यदि आपने देव आनंद की 1965 की क्लासिक फिल्म ‘गाइड’ देखी हो तो टीवी स्क्रीन पर सूखे से प्रभावित क्षेत्रों खासतौर पर महाराष्ट्र के दृश्य अापको पहले देखे हुए से लगेंगे। फिल्म के अंतिम हिस्से में राजू गाइड सूखे से प्रभावित क्षेत्र के एक मंदिर में शरण लेता है। गांव वालों को लगता है कि वे कोई पहुंचे हुए स्वामीजी हैं और ग्रामीण उसे तब तक उपवास करने पर मजबूर करते हैं, जब तक कि वर्षा के देवता कृपा नहीं बरसा देते। उपवासरत स्वामीजी की ख्याति जैसे-जैसे फैलती है, पूरे इलाके के हताश ग्रामीण, सफेद टोपी पहने, बैल गाड़ियों पर सवार होकर मंदिर पहुंचने लगते हैं। क्या यही दृश्य इन दिनों आप महाराष्ट्र के सूखा प्रभावित क्षेत्रों के टीवी दृश्यों में नहीं देख रहे हैं? यहां तक कि ग्रामीण इलाके और लैंडस्केप भी वैसा ही नज़र आता है।
इस साम्यता पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहए। देव आनंद ने भीतरी महाराष्ट्र का एक गांव फिल्म के इस हिस्से की शूटिंग के लिए खोज निकाला था, जहां सूखा पड़ा था। फिल्म में दिखाई दे रही भीड़ के ज्यादातर लोग वास्तविक थे, जो यह अफवाह सुनकर आए थे कि कोई साधु (न कि फिल्म स्टार) बारिश लाने के लिए उपवास कर रहे हैं। फिल्म में तो जब राजू अपनी अंतिम सांस लेता है तो आसमान से मूसलधार बारिश शुरू हो जाती है।
किंतु आश्चर्य यह अहसास होने पर होता है कि ठीक 50 साल बाद सूखे के कारण वही इलाका, उसी त्रासदी को भुगत रहा है। लोग उतने ही असहाय नज़र आते हैं। थोड़ी-सी बारिश के लिए प्रार्थना करते हुए, नीले आसमान को देखते हुए जबकि उन्हें भी मालूम है कि जून अंत तक बारिश की कोई उम्मीद नहीं है। क्या 50 वर्षों में उनकी जिंदगी में कुछ भी नहीं बदला है? इससे भी ज्यादा महत्व तो इस सवाल का है कि क्या सिंचाई योजनाओं पर खर्च किए गए दसियों हजार करोड़ रुपए बर्बाद हो गए?
इसका जवाब इतना आसान नहीं है। इस आधी सदी में काफी कुछ बदल गया है और वह भी बेहतरी की दिशा में। अपवाद सिर्फ एक ही है, जो वैसी ही बनी हुई है बल्कि और खराब हुई है- जलवायु। मराठवाड़ा भारत के उन बड़े, स्पष्ट रूप से चिह्नित और ज्ञात भौगोलिक क्षेत्रों में से है, जहां बारिश कम होती रही है, जल संकट सतत रहा है बल्कि हमेशा ही ऐसा रहेगा। हममें से बहुत कम लोगों को पता होगा कि देश के सबसे बड़े शुष्क भूभाग राजस्थान के बाद ऐसा क्षेत्र कर्नाटक में मौजूद है। ठीक-ठीक कहें तो यह उत्तरी और उत्तर की ओर भीतरी कर्नाटक का क्षेत्र है। फिर आंध्र का रायलसीमा, उत्तरप्रदेश का बुंदेलखंड, मध्यप्रदेश व झारखंड के कई जिले भौगोलिक कारणों से अल्पवर्षा वाले क्षेत्रों में आते हैं। चूंकि यहां हमेशा ही बारिश कम होगी, इसलिए इन इलाकों में बड़े पैमाने पर आबादी का पलायन हुआ है, जिससे उनकी स्थानीय अर्थव्यवस्था का और पतन हुआ है।
इन क्षेत्रों में निश्चित ही जल संरक्षण, वितरण और सिंचाई के क्षेत्रों में अधिक तथा समझदारी भरे निवेश की आवश्यकता है। किंतु इससे भी आधारभूत मुद्दा नहीं बदलेगा : हमें अधिक पानी देने की प्रकृति की अक्षमता। इन क्षेत्रों को कृषि, अर्थव्यवस्था और सामाजिक व्यवहार में बदलाव की भी जरूरत होगी। मराठवाड़ा और महाराष्ट्र के शेष अपेक्षाकृत शुष्क इलाकों को उदाहरण के तौर पर लें। स्थानीय नेताओं का इसे चीनी उत्पादन का केंद्र बनाना कितना चतुराईभरा कदम था! गन्ने की खेती में बहुत सारा पानी लगता है और जिस क्षेत्र में जलसंकट हो, वहां इसे उगाना तो अपराध है। किंतु न सिर्फ यहां बहुत सारा गन्ना उगाया जाता है बल्कि बड़ी संख्या में चीनी मिलें (उन्हें भी पानी लगता है) हैं। चीनी के सहकारी क्षेत्र पर नेताओं का प्रभुत्व है और चुनावी राजनीति पर पूरी तरह चीनी लॉबी का दबदबा है। अब कोई इस बिल्ली के गले में घंटी बांधने को राजी नहीं है। इस क्षेत्र में ऐसी स्थिति तो आएगी नहीं कि पानी जरूरत से ज्यादा उपलब्ध हो जाए, लेकिन क्या स्थिति बेहतर नहीं होगी यदि यह क्षेत्र फलियां (दालें), मोटा अनाज, तिलहन और ऐसे फलों की खेती करने लगे, जिन्हें गन्ने की तुलना में बहुत ही कम पानी लगता है? यानी पानी के बुद्धिमानीपूर्ण इस्तेमाल से स्थिति में सुधार हो सकता है।
ऐसी ही कहानी और कहीं भी दोहराई जा रही है। पंजाब बहुत कम पानी में लहलहाने वाली अन्य फसलें लेने की बजाय धान की इतनी फसल क्यों लेता है? वहां भूमिगत जल भी बहुत नीचे गया है बल्कि मिट्टी की गुणवत्ता पर भी विपरीत प्रभाव पड़ा है। धान की तुलना में इन फसलों को आंशिक पानी ही लगता है। इससे इसके भूमिगत जलस्तर को ऊंचा उठाने और मिट्टी की गुणवत्ता बढ़ाने में मदद मिलेगी। इसके अलावा अपने पड़ोसियों के खिलाफ पानी के लिए युद्ध छेड़ना इतना महत्वपूर्ण नहीं रह जाएगा। पंजाब और हरियाणा को नकद फसल उगानी चाहिए और धान पूर्वी क्षेत्रों में जाना चाहिए, जिन्हें सालभर बहने वाली नदियों और भरपूर भूमिगत जल का वरदान प्राप्त है। इसी तरह बुंदेलखंड का समाधान यमुना की सहायक नदियों केन, बेतवा और चंबल के अतिरिक्त जल के दोहन में है, फिर चाहे उन्हें आपस में जोड़ना ही क्यों न पड़े। इससे मानसून का पानी बंगाल की खाड़ी में व्यर्थ नहीं बहेगा। इसकी योजनाएं तो दशकों से मौजूद हैं। कई बार उन्हें मंजूरी दी गई है, लेकिन फिर आंदोलनकारियों ने उन्हें रुकवा दिया।
सूखे के इस संकट में सबसे महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि हम देश का भूगोल तो बदल नहीं सकते। जहां तक प्रकृति का सवाल है, शुष्क क्षेत्र तो शुष्क ही बने रहेंगे। हमें टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करके, लोगों को प्रेरित करके और जहां जरूरत है वहां वित्तीय साधन लगाकर वहां की अर्थव्यवस्था को बदलना होगा। ऐसा नहीं है कि यह हो नहीं सकता। यह असंभव नहीं है। पानी का महत्व समझकर, इसे बुद्धिमानी से खर्च करके, जल संग्रहण, जल संरक्षण और कचरे में कमी लाने की टेक्नोलॉजी का विकास करके इसे बखूबी किया जा सकता है। हमारे मित्र, इजरायली यह सब हासिल करने में वर्ल्ड चैंपियन हैं। हमें उनके अनुभव से भी सीखना चाहिए। सूखा कभी नहीं जाएगा, लेकिन सूखे से संबंधित दुश्वारियां पूरी तरह से खत्म न भी की जा सकें तो बहुत हद तक घटाई जा सकती हैं।