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Tuesday, November 5, 2024
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डाक टिकट के बहाने अतीत से छेडख़ानी

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अगर आप भी उन लोगों की सूची में शामिल हैं जिन्होंने अपने रोजगार के आवेदनों में डाक टिकट संग्रह को बतौर शौक दर्ज किया है तो संभव है कि इस स्तंभकार की तरह आपमें से भी कई लोगों को अपने पहले रोजगार के दौरान लिफाफों पर डाक टिकट चिपकाने का काम भी करना पड़ा हो। पहली नौकरी में मेरा काम था उन लिफाफों पर टिकट चिपकाना जिनमें 75 रुपये के भुगतान के चेक के साथ उस आलेख की एक प्रति होती थी जो उन लोगों ने अखबार के लिए लिखे होते थे। डाक टिकटों की हमारी जिंदगी में अहम हिस्सेदारी रही है। ठीक वैसे ही जैसे टाइपराइटर, साइक्लोस्टाइल, ग्रामोफोन, श्वेत-श्याम दूरदर्शन, टेलीग्राफ, मनी ऑर्डर, भाप का इंजन और लंबी दूरी की टेलीफोन कॉल हमारी जिंदगी में शामिल रहे हैं। आज जब कमोबेश हर सात साल में एक पीढ़ी बदल जाती है तो यह माना जाएगा कि आप बहुत पुरानी पीढ़ी से हैं। संभव है कि अगर आज आप किसी युवा को उसका काम समझाते हुए कहें कि उसे डाक टिकट पर थूक लगाकर या उसे चाटकर लिफाफों पर चिपकाना होगा तो बहुत संभव है कि वह असमंजस में पड़ जाए।

युवाओं की कम से कम पिछली दो पीढिय़ों (सात वर्ष के हिसाब से) को डाक टिकट के इस्तेमाल का बहुत कम ही अनुभव होगा। डाक टिकट संग्रह (फिलैटली) के बारे में तो अब शायद ही किसी को याद हो। ईमेल और कुरियर के युग में डाक का अस्तित्व संभवत: केवल सरकारी काम में रह गया है। मैं शर्तिया तौर पर कह सकता हूं कि 30 से कम उम्र के अधिकंाश भारतीयों ने शायद ही कभी डाक टिकट खरीदा हो। मैं यह भी कह सकता हूं कि इस सप्ताह अखबारों में डाक टिकट पर छपे दो अपरिचित चेहरों को अपनी ओर घूरते देखकर उनको जरूर आश्चर्य हुआ होगा।

इंदिरा गांधी को तो अब भी लोग पहचानते हैं लेकिन नेहरू की याद कमजोर पड़ रही है। नेहरू की वैचारिकी से मैं अर्थव्यवस्था से लेकर विदेश नीति तक कई मोर्चों पर असहमत हूं। मैं इसमें सावधानीपूर्वक ‘कट्टïर धर्मनिरपेक्षता'(मणिशंकर अय्यर का शब्द) की उनकी परिभाषा को भी जोडऩा चाहूंगा जो दरअसल अज्ञेयवाद का ही दूसरा नाम है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस के मन में उनको लेकर जो अवमानना का भाव है उससे सब परिचित हैं लेकिन उनकी वैचारिक विरासत को ध्वस्त करने की कोशिश निरर्थक है।

आरएसएस और भाजपा बहुत पहले खत्म हो चुके नेहरूवाद के ताबूत में एक और कील ठोकने के प्रयास में हैं। वे उनकी तस्वीर वाले डाक टिकट बंद करने की कवायद कर रहे हैं जो निरर्थक है। यह कोशिश केवल उस नेहरूवादी पीढ़ी में नई जान फूंकेगी जो अब पीछे छूट गई है। वे बहस में वापस आ जाएंगे। नेहरू और इंदिरा की विचारधारा डाक टिकट की तरह ही चलन से बाहर हो चुकी है। नेहरू की मौत को 51 साल बीत चुके हैं। उनके बाद हर सरकार, खासतौर पर उनकी बेटी इंदिरा की सरकार ने उनकी विरासत खत्म करने का ही काम किया। इंदिरा ने तांत्रिकों को प्रश्रय दिया, विशेष पूजा और हवन किए। हमारी आजादी छीनी और हमारी गुटनिरपेक्षता को सोवियत संघ के पाले तक पहुंचा दिया। उन्होंने 1971 में बांग्लादेश को आजाद कराया लेकिन इसकी कीमत सोवियत संघ के साथ रक्षा समझौते के रूप में चुकाई। 1970 और 80 के दशक में भारत ने जो रुख अपनाया खासतौर पर अफगानिस्तान में सोवियत संघ के दखल पर, उसके रुख ने नेहरू को बहुत शर्मिंदा किया होता। इंदिरा की आर्थिक नीतियां भी नेहरू से काफी अलग थीं। उन्होंने उद्योगों और कंपनियों का राष्ट्रीयकरण किया। इसमें बैंक से लेकर बीमा और कोयला से पेट्रोलियम, कपड़ा और ट्रैवल एजेंसी तक सब शामिल थे।

अगला नाम है राजीव गांधी का। शाहबानो मामले में उनके दखल, बाबरी मस्जिद/राम जन्मभूमि का ताला खुलवाना और शिलान्यास, मंडल आयोग पर अस्पष्टï रुख आदि ऐसी तमाम बातें हैं जिनसे नेहरू खुश नहीं होते। नरसिंह राव ने तो नेहरू और इंदिरा से दिखावटी प्रेम तक न दिखाया। उनके जमाने में न केवल बाबरी मस्जिद ढहा दी गई बल्कि कोटा-लाइसेंस राज भी खत्म कर दिया गया। इजरायल के साथ रिश्ते प्रगाढ़ किए गए। सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस दस साल तक सत्ता में रही और उसने इंदिरा गांधी की तरह गरीबी को मुद्दा बनाए रखा। परंतु नेहरू की शैली के विकास यानी बड़े बांध, बड़े औद्योगिक क्षेत्र, बिजली और खनन परियोजनाओं और यहां तक कि नदी-जोड़ परियोजनाओं को लेकर भी वह शंकालु बनी रहीं। वैश्विक बदलावों ने नेहरू और इंदिरा को उतना ही अप्रासंगिक बना दिया है जितना कि तकनीक ने डाक टिकट को।

प्रश्न यह है कि आरएसएस और भाजपा चाहते क्या हैं? आरएसएस की समस्या यह है कि एक ओर जहां वह कट्टïर, हिंदूवादी भारतीय राष्टï्रवाद का प्रसार करता है वहीं उसकेपास ऐसे आधुनिक राष्टï्रवादी चरित्रों का अभाव है। देश के स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी सहभागिता की कमी की तुलना कुछ अर्थों में मुस्लिम लीग और वामपंथियों से की जा सकती है। उनको अपने नायक कहीं और तलाशने होते हैं। वे कांग्रेस से मदन मोहन मालवीय और सरदार पटेल को ले लेते हैं। उन्होंने अनेक क्रांतिकारियों पर कब्जा कर लिया है जिसमें भगत सिंह से लेकर नेताजी सुभाषचंद्र बोस तक शामिल हैं। भले ही उनमें से कई वामपंथी थे।

उनके पास अपने पाले में केवल सावरकर का नाम है जो थोड़ा बेतुका है। नेहरू कश्मीर में और सन 1962 में चीन के समक्ष विफल रहे। उन्हें नकारना आसान है लेकिन इंदिरा को नहीं। उन्होंने पाकिस्तान को परास्त किया था, परमाणु परीक्षण किया था और मजबूत भारत के विचार को आगे बढ़ाया जो आरएसएस की भी अवधारणा है। लेकिन 2014 की चुनावी जीत को मुकम्मल करना है तो उनकी विरासत को भी नष्टï करना होगा। लोक में भी उनकी स्मृति अभी पूरी तरह गायब नहीं हुई है। अगर आप एक, सफदरजंग मार्ग से निकलें तो उनकी रिहाइश वाले भवन में उनका स्मारक है जहां सप्ताहांत पर ग्रामीण इलाकों से बड़ी संख्या में बस में सवार होकर लोग आते हैं। उनकी छवि खराब करने के लिए आपातकाल का सहारा लिया जाएगा। यही वजह है कि उनकी और नेहरू की छवि वाले डाक टिकट चलन से हटाए जा रहे हैं। नए डाक टिकटों में उनके चिर शत्रु कहे जा सकने वाले लोहिया और जयप्रकाश नारायण की तस्वीर होंगी। भले ही उन्होंने संघ की विचारधारा का त्याग किया था और जिनके वारिस आगामी बिहार चुनाव में भाजपा के सामने होंगे। आरएसएस देश के राष्ट्रवाद की अपनी पुनव्र्याख्या करने के लिए पांच दशक पीछे जा रहा है। उसकी शैली यही है कि दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है। डाक टिकट तो यूंही शिकार बन गए।

पुनश्च: वैचारिक जिद केवल आरएसएस और भाजपा तक ही सीमित नहीं है। 26 फरवरी 2003 को जब संसद परिसर में सावरकर की मूर्ति का अनावरण किया जाना था, मेरे पास सुबह-सुबह जयराम रमेश का फोन आया जो नाराज लग रहे थे। उन्होंने कहा कि वाजपेयी सरकार एक धर्मान्ध और शत्रु का साथ देने वाले व्यक्ति को महान राष्ट्रीय नेताओं के साथ स्थान देकर देश के साथ अपराध कर रही है। उन्होंने मुझसे यह भी पूछा कि मेरा समाचार पत्र इसके खिलाफ जंग क्यों नहीं छेड़ रहा?

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