पाकिस्तान अलग-थलग पड़ गया है। अपने ही नागरिकों के खिलाफ एफ-16 और तोपखाने के इस्तेमाल के कारण कश्मीर में मानवाधिकार हनन को लेकर भारत से सवाल करने का पाक को नैतिक हक नहीं है। इसे इस तरह से देखें : पाकिस्तान चाहे 22 की बजाय 100 लोगों को दुनियाभर में भेजकर कहे कि भारत के साथ उसकी कश्मीर समस्या है। दूसरी तरफ भारत इसका यह कहकर जवाब देगा कि पाकिस्तान के साथ हर देश को आतंकवाद की समस्या है। पाकिस्तानी दलील वहीं खत्म हो जाती है। इससे कश्मीर/पाकिस्तान पर निरंतरता से हटने का स्पष्टीकरण मिल जाता है।