तीन वर्षों में पहली बार कांग्रेस नेताओं के चेहरे पर मुस्कान है। ऐसा लग रहा है मानो पार्टी में नई जान आ रही है। हां, सुधार नजर आ रहा है लेकिन यह उनकी अखबारी पन्नों की सुर्खियों में वापसी और पांच अन्य बातों तक सीमित है। पहला, बिहार में उनकी अधिक जमीनी और विनम्र रणनीति की सफलता। दूसरा, रतलाम लोकसभा चुनाव में जीत। सत्ताधारी दलों के उपचुनाव हार जाने में कुछ भी अजीब नहीं है लेकिन यह हार भाजपा की पकड़ वाले राज्य में हुई है जहां कांग्रेस को 2014 में केवल दो सीटें नसीब हुई थीं (उसे कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया की निजी जीत कहा जा सकता है)। चीजों को और साफ समझना हो तो अगर आप कश्मीर से चलते हुए कर्नाटक की सीमा तक पहुंचें तो यह 175 में से केवल 9वीं लोकसभा सीट है जो कांग्रेस के पास है। तीसरा, मोदी-शाह की जोड़ी के उदय के बाद पहली बार भाजपा में (खासकर वरिष्ठों की) असहमति खुलकर सामने आ रही है। चौथा, दिल्ली से अधिक बिहार ने यह दिखाया है कि मोदी-शाह के रथ को रोका जा सकता है, बशर्ते कि विपक्ष एकजुट हो। इससे अगले 18 महीनों में होने वाले चुनावों की जमीन भी तैयार होती है। इस बात ने नागरिक समाज, बौद्घिक जगत और लोकप्रिय विमर्श में भाजपा के कई आलोचकों को साहस प्रदान किया है। प्रेरित नजर आ रहे कर अधिकारियों और पुलिस का डर कमजोर पड़ा है। पांचवां, राहुल गांधी मुखर हुए हैं और अब वे ज्यादा नजर भी आ रहे हैं। इससे कांग्रेस के अनुयायी और प्रतिपक्षी दोनों में उत्तेजना का माहौल है।
कांग्रेस ने संसद के सत्र की शुरुआत अपेक्षाकृत बेहतर ढंग से की है और उसने पंजाब में अपने संगठन में बदलाव किए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी को जीएसटी विधेयक पर चर्चा के लिए आमंत्रित किया जाना कोई बहुत बड़ी घटना नहीं है परंतु इसके महत्त्व को समझा जा सकता है क्योंकि भाजपा ने संसदीय मर्यादा का पालन करते हुए कांग्रेस को नेता प्रतिपक्ष का पद तक देने से इनकार कर दिया था। उस लिहाज से देखाा जाए तो यह आमंत्रण राजनीति के सामान्य होने की ओर संकेत है। परंतु अच्छी खबरों का सिलसिला यहीं थम जाता है। कांग्रेसी जिस सुधार को महसूस कर रहे हैं वह भावनात्मक अधिक है और जमीनी कम। हकीकत यह है कि सन 1989 के बाद से कांग्रेस लगातार पराभव की ओर है। वह सन 1991-96 और 2004-14 के बीच दो बार सत्ता में आई लेकिन चूंकि यह आलेख एक प्रमुख कारोबारी दैनिक में छप रहा है तो मैं इसे बाजार से जुड़ा एक जुमला प्रयोग कर ‘डेड कैट बाउंस’ (किसी शेयर में भारी गिरावट के बाद अचानक उछाल आना क्योंकि सटोरिये अपनी स्थिति सुधारने के लिए खरीद करते हैं) कह सकता हूं। कह सकते हैं कि कांग्रेस का स्वरूप इतना विराट था कि पतन के बीच भी वह दोबारा सत्ता में आने में सफल रही। लेकिन याद रखिए कि सन 1984-89 की लोकसभा में यह पार्टी 415 सीटों पर थी, 1991 में यह 244 पर आई और 2009 में यह 206 सीटों पर रही। अब रतलाम जीत के बाद पार्टी के 45 लोकसभा सदस्य हैं।
सीटों से भी अधिक अहम मत हिस्सेदारी है। वर्ष 2004 और 2009 को हटा दिया जाए तो हिंदी पट्टी और गुजरात में कांग्रेस की हिस्सेदारी लगातार घटी है। इन दो वर्षों के अलावा उसका औसत बमुश्किल 20 फीसदी से अधिक रहा। इसमें लगातार लंबे समय से गिरावट का रुख है। अगर प्रमुख राज्यों के मत प्रतिशत में आए बदलाव को देखा जाए तो चीजें और अधिक स्पष्टï होती हैं। कांग्रेस में गिरावट के समांतर ही भाजपा तथा क्षेत्रीय दलों के प्रदर्शन में सुधार हुआ है। कहा जा सकता है कि भाजपा कांग्रेस के हिस्से के कुछ ही मत बटोर रही है जबकि ज्यादातर क्षेत्रीय दलों के खाते में जा रहे हैं।
निजी राज्यों का विश्लेषण बताता है कि जहां भी कांग्रेस जैसी विचारधारा वाला कोई स्थानीय दल सामने आया, पार्टी के मत उसके खाते में चले गए। इसकी शुरुआत हिंदी क्षेत्र में मंडल की राजनीति करने वाले दलों और मायावती के साथ हुई। उसके बाद ओडिशा में उसका स्थान नवीन पटनायक, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, सीमांध्र और तेलंगाना में जगन मोहन रेड्डी और के चंद्रशेखर राव और अंतत: दिल्ली में आप नेता अरविंद केजरीवाल ने लिया। आप ने दिल्ली में 70 में जो 67 सीटें जीतीं उनमें कांग्रेस के वोट ही सर्वाधिक थे। कांग्रेस का मत प्रतिशत वर्ष 2008 के 40.3 फीसदी से घटकर 9.7 फीसदी पर आ गया। जबकि भाजपा को करीब 32 फीसदी मत मिले जो 2008 के 36.34 प्रतिशत से कुछ ही कम थे। यह बात भी अहम है कि जब भी कांग्रेस ने अपना मत प्रतिशत किसी के हाथ गंवाया है तो वह शायद ही उसे दोबारा हासिल कर सकी। कम से कम हाल के दिनों में तो ऐसा नहीं हुआ है। पंजाब में आप के बढ़ते प्रभाव के बाद कहा जा सकता है कि 2017 में वहां भी यह किस्सा दोहराया जाएगा।
हमने ऊपर जिन पांच सकारात्मक बातों का जिक्र किया उनसे सुधार में कोई मदद मिलने की उम्मीद नहीं। कांग्रेस में नेताओं, बड़े विचारों, स्पष्ट लक्ष्य और सबसे अहम बात आंतरिक लोकतंत्र का अभाव है। पार्टी के आंतरिक संस्थानों की हालत बहुत खराब है और उनमें नई जान फूंकना मशक्कत का काम है। नेताओं की कमी पार्टी की बड़ी कमजोरी है। अधिकांश वरिष्ठ नेता बूढ़े हो चले हैं। भाजपा पर एक नेता के इर्दगिर्द घूमने का आरोप लगाया जा सकता है लेकिन कांग्रेस ने इसे संस्थागत रूप प्रदान किया है।
गांधी परिवार से संकेत लेते हुए कांग्रेस के कई नेताओं ने अपने छोटे-छोटे घराने विकसित किए हैं। इससे आंतरिक प्रतिस्पर्धा और अवसर खत्म हुए हैं। भाजपा के लिए मोदी ने अपने राज्य में सभी सीटें जीतीं, वसुंधरा राजे ने राजस्थान, रमन सिंह ने छत्तीसगढ़ और शिवराज सिंह चौहान ने मध्य प्रदेश में कमोबेश ऐसा ही करिश्मा किया। कांग्रेस के पास ऐसा कोई नेता नहीं। ऐसे आखिरी नेता वाईएसआर थे। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, झारखंड और यहां तक कि महाराष्ट्र और गुजरात में कोई नेता नहीं है। पार्टी के इकलौते मजबूत नेता सिद्घरमैया कर्नाटक में हैं, वह भी आयातित नेता हैं।
पार्टी को अगले साल विधानसभा चुनावों में प्रतिभा की कमी से जूझना होगा। वह असम में तीन कार्यकाल से काबिज हैं लेकिन गोगोई बहुत बुजुर्ग हो चुके हैं। युवा गोगोई अभी तैयार नहीं हैं, हेमंत विश्वशर्मा हताश होकर भाजपा में चले गए। अगर भाजपा ध्रुवीकरण की नीति पर टिकी रहती है तो बिहार जैसा गठबंधन कांग्रेस को असम में अप्रत्याशित अवसर प्रदान करेगा। लेकिन एक बड़े चेहरे की गैरमौजूदगी उसे परेशान करेगी। वर्ष 2014 में कांग्रेस का मत प्रतिशत गिरकर 20 फीसदी से कम के न्यूनतम स्तर पर आ गया। लेकिन अगर आप मत प्रतिशत और सीट से इतर नजरिये से देखें तो उसे 11.5 करोड़ मत मिले। उसके पास वक्त है लेकिन उसे एकजुट रहना होगा। कई साल पहले सिंगापुर के एक शीर्ष राजनयिक ने मुझसे कहा था- आपके नेता जितने वर्षों तक सार्वजनिक जीवन में रहते हैं, और राहुल की जो उम्र है, उसे देखकर कहा जा सकता है कि एक दिन वह आपके प्रधानमंत्री होंगे। ऐसा अब अनिवार्य नहीं है। कांग्रेस को वापसी करने के लिए कुछ अप्रत्याशित प्रयास करने होंगे।