कूटनीति बहुत धीरज वाला और पुराना उबाऊ काम है। दूरियां कम होने और संपर्क के बेहतर माध्यम विकसित होने के साथ ही इसकी शैली और पद्धति बदल गई है। किंतु इसका मूल मंत्र वही है : सतर्कता, होशियारी, दिमाग ठंडा रखकर काम करना और सबसे बड़ी बात परिपक्वता। चूंकि हम सब क्रिकेट समझते हैं, तो कहना होगा कि यह 60 के दशक के पुराने टेस्ट क्रिकेट की तरह है। समस्याएं तब पैदा होती हैं जब आप इसे टी-20 की तरह खेलने लगते हैं, जिसमें बिना रन की गेंद अपराध है और केवल चौके, छक्के या विकेट मिलने पर ही चियरलीडर्स जश्न मनाती हैं। खेद है कि केंद्र की भाजपा/एनडीए के नेतृत्व वाली सरकार ने अपनी विदेश नीति के कुछ प्रमुख पहलुओं को फटाफट क्रिकेट की तरह चलाया है। चीन के उइगुर प्रांत के असंतुष्ट नेता दोलकुन इसा को जारी किए वीज़ा की वापसी इसका अच्छा, लेकिन दुखद उदाहरण है।
हम सभी को घटनाक्रम मालूम है। पाक समर्थित आतंकवादी मसूद अजहर को वैश्विक आतंकवादी घोषित करने के संयुक्त राष्ट्र के कदम को चीन ने रोक दिया, जिससे भारत नाराज हो गया, जो उसे होना भी चाहिए था। चीन ने ऐसा कुछ पहली बार नहीं किया था। किंतु विभिन्न राष्ट्रों के लिए राजनीतिक या कूटनीतिक कारणों से ज्ञात आतंकियों को समर्थन देना बहुत मामूली बात होती जा रही है। इस प्रकार चीनी कार्रवाई आतंकवाद को लेकर वैश्विक रुख की अवहेलना की है। भारत ने चीन से अपनी अप्रसन्नता और विरोध को काफी मुखरता के साथ व्यक्त कर दिया था।
स्पष्ट है कि अभी इतना ही काफी था। पाकिस्तान के साथ चीन के खास रिश्तों से सभी वाकिफ हैं, लेकिन ये रिश्ते नैतिकता से नहीं बल्कि साझा रणनीतिक व आर्थिक हितों से संचालित हैं। दोनों देश यह बताना पसंद करते हैं कि उनके रिश्ते समुद्र से गहरे और हिमालय से ऊंचे हैं। इसका आधार सैद्धांतिक या भावनात्मक न होकर व्यावहारिकता है। चीन 1965 से ही पाकिस्तान का रणनीतिक सहयोगी है। मैं जान-बूझकर चीन से पाक के रिश्ते को अमेरिका की तुलना में अधिक ऊंचे पैमाने पर रख रहा हूं, क्योंकि वाशिंगटन के विपरीत बीजिंग ने अपनी पाकिस्तान नीति को कभी भारत के साथ जोड़कर नहीं व्यक्त किया।
कहने का आशय यह नहीं है कि इसमें भारत का कोई स्थान ही नहीं है। जैसा कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कहा करते थे कि चीन पाकिस्तान को भारत के खिलाफ कम लागत वाले सहयोगी के रूप में इस्तेमाल कर त्रिकोणीय कूटनीति में हमें घेरता रहा हैै। इसका आशय यह है कि यदि चीन पाकिस्तान को सुरक्षित, शस्त्र-सज्जित (परमाणु हथियारों सहित) और आर्थिक रूप से सक्षम बनाए रखता है, तो यह भारत को विचलित रखने के लिए काफी है। तब भारत पाकिस्तान की चिंता में इतना डूबा होगा कि उसे चीन के बारे में सोचने की फुरसत नहीं होगी। वाजपेयी की तरह डॉ. सिंह के लिए भी पाकिस्तान से संबंध सुधारने का प्रयास इस त्रिकोण से बाहर आने का तरीका था।
हमें अभी यह मालूम तो नहीं है कि मोदी सरकार क्या करना चाहती है। इसने निरंतरता को तोड़कर पुरानी लकीर पीटने की बजाय नया रास्ता खोजने का बहुत प्रयास किया है। पाकिस्तान के सारे प्रमुख सहयोगियों अमेरिका, चीन, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब को लुभाने के आक्रामक प्रयास भी किए गए। यह बहुत ही ठोस, नई कूटनीति है और आप इसके पीछे खास तरह की सोच भी देख सकते हैं। किंतु तात्कालिक प्रतिक्रिया का नतीजा लंबे समय न टिक सकने वाली नीतियों और गरिमाहीन छाती-कूट में ही निकलता है और इसके कारण नई कूटनीति के रास्ता भटकने की आशंका पैदा हो जाती है। कभी-कभी यह खुलेआम किया जाता है, जैसा कि पाक उच्चायुक्त की हुर्रियत नेताओं से बैठक को लेकर विदेश सचिव स्तरीय वार्ता को रद्द कर देना। कई अन्य मौकों पर यह जानकारी लीक करके किया जाता है जैसा कि मसूद अजहर के मामले में ये खबरें कि चीनी रवैये के जवाब में वैश्विक स्तर पर पहचाने जाने वाले उइगुर ( चीन के जिंगजिआंग प्रांत में रहने वाला बड़ा जातीय अल्पसंख्यक समुदाय) असंतुष्ट नेता को वह वीज़ा जारी कर रहा है। इसे भारत की ओर से चीन के लिए पहली बार दिखाई गई तगड़ी प्रतिक्रिया माना जा रहा था।
हालांकि, वास्तविकता तो यही है कि कूटनीति भुजाएं फड़काकर नहीं, दिमाग से चलाई जाती है। खासतौर पर तब जब आपकी भुजाएं उस विरोधी की तुलना में कमजोर हों, जिसकी दुखती रग पर आप हाथ रखना चाहते हैं। इस वक्त रणनीतिक, राजनीतिक या आर्थिक रूप से भारत इस स्थिति में नहीं है कि वह चीन से कोई झगड़ा मोल ले। बेशक, चीन यदि दुस्साहस दिखाता है तो भारत अपनी सीमाओं की रक्षा करने के अलावा भी बहुत कुछ करने की क्षमता रखता है।
मसूद अजहर वाले मामले पर पहली ही प्रतिक्रिया में दोलकुन इसा को वीज़ा देना और वह भी तिब्बत की निर्वासित सरकार के आशीर्वाद से हो रहे सम्मेलन में भाग लेने के लिए, बहुत ही भड़काऊ कदम था। हुर्रियत मामले में पाकिस्तान के साथ बातचीत के बहिष्कार की तरह यह कदम भी टिकने वाला नहीं था। दोनों कदम वापस लेने पड़े और वह भी बहुत जल्दी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नवाज शरीफ के जन्मदिन पर लाहौर की यात्रा करके पाकिस्तान के खिलाफ भुजाएं फड़काने की नीति त्याग दी। चीन के संबंध में यह वापसी और भी जल्दी और कहना होगा कि अधिक अपमानजनक है। अब बहाने बनाए और खोजे जा रहे हैं कि कैसे दोलकुन को पहले वीज़ा दिया गया और क्यों इसे बाद में वापस ले लिया गया। किंतु ये किसी के गले नहीं उतर रहे हैं।
सच कहूं तो अधिक परंपरावादी, कष्टसाध्य, यथार्थवादी और धैर्यपूर्वक अपनाई जाने वाली कूटनीति में भरोसा रखने के कारण मैं इन दोनों मामलों में यू-टर्न लेने का स्वागत करता हूं। प्रत्येक मामले में आखिर में समझदारी की जीत हुई। मोदी सरकार को खुद से पूछना चाहिए कि क्यों वह इन मूर्खतापूर्ण दुर्दशाअों में फंसी। ऐसी सारी अचानक की गईं आक्रामक कार्रवाइयों को हमारे योद्धा खबरिया चैनलों और सोशल मीडिया से तत्काल तालियां मिलती हैं, लेकिन यदि फैसले टिकने वाले न हों तो इस क्षणिक सराहना का क्या कोई अर्थ है? इन नीतिगत अनुचित कदमों की तरह, शुरुआत में कुछ छक्के लगाकर मैच हारने का कोई मतलब है?