विश्व आर्थिक मंच का ध्येय वाक्य है, ‘विश्व की हालत में सुधार करने को समर्पित।’ खुशनुमा दौर में यह आशावाद से परिपूर्ण लगेगा। अब जहां दावोस में सर्दियों का एक और शिखर सम्मेलन पूर्णता की ओर बढ़ गया है, वह खुशनुमा दौर का साक्षी नहीं बना है और निश्चित रूप से उस संस्थान के लिए तो बिलकुल भी नहीं, जिसे वैश्वीकरण के प्रमुख इंजन के तौर पर देखा जाता है, जिसकी उसके हिमायती और विरोधी बराबर कद्र करते हैं। दुनिया भर में वैश्वीकरण हमलों की जद में है और यह अमूमन विरोधियों मसलन वामपंथी और वाम विचारों की ओर झुकाव रखने वाले कार्यकर्ताओं के तबके की ओर से नहीं बल्कि महान लोकतंत्रों में सबसे संपन्न और शक्तिशाली चुने हुए लोगों की ओर से भी हो रहा है।
ऐसे में चाल्र्स डिकेंस के अमर वाक्य को दोहराना महत्त्वपूर्ण है, जिसमें उन्होंने औद्योगिक क्रांति के विषय में कहा था कि यह सबसे बेहतरीन दौर था और यही सबसे बदतरीन दौर था। इसे वैश्वीकरण के परिप्रेक्ष्य में भी कहा जा सकता है-वास्तव में उसका सबसे मुखर समर्थन चीनी दिग्गज शी चिनफिंग ने किया है। दुनिया की सबसे शक्तिशाली कम्युनिस्ट पार्टी के शीर्ष नेता अब वैश्वीकरण के सबसे प्रमुख हिमायती बन गए हैं, यह मौजूदा दुनिया के हालात को पूरी तरह बयां करता है, मगर केवल तभी जब आप यह भी ध्यान रखें कि रिपब्लिकन पार्टी में भी खांटी दक्षिणपंथी से भी आगे, अरबपति अमेरिका के नए नवेले राष्ट्रपति अब उसके सबसे बड़े आलोचक बन गए हैं। बतौर वैश्वीकरण समर्थक आप इस दुनिया के हालात में सुधार की कल्पना कैसे करना शुरू करते हैं।
सबसे पहले आप इसकी तस्वीर पर गौर करने की कोशिश के साथ आगाज करते हैं और दावोस की भौगोलिक स्थिति एकदम मुफीद है, जहां से आप पश्चिम से लेकर पूरब तक पूरे जहान पर अपनी दृष्टि आराम से दौड़ा सकते हैं। वॉशिंगटन में डॉनल्ड ट्रंप, रूस में पुतिन, जापान में अबे, चीन में शी, भारत में नरेंद्र मोदी, तुर्की में एर्डोगन से लेकर इजरायल में नेतन्याहू के रूप में आप देखेंगे कि दुनिया के प्रमुख देशों की कमान कद्दावर और निर्णायक शख्सियत वाले नेता संभाल रहे हैं। जैसे उनके देशों की अपनी विशेषताएं हैं, उनके शासन की शैली की भी अपनी खासियतें हैं। मगर उनमें कुछ बातें समान हैं। मसलन लोकलुभावनवाद, अति-राष्ट्रवाद और अगर बोलने में कठोर नहीं तो सीधा सपाट लहजा। अगर आपको अभी भी बोरियत लग रही हो तो आपके पास फिलीपींस के दुतेर्ते का रुख करने का भी विकल्प है। मगर फिलहाल विषयांतर हो, लिहाजा कहीं और का रुख नहीं करते।
शक्ति, सैन्य, आर्थिक और तकनीकी लिहाज से इस दुनिया में भी टं्रप का अमेरिका ही सिरमौर है। रूस पर अपनी गजब की पकड़ और ट्रंप से दोस्ताना रवैये के चलते पुतिन खुद को सबसे सहज स्थिति में मान सकते हैं। अबे के समक्ष सबसे ज्यादा समस्याएं हैं, जिनकी जड़ें मुख्यत: जापान की जनांकिकी में निहित हैं। इस हफ्ते हम जापान के मंत्री कोजो यामामातो से मिले, जिनके पास ‘जनसंख्या में कमी की समस्या के संवर्धन’ जैसा अनोखा मंत्रालय है। शी के चीन के पास सबसे ज्यादा अवसर हैं और अमेरिका के आंतरिक मोर्चे पर केंद्रित दृष्टिïकोण के साथ उसकी नजर सबसे बड़ी महाशक्ति की गद्दी पर है। और नरेंद्र मोदी के भारत के पास विकल्पों की भरमार है। अमेरिका के साथ रिश्ता अक्षुण्ण बना हुआ है और इसमें शायद और मजबूती आ सकती है, रूस के साथ उसकी इतनी गहरी साझेदारी है कि पाकिस्तान के साथ रूस के सुधरते संबंधों का भी उस पर कोई असर नहीं पड़ेगा, जापान भारत को अपना प्रमुख सहयोगी और निवेश का ठिकाना मानता है और चीन जो गाहे-बगाहे वीजा से लेकर संयुक्त राष्ट्र में भारत के खिलाफ विरोध का तुर्रा छेड़ता रहता है, उसका भी भारत के साथ तकरीबन 70 अरब डॉलर का व्यापार अधिशेष है। अगर ट्रंप संरक्षणवाद के अपने वादे पर टिके रहकर चीन के निर्यात किए उत्पादों के लिए अवरोध खड़े करते हैं तो भारत उसके लिए और भी महत्त्वपूर्ण हो जाएगा। यह आलेख उस दिन लिखा जा रहा है, जब ट्रंप अमेरिका की कमान संभाल रहे हैं। दुनिया को लेकर अपने नजरिये में बदलाव के पैमाने पर नैसर्गिक भारतीय प्रवृत्ति तार्किक होने के साथ ही पुराने मिजाज वाली है। भारत के लिए बेहतर यही होगा कि वह चीन के साथ बात शुरू करे। यह पड़ोस में है और हमारे पड़ोस में व्यापक भू-रणनीति और आर्थिकी से अपनी पैठ बढ़ा रहा है। विनिर्माण अर्थव्यवस्था के पुनर्गठन की प्रक्रिया में अब यह दुनिया की प्रमुख शक्ति है, जो उसे उसे सर्वाधिक रणनीतिक शक्ति देती है। अब वह बाहरी दुनिया के नजरिये को भी समझ रहा है, भले ही वह हमेशा साझा वैश्विक हितों और निश्चित रूप से परोपकार का राग न आलापता हो। इसके संकेत यहां दिए गए शी के विलक्षण भाषण से भी मिलते हैं, जिसमें उन्होंने चीन को वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था और मुक्त व्यापार के सबसे बड़े समर्थक के तौर पर स्थापित किया और संरक्षणवाद पर ट्रंप को भाषण सुनाया (यह बिलकुल खुद को अंधेरे कमरे में बंद करने जैसा है, जो आपको सर्दी और वर्षा से तो बचा सकता है लेकिन यह रोशनी और हवा भी बंद कर देता है) और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व से लेकर जलवायु परिवर्तन तक सभी संकेत आज बढिय़ा और विनम्र लगते हैं।
निश्चित रूप से आप कह सकते हैं कि देखो तो जरा कौन बात कर रहा है। मुक्त व्यापार और विश्व व्यापार के सभी नियमों और प्रावधानों के सम्मान के चीनी दावे संदिग्ध हैं। उसने गूगल से लेकर ट्विटर तक सभी प्रमुख वैश्विक तकनीकी दिग्गजों को अवरुद्घ कर दिया है, प्रशुल्क और गैर-प्रशुल्कीय बाधाएं उत्पन्न की हैं, बौद्घिक संपदा अधिकारों का मखौल उड़ाया है, जब भी जरूरत हुई तो विदेशी कंपनियों के दफ्तरों पर छापेमारी कर दी और कंप्यूटरों से डेटा उड़ा दिया, अपने सामुद्रिक आतंकी दावे के विस्तार के लिए समंदर में कृत्रिम द्वीप बना दिए, पड़ोसियों को आए दिन धमकाना और जब भी उसे मुफीद लगे वह खुशी से मसूद अजहर जैसे आतंकी का समर्थन कर देता है। स्वच्छ तकनीक और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के साथ-साथ मुक्त व्यापार के लिहाज से उसके दावे के लिए अंग्रेजी के बड़े-बड़े आठ अक्षरों का वो शब्द इस्तेमाल किया जा सकता है, जिसकी शुरुआत बी और अंत टी से होता है। सीधे शब्दों में कहा जाए तो उसे यहां लिखा नहीं जा सकता। यह बुनियादी हकीकत को नहीं बदलता। शी का भाषण चीन के बढ़ते प्रभाव, वैश्विक नेतृत्व के लिए उसके दाव सेे जुड़ा है जो दर्शाता है कि यह पड़ोसी महाशक्ति है, जो हमारे क्षेत्र के बड़े हिस्से पर अधिकार जताती है।
शी ने अपनी ‘वन बेल्ट, वन रोड’ का उल्लेख ऐसे समय में किया, जब दुनिया की तमाम अन्य शक्तियां कमजोर हो रही हैं। एक अन्य चीनी प्रवक्ता ने दूसरे सत्र में इसे तफसील से समझाते हुए 100 वर्षों की ऐसी योजना करार दिया, जिसमें 64 देश शामिल होंगे। यह चीन का नाटो नहीं है बल्कि उससे काफी बड़ा कुछ है क्योंकि इसका आकार भी बहुत बड़ा है। ऐतिहासिक कारणों से मैं एशियाई साझा-संपन्नता की चीनी अवधारणा को लेकर संशय में हूं लेकिन यह प्रत्यक्ष तौर पर सैन्य शक्ति के उपयोग के बिना इसके संकेत देता है। मिसाल के तौर सीपीईसी की अवधारणा पहले ही पाकिस्तान का रणनीतिक रवैया बदल चुकी है।
चीन जिस तरह से पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, म्यांमार और श्रीलंका पर डोरे डाल रहा है, उसे भारत की सख्त घेरेबंदी के तौर पर देखा जा सकता है। नए परिदृश्य में भारत को भी अपनी रणनीतिक संभावनाओं को तलाशना होगा। उस प्रक्रिया की शुरुआत के लिए हमें सबसे पहले अपनी मानसिकता को नए सिरे तय करना होगा। क्या हिमालय में कुछ कोर की तैनाती चीन की चुनौती को जवाब देगी? क्या तवांग के लिए चीन तमाम परिवारों के इकलौते बच्चों और 70 अरब डॉलर के व्यापार अधिशेष को जोखिम में डालना चाहेगा? जरा सोचिए और मौके के लिहाज से अपनी सोच को सामरिक से रणनीतिक बनाइए। सन 1962 से 2017 के दरमियान दुनिया काफी आगे बढ़ गई है। लिहाजा, हमारा रणनीतिक नजरिया भी निश्चित रूप से बदलना चाहिए।