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Wednesday, November 6, 2024
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देश में आपातकाल की याद दिलाता माहौल

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वैकल्पिक इतिहासों के इस दौर में क्या आपातकाल की पटकथा लिखना संभव है? वह स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे अंधकारमय वक्त था। कई लोगों ने उसका प्रतिकार किया था। इसमें पत्रकारिता (किसी ने मीडिया शब्द का प्रयोग नहीं किया) और न्यायपालिका भी शामिल थे। इससे क्रोध की एक ऐसी लहर पैदा हुई जिसने इंदिरा गांधी, उनके बेटे संजय गांधी और उनके तमाम चाटुकारों का सफाया कर दिया। कहा जा सकता है कि वे इतिहास के कूड़ेदान में समा गए। प्रधानमंत्री प्राय: आपातकाल लागू करना चाहते हैं, हमें ऐसी किसी घटना के दोहराव को लेकर चेताते भी हैं। उन्होंने इस सप्ताह भी ऐसा किया। रामनाथ गोयनका उत्कृष्ट पत्रकारिता पुरस्कार समारोह में भी उन्होंने ऐसा किया। रामनाथ गोयनका आपातकाल में पत्रकारिता के प्रतिरोध के प्रतीक रहे हैं। प्रधानमंत्री की चेतावनी बेहतर है क्योंकि आपातकाल भले ही 40 वर्ष पहले समाप्त हो गया हो लेकिन अधिनायकवाद की वापसी का खतरा बना रहा। ध्यान दीजिए कि यह भाषण कमोबेश उसी वक्त आया है जब सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने एनडीटीवी के हिंदी चैनल पर एक दिन का प्रतिबंध लगाने की घोषणा की। चैनल को यह सजा पठानकोट हमले के वक्त आचरण संहिता का पालन नहीं करने के लिए दी गई।

यहां दो बातें स्वीकार करनी होंगी। भाषण और प्रतिबंध के आदेश का लगभग साथ होना महज संयोग है। हां, मंत्रालय को एक बड़े समाचार माध्यम की सेंसरशिप का ऐसा आदेश जारी करने के बजाय कुछ और सोचना चाहिए था। इससे पहले आपातकाल के दौर में विद्याचरण शुक्ल के मंत्रित्व में भी ऐसी घटना हुई थी। यह घटना उस शाम घटी जब भारतीय पत्रकारिता के साहस का उत्सव मनाया जा रहा था। जिस दिन प्रधानमंत्री अपने भाषण में कह रहे थे कि आपातकाल जैसी कोई घटना दोबारा नहीं घटनी चाहिए, उसी दिन सम्मानित संस्था एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया (ईजीआई) ने एनडीटीवी पर प्रतिबंध की निंदा की। उसने इसकी तुलना आपातकाल से की। मैं ईजीआई को सम्मानित दो वजह से कह रहा हूं। पहली, बीतते वर्षों के दौरान अखबारों के मालिक संपादक की भूमिका में आ गए हैं या फिर वे कमजोर संपादक चाहते हैं। ऐसे में गिल्ड में ऐसे पुराने सदस्य रह गए हैं जो शायद अक्सर मिलते भी नहीं। दूसरी बात, अतीत में ईजीआई ने विरोध के समय भी जिस भाषा का इस्तेमाल किया वह पुराने जमाने के संपादकीय लेखों जैसी थी: संयमित, शालीन और आकलित। लेकिन ताजातरीन वक्तव्य अत्यंत तीखा और विस्फोटक है।

लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी ऐतिहासिक टिप्पणी में कहा था कि जब भारतीय प्रेस से झुकने को कहा गया तो वह रेंगने लगी। दुखद बात यह है कि गोयना के एक्सप्रेस, ईरानी के स्टेट्समैन और सबसे बहादुर राजमोहन गांधी द्वारा निकाली जाने वाली छोटी पत्रिका हिम्मत को छोड़ दिया जाए भारतीय प्रेस ने बहुत कम अवसरों पर कोई प्रतिरोध दिखाया है। बांग्लादेश विजय की आभा कम होने के साथ ही राष्ट्रीय प्रेस के साथ इंदिरा गांधी की शत्रुता हमले में बदल गई। उन्होंने उसे जूट प्रेस (कुछ मीडिया मालिक जूट कारोबारी थे) और झूठ प्रेस तक कहा। इस बीच महंगाई दर 25 फीसदी का स्तर पार कर गई थी और सन 1974 में पहले पोकरण विस्फोट के बावजूद जन भावनाएं संभल नहीं रही थीं। आपातकाल के दौरान में पहला बड़ा संपादकीय नाम थे बी जी वर्गीज।

सितंबर 1975 में उन्हें निकाले जाने के एक साल पहले से उन पर नजर थी। उन्होंने आपातकाल लागू होने के तीन महीने पहले एक संपादकीय लेख लिखा था: ‘कंचनजंघा हम आ रहे हैं।’ यह सिक्किम के विलय से संबंधित था। उनको तत्काल राष्ट्रविरोधी घोषित कर दिया गया। रोचक बात यह है कि वर्गीज के अधिकांश समकक्ष उनके बचाव में ठोस रूप में सामने नहीं आए। अभिव्यक्ति की आजादी की बात ठीक है लेकिन क्या सर्वेाच्च राष्ट्र हित में सिक्किम के विलय पर सवाल उठाया जाना था? उनके अखबार के पत्रकार इसका अपवाद थे। एनडीटीवी पर प्रतिबंध के मामले में भी आप ऐसा ही महसूस कर सकते हैं। गिल्ड और प्रिंट मीडिया का अधिकांश हिस्सा जिसे पहले प्रेस कहा जाता था वह विरोध करेगा लेकिन कई रसूखदार टीवी चैनल ऐसा नहीं करेंगे। यहां फिर राष्ट्रहित की दलील दी जाएगी। यह वही टीआरपी बटोरू अतिराष्ट्रवादी-दंभ है जिसने इनको भोपाल मुठभेड़ की कहानी की उपेक्षा करने को मजबूर किया। उनमें इसे पूर्व नियोजित ठंडे दिमाग से की गई हत्याएं कहने का तो साहस ही नहीं है जबकि एक निष्पक्ष जांच में ऐसा कुछ ही निकल सकता है। नियंत्रण रेखा पर जवान रोज जान गंवा रहे हैं और उसकी कवरेज पहले की तुलना में एकतरफा होती जा रही है। हम यह मानते हैं कि मोदी सरकार के पास एक नया सिद्घांत है लेकिन हम इसे इतना उपयोगी भी नहीं मानते कि उसके गुणों पर बहस की जाए। सामरिक प्रतिरोध का सिद्घांत जिसे पिछली सरकारों ने अपनाया, उसकी जगह मोदी-डोभाल सिद्घांत ने ले ली है। इस पर बहस के दौरान इस पर सवाल उठाने की बात तो भूल ही जाइए, वह राष्ट्रहित में नहीं है। तथ्य यह है कि श्रोता, जनता और बाजार को भी इससे मतलब नहीं है। इसका खुलासा युद्घोन्मादी चैनलों तथा अन्य तथ्यात्मक और प्रश्न करने वाले चैनलों की रेटिंग से भी होता है।

इंदिरा गांधी ने भी आपातकाल के दौर में अतिराष्ट्रवाद का इस्तेमाल किया और बाद में उसे उचित ठहराया। पड़ोस में शेख मुजीबुररहमान की हत्या और चिली में सल्वाडोर अलेंद को मारे जाने को इस बात का प्रमाण बताया गया कि जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में विदेशी हाथ है। इसे दमन को उचित ठहराने के लिए इस्तेमाल किया गया। यह तब हुआ जब भारत ने पाकिस्तान को दो टुकड़े किया ही था, नक्सल आंदोलन को नष्टï किया था और सन 1947 के बाद देश के समक्ष बाहरी या आंतरिक खतरे की आशंका न्यूनतम थी। उस वक्त राष्ट्रवादी उन्माद को बड़ी चालाकी से छद्म समाजवाद में मिलाया जा रहा था। आपातकाल के कुख्यात नारों को याद कीजिए जो हमारी बसों पर लिखे रहते थे। मेरा पसंदीदा नारा था ‘अफवाह फैलाने वालों से सावधान रहें।’ साफ शब्दों में कहें तो इसका तात्पर्य संदेशवाहक को निपटाने से था।

क्या चार दशक पहले भारत ने इसे स्वीकार कर लिया था? या उसने प्रतिरोध किया और अपनी आजादी बहाल की। इतिहास बताता है कि इनमें से पहली बात सही है। लेकिन यह भी कहानी का एक हिस्सा ही है। तथ्य यह है कि जब तक आपातकाल में जबरन बंध्याकरण और ऐसी ही अन्य बातों ने श्रेष्ठिï वर्ग को नाराज नहीं किया था तब तक बुर्जुआ और मध्य वर्ग को थोड़ी बहुत आजादी गंवाने का कोई मलाल नहीं था। बशर्ते कि बदले में ट्रेनें समय पर चल रही थीं। यह बहस का बिंदु हो सकता है लेकिन सन 1977 के चुनावी नतीजे आखिर क्या संकेत करते हैं? उन चुनावों में हिंदी प्रदेश में जहां बंध्याकरण जैसी योजनाएं चलीं वहां इंदिरा गांधी का सूपड़ा साफ हो गया जबकि विंध्य के दक्षिण में जहां यह सब नहीं हुआ वहां उनको स्पष्टï जीत मिली।

यह बहुत चलताऊ टिप्पणी होगी कि बुर्जुआ और मध्य वर्ग को आजादी से कोई लेनादेना नहीं। दरअसल वे हमेशा अपने नफा-नुकसान का आकलन करते रहते हैं। उस दृष्टिï से देखा जाए तो 40 साल में हम नहीं बदले हैं। सन् 1975-77 में जब प्रेस को खामोश किया गया, नागरिक समाज पर हमला किया गया और गरीबों पर जुल्म किए गए तब दोषियों के सहभागी थे। उस दौर को इस नारे से बेहतर भला कौन उजागर करेगा: ‘नसबंदी के तीन दलाल, इंदिरा संजय, बंसीलाल।’ अब मीडिया पर फिर हमला हुआ है, बेशर्मी से मुठभेड़ की जा रही हैं और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की सरकारी परिभाषा थोपी जा रही है और हम भी अतीत की ही अपनी भूमिका दोबारा निभा रहे हैं।

अब खतरे बड़े हैं। एक तो बाहरी शत्रु सामने है, दूसरा मजबूत अर्थव्यवस्था अपने साथ विजयोल्लास लाती है। तीसरा आज अधिकांश स्थापित सामाजिक-राजनीतिक ताकतों ने अपनी मूल आस्था गंवा दी है और वे अपनी राजनीति टीआरपी और जनमत प्रबंधन के सहारे कर रहे हैं। आज देश में इकलौता संसक्त, स्पष्ट सोच वाला राष्ट्रीय सामाजिक-राजनीतिक संगठन केवल एक ही है आरएसएस। सन् 1975-77 में उसने आपातकाल से जंग लड़ी थी आज वह सत्ता प्रतिष्ठान का नेतृत्व कर रहा है।

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