दुनिया का इतिहास बताता है कि सबसे सफल नेता वे हैं, जो जानते हैं कि कौन-सी लड़ाई लड़नी है और उतना ही महत्वपूर्ण यह भी कि किस रणभूमि पर लड़नी है। चूंकि राजनीतिक इतिहास की बजाय कई बार सैन्य इतिहास को समझना आसान होता है, तो देखें कि किस तरह नेहरू ने 1962 में चीन की सेना से लड़ने का फैसला किया, जबकि सेना इसके लिए तैयार नहीं थी। फिर रणभूमि भी दुर्गम नेफा (अब अरुणाचल प्रदेश) को चुना। इस पराजय से वे कभी उबर नहीं पाए। किंतु तीन वर्ष बाद ही जब पाकिस्तान ने अप्रैल 1965 में भारतीय प्रतिरक्षा क्षमताओं को परखना चाहा तो लाल बहादुर शास्त्री ने खुद पर काबू रखा। वे जानते थे कि उनकी सेनाएं अभी तैयार नहीं हैं और दलदली भूमि लड़ने के लिए उचित नहीं होगी, इसलिए वे युद्धविराम के लिए राजी हो गए और सितंबर में 22 दिन की बड़ी लड़ाई की तैयारी कर ली। इस लड़ाई में भारत ने कहीं बेहतर प्रदर्शन किया। इतिहास ने नेहरू को पराजित नेता और शास्त्री को हीरो के रूप में दर्ज किया।
रणनीतिक व सामरिक मुद्दे और तथ्य इसी तरह जिंदगी की सभी लड़ाइयों पर लागू होते हैं, चाहें लड़ाई सैन्य, कॉर्पोरेट या राजनीतिक ही क्यों न हो। राजीव गांधी ने 1985 के अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के अधिवेशन के मशहूर भाषण में कांग्रेस में मौजूद निहित स्वार्थों से तब लड़ाई की घोषणा कर दी, जब उनके वफादार ‘जनरल’ तैयार नहीं थे और अंतत: वे मात खा गए। नतीजा यह हुआ कि वे ठीक उन पुराने लोगों की तरह काम करने लगे, जिनकी उन्होंने तीखी आलोचना की थी। दूसरी तरफ वाजपेयी ने आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व का सामना किया, जो बृजेश मिश्र को पद से हटाना चाहते थे। उन्होंने देश को बता दिया कि वे फैसले पर दृढ़ हैं और निजीकरण सहित अर्थव्यवस्था और विदेश नीति पर विचार भी उनके ही हैं। उनके इस मजबूत रवैये की मित्रों व आलोचकों ने समान रूप से सराहना की। वे हमेशा पाकिस्तान से शांति चाहते थे, लेकिन करगिल युद्ध में उन्होंने तब तक विराम से इनकार कर दिया जब तक कि पूरे क्षेत्र को घुसपैठियों से खाली नहीं करा लिया गया। उनकी इस दृढ़ता के कारण उन्हें उसी साल दूसरी बार जनादेश हासिल हुआ।
इसलिए सबक स्पष्ट है। असली नेता जानता है कि किसके लिए, कब और कहां लड़ना चाहिए। अब इस कसौटी पर नरेंद्र मोदी सरकार को परखिए, जो देश के विभिन्न शिक्षा परिसरों में जारी लड़ाइयों में फंस गई है। शुरुआत पश्चिम में भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई) से हुई थी, फिर हैदराबाद यूनिवर्सिटी और अब नई दिल्ली की जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू)। हम समझ सकते हैं कि मोदी सरकार किस बात की लड़ाई लड़ रही है। हिंदुत्व से प्रेरित राष्ट्रवाद की परिभाषा के लिए, जो आरएसएस की सोच के केंद्र में है। चूंकि सरकार अारएसएस की विचारधारा पर भरोसा करती है और माना जा सकता है कि मतदाताओं ने जब 30 साल बाद स्पष्ट जनादेश देकर इस पर भरोसा जताया तो वह यह तथ्य जानती थी, तो आपको यह स्वीकार करना होगा कि यह लड़ाई लड़ने लायक है। किंतु क्या यह जरा जल्दी नहीं हो रहा है, सरकार के कार्यकाल के दूसरे ही वर्ष में? जब अर्थव्यवस्था मतदाता को खुशी का कोई मौका नहीं दे रही है तो क्या यह लड़ाई लड़ने का बेहतर वक्त है? फिर सबसे महत्वपूर्ण सवाल तो यह है कि क्या रणभूमि के रूप में विश्वविद्यालय परिसरों का चयन सही है?
इसका उत्तर अनिवार्य रूप से बड़ा-सा ‘नहीं’ है। एफटीआईआई में सरकार ने खुद को इसलिए उलझा लिया, क्योंकि इसने अारएसएस के वरिष्ठ नेता की इस मांग को बिना सोचे-विचारे स्वीकार कर लिया कि उनके पसंदीदा गजेंद्र चौहान को डायरेक्टर बना दिया जाए। इस संस्थान में अब भी उथल-पुथल मची हुई है और भाजपा के समर्थक भी खुद को दुविधा में पा रहे हैं, क्योंकि वे इस चयन का बचाव नहीं कर सकते। चूंकि यह विधिसम्मत, संवैधानिक रूप से निर्वाचित दक्षिणपंथी सरकार है तो उसे पूरा अधिकार है कि वह दक्षिणपंथ के लिए अपनी पसंद के अनुरूप या अपने पसंदीदा व्यक्ति की नियुक्ति करे। किंतु यदि उनमें पात्रता न हो तो वह ऐसा नहीं कर सकती। मसलन, अनुपम खेर मोदी/भाजपा के वफादार हैं और सिनेमा व रंगमंच पर उनका शानदार रिकॉर्ड है। उन्हें या उनके जैसी किसी फिल्मी शख्सियत को नियुक्त किया जाता तो किसी को शिकायत नहीं होती। चूंकि सरकार ने लड़ाई जारी रखने का निर्णय लिया, वह गतिरोध में फंस गई। इससे एफटीआईआई पर संघ परिवार का नियंत्रण तो स्थापित हुआ नहीं, मोदी सरकार को अनुदार छवि और मिल गई।
हैदराबाद के केंद्रीय विश्वविद्यालय का विवाद वामपंथी छात्र आंदोलनकारियों के खिलाफ भाजपा/अारएसएस की विद्यार्थी शाखा एबीवीपी की शिकायत के साथ शुरू हुअा। इसमें पक्ष लेने के कारण दो केंद्रीय मंत्री भी उलझ गए। नतीजा यह हुआ कि एबीवीपी के प्रतिद्वंद्वी निलंबित हो गए और फिर उनमें से एक रोहित वेमुला ने दुर्भाग्य से खुदकुशी कर ली। भाजपा के वरिष्ठतम नेता स्वीकार कर रहे हैं कि यह मामला उनके लिए बहुत खराब रहा है, खासतौर पर तब जब उत्तरप्रदेश सहित कई राज्यों में अगले साल चुनाव हैं, जिनमें दलित वोट बैंक निर्णायक होगा। यह ऐसी स्थिति है, जिसका बचाव नहीं किया जा सकता।
अब जेएनयू भी उसी दिशा में बढ़ रहा है। वहां लगाए गए नारे अाक्रामक, मूर्खतापूर्ण और भड़काऊ थे। उनसे मुझे भी उसी तरह गुस्सा आया, जैसा किसी भी सही सोच रखने वाले भारतीय को आएगा। जब 2010 में छत्तीसगढ़ में सीआरपीएफ के 76 जवान शहीद हुए और वहां इसके जश्न में नारे लगाए गए तब भी मुझे गुस्सा आया था। किंतु जेएनयू परिसर में पुलिस प्रवेश के साथ देशद्रोह के आरोप में छात्र संघ के चुने हुए नेता की गिरफ्तारी क्या उचित प्रतिक्रिया है? उद्देश्य, वक्त अौर संघर्ष की जगह, सारे ही मानकों पर यह गलत है। यदि भाजपा को जेएनयू की वामपंथी विचारधारा से चिढ़ है, तो इसे संभवत : श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नाम पर नई यूनिवर्सिटी की स्थापना कर, दक्षिणपंथी विचारधारा के सर्वश्रेष्ठ प्राध्यापकों और बुद्धिजीवियों को लाकर इसका जवाब देना चाहिए। बौद्धिक ताकत से लड़ाई वफादार पुलिस के डंडे और हथकड़ी के बल पर नहीं बल्कि बौद्धिकता से ही लड़नी चाहिए।
मुंबई में मेक इन इंडिया के मौके पर नरेंद्र मोदी ने अभिनेता आमिर खान के बालों पर सदाशयता से हाथ फेरकर आलोचकों को निरुत्तर कर दिया, जबकि उनके वफादार असहिष्णुता की टिप्पणी को लेकर अभिनेता के पीछे पड़े हुए हैं। यह जेएनयू से निपटने का भी सही तरीका है। या शायद वाजपेयी इस स्थिति में जो कहते वह बेहतर होता, ‘छोकरे हैं, बोलने दीजिए।’ कैम्पस की लड़ाई में फंसना, सभी के लिए भयावह होगा।