दिल्ली मुहम्मद शाह रंगीला का शहर है, जिसने मुगल दरबार का भारी भरकम खजाना फारसी लुटेरे नादिर शाह के हाथों लुटा दिया। इसमें मयूर सिंहासन और कोहिनूर जैसी चीजें शामिल हैं। इतिहासकार बताएंगे कि मुहम्मद शाह (1719-48) कला, संगीत और विद्वानों का बहुत बड़ा संरक्षक था। उसने खुद को ‘सदा रंगीला’ की पदवी दे रखी थी। सदियां बीतती गईं और उसकी अवनति और अपव्यय की और खराबियों की प्रतिष्ठा पुरानी दिल्ली की दीवारों में दफन हो गई। ऐसी कहावतें जिंदा रहीं जिनमें कहा गया कि जब उसने सुना कि लुटेरा नादिर शाह दिल्ली की ओर आ रहा है तो उसने राजधानी के हिजड़ों (किन्नरों) को एकत्रित किया और उसकी सेना से लडऩे भेज दिया। मैंने उस वक्त का अध्ययन करने वाले इतिहासकार विलियम डैलरिंपल से इस बारे में दरयाफ्त की। उन्होंने कहा कि इस किस्से में कोई तथ्यात्मकता नहीं है। उन्होंने जोर देकर कहा कि रंगीला राजनीतिक रूप से उससे कहीं अधिक सफल शासक था जितना कि उसे बताया जाता है।
उसकी सेना काफी मजबूत थी और उसके सिपहसालार भी। यह सेना करनाल में नादिर शाह से भिड़ी लेकिन उसे शिकस्त झेलनी पड़ी। अपनी और अपने सिपाहियों की गरदन कटाने की रिवायत के उलट उसने आत्मसर्मपण कर शांति समझौता किया और उसका खजाना लूटा गया। ऐसे महत्त्वपूर्ण शासक को उन हिजड़ों की वजह से याद किया जाता है जिन्हें उसने कभी जंग के मैदान में भेजा ही नहीं। इस बात को पीढ़ी दर पीढ़ी दोहराया गया और यह सच में बदल गया। पुरानी राजधानियां इसी तरह काम करती हैं और दिल्ली तो उनमें सबसे पुरानी है। तीन सदी बाद यानी वर्ष 2013 में आई मार्क लेबोविच की वॉशिंगटन पर आधारित किताब दिस टाउन को पढि़ए। किताब निहायत क्रूर, हास्यास्पद और तथ्यात्मक ढंग से सत्ता के केंद्र रहे इस शहर और इसके नेटवर्क पर नजर डालती है। अमेरिका के लोग जिसे ‘इनसाइड द बेल्टवे’ कहते हैं, उसे ही हम लुटियंस और मुगल दिल्ली कहते हैं। लेबोविच ने जो अत्यंत स्मरणीय पैराग्राफ लिखा है वह कैनेडी सेंटर में एक अत्यंत शक्तिशाली व्यक्ति के अंतिम संस्कार से संबंधित है। वह लिखते हैं, ‘वॉशिंगटन में अंतिम संस्कार का अवसर भी नेटवर्किंग का एक बड़ा मौका हो सकता है।’ वह आगे लिखते हैं कि कैसे दोस्त और दुश्मन सभी बेताबी से नेटवर्किंग करते दिखते हैं, वे सूचनाओं का आदान-प्रदान करते हैं और उसे सत्ता और लाभ की खातिर प्रयोग में लाते हैं। वह मीडिया और औद्योगिक गठजोड़ की बात करते हैं। मेरा मानना है कि लुटियंस की दिल्ली में मीडिया और राजनीति का घालमेल अधिक है। वॉशिंगटन अथवा किसी भी अन्य बड़े शहर की तरह दिल्ली दरबार भी अफवाहों, सुनीसुनाई बातों आदि पर ही चलता है। यहां भी एक दूसरे की तारीफ का ही सिलसिला चलता है और एक दूसरे पर मीठी छुरी भी चलाई जाती है।
मेरी मित्र तवलीन सिंह भी अपनी पुस्तक दरबार में कमोबेश यही बातें कहने का प्रयास कर रही थीं। अपनी नई पुस्तक इंडियाज ब्रोकेन ट्राइस्ट में वह अपनी दलील को समकालीन किस्सों की मदद से आगे ले जाती हैं। ये सभी किस्से बार बार दोहराए जाएंगे और समय के साथ तथ्य में बदल जाएंगे। रंगीला से राजीव गांधी और मनमोहन सिंह से लेकर मोदी तक दिल्ली दरबार की संस्कृति ने देश के सत्ता के ढांचे को संस्थागत निरंतरता प्रदान की है। नरेंद्र मोदी के प्रशंसक उनको बाहरी व्यक्ति मानते थे जो लुटियन की कार्यशैली बदलने वाला था। उस वक्त मेरा मानना था कि छह महीने सत्ता में बिताने के बाद सभी सरकारें और शासक एक से हो जाते हैं। फुसफुसाहटों से संचालित राजधानियों की यही ताकत है। हां, कई बार ये फुसफुसाहटें ही बदल जाती हैं। लेकिन ये फुसफुसाहटें, सुनी सुनाई बातें, गप आदि कई बार उपयोगी साबित होती हैं। याद कीजिए प्रकाश जावड़ेकर के बारे में वह किस्सा जिसके मुताबिक उनको पश्चिमी परिधान बदलकर अधिक सभ्य पोशाक पहनने हवाई अड्डे से घर लौटना पड़ा था या राजनाथ सिंह के बेटे को भ्रष्टाचार से दूर रहने की ताकीद दी गई थी। ये बातें बार-बार दोहराए जाने से तथ्य बन गईं। अगर आप फुसफुसाहटों की ताकत को समझना चाहते हैं तो देखिए कैसे उन्होंने औरंगजेब के बाद के सबसे सफल मुगल शासक को एक भ्रष्ट, शराबखोर और मूर्ख में बदल दिया। इसलिए क्योंकि जहां गप ही सूचना हो वहां ऐसे किस्से ही शासन करते हैं और इतिहास बनते हैं।
एक राजनीतिक पत्रकार इस माहौल में कैसे काम करता है जहां उसके मूल हथियार यानी पहुंच को ही संदेह से देखा जाता हो। इसका एक तरीका यह है कि खुद को एक छोटे से दायरे में समेट लिया जाए जहां हां में हां मिलाने वाले लोग हों, दोस्त हों, परिजन हों, आपके कुत्ते और बिल्ली हों और वहां से बैठकर आप दुनिया का मजाक उड़ाएं। दूसरा रास्ता यह कि बाहर निकलें और व्यस्त हो जाएं। लेबोविच कहते हैं कि उनसे अक्सर यह पूछा जाता है कि क्या वह खुद उस दुनिया का हिस्सा नहीं हैं जिसका वे मजाक उड़ाते हैं। वे गलती स्वीकार करते हुए एक यहूदी कहावत का प्रयोग करते हैं, ‘पानी का अविष्कार किसने किया? मुझे नहीं पता लेकिन मैं मछली भी तो नहीं।’ उसके बाद वह स्वीकार करते हैं कि ‘मैं एक मछली हूं।’
एक हरियाणवी होने के नाते मैं कबड्डी का रूपक इस्तेमाल करूंगा। दिल्ली दरबार में और उसके आसपास की राजनीतिक पत्रकारिता कबड्डी की तरह है। आप मध्य रेखा पार करते हैं, किसी को परेशान करते हैं, उसे छूते हैं और अंक जीतकर बिना फंसे अपने पाले में वापस आ जाते हैं। यह सब करते हुए आपको अपनी सांसें थामे रहनी होती हैं। यह आसान नहीं है लेकिन संभव भी है और मजेदार भी। नए मिजाज में लेबोविच की मछली होना तो अनैतिक होगा। यह मानना सही नहीं कि आप विभाजक रेखा को पार कर बुरे लोगों को छूकर बिना किसी खंरोच के वापस लौट आएंगे। कुछ वर्ष पहले जब मैं मुझ पर 30,000 शब्दों की एक प्रोफाइल स्टोरी कर रहे एक तेजतर्रार युवा पत्रकार के साथ बातचीत कर रहा था तो मैं उसके एक प्रश्न से मुग्ध रह गया था जिसे वह अत्यंत आग्रह और जिद के साथ पूछ रहा था। उसका कहना था कि मैं राज्य सभा के लिए प्रयास कर रहा था और वह जानना चाहता था कि कौन लोग इसमें मेरी मदद कर रहे थे? मेरी दलील थी कि एक सक्रिय और सफल पत्रकार राज्यसभा में क्यों जाना चाहेगा जबकि उसे वहां से बहुत अधिक वेतन भत्ते भी नहीं मिल रहे हों, न ही उसे बहुत बड़ा मंच या पत्रकारिता की तुलना में व्यापक पहुंच हासिल हो रही हो। लेकिन सब बेकार। मुझे कुतूहल हुआ कि आईवी लीग की डिग्री वाले एक पत्रकार को यह मानना चाहिए कि किसी पत्रकार के जीवन का सबसे अद्भुत क्षण राज्य सभा का नामांकन होना चाहिए! इस सप्ताह के आरंभ में मैं तवलीन सिंह की नई पुस्तक के लोकार्पण पर गया था। जब साथी पत्रकार मधु त्रेहन के साथ पुस्तक को लेकर उनकी चर्चा समाप्त हुई और लोगों ने बार की ओर जाना शुरू किया तो एक व्यक्ति ने मुझे रोका और कहा, ‘तो बतौर इंडियन एक्सप्रेस के संपादक आप पर तवलीन का कॉलम रोकने का इतना अधिक दबाव था! बहुत दुख की बात है महोदय। यहां तक कि सुमन दुबे तक ने आपको फोन कर धमकाया.. आखिरकार आपको वहां से हटना पड़ा…आदि..आदि।’
ये बातें कहां से आ रही थीं? मैं घर गया और मैंने तवलीन की किताब की अनुक्रमणिका देखी। मेरा नाम नौ पन्नों पर था। हर जगह मेरी तारीफ ही की गई थी। यह भी लिखा था कि कैसे मैंने मुझे सीधे फोन करने वाली सोनिया गांधी और अपने पूर्व संपादक सुमन दुबे का उनका कॉलम बंद करने का दबाव बरदाश्त किया, उसे ठुकराया। हकीकत में ऐसा कुछ नहीं हुआ था। मैंने तमाम लोगों की तरह उनको भी बताया था कि 10 जनपथ के करीब लोग उनके कॉलम को लेकर टिप्पणियां करते हैं कि उसे पौराणिकता और दोहराव है तथा मैं जवाब में कहता हूं कि तवलीन बहुत आक्रामक लिखती हैं और उनका एक सत्ता विरोधी पाठकवर्ग है। उस दिन बार में मौजूद शख्स ने मुझसे कहा, ‘आप सही मायनों में साहसी पत्रकार थे।’ मैंने उनसे कहा कि यह कुछ ऐसा ही था मानो बिना लड़े ही किसी को वीरता पुरस्कार दिया जाए। अब मुझे तवलीन को धन्यवाद कहना था या नहीं कहना था, या फिर शायद मुझे इस घटना से जुड़ा पूरा इतिहास तैयार करना था। शायद मुहम्मद शाह रंगीला के शहर में यह ज्यादा आसान होता।