आप इस प्रश्न को कई अंदाज में पूछ सकते हैं। मसलन, भारतीय पत्रकारिता ने आत्मघात कब किया, या इसके आत्मघात की शुरुआत कब हुई या फिर क्या यह आत्मघात की राह पर है? मैं तीसरे का चयन करता हूं। हालांकि पहला बहुत लुभावना है लेकिन अपनी ही पेशेवर और संस्थागत मौत से जुड़ी बात पर क्या खुश होना? आखिर कब से हमने अपने आपको यानी पत्रकारों ने खुद को सरकारी प्रवक्ता, दूसरों की नैतिकता का पहरुआ और मातृभूमि का सिपाही समझना शुरू कर दिया? हम ने राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति के मसले से जुड़े प्रश्न पूछने क्यों बंद कर दिए मानो यह ब्रेझनेव का मॉस्को हो? किसी को अजीब क्यों नहीं लगता है या कोई प्रश्न क्यों नहीं उठाता है जब तमाम वरिष्ठ पत्रकारों समेत अधिकांश पत्रकार देश के बारे में और सरकार की विदेश नीति के बारे में बात करते वक्त ‘हम’, ‘हमारा’ आदि शब्दों का प्रयोग शुरू कर देते हैं? मिसाल के तौर पर ‘हम जानते हैं कि तुम अमेरिकियों के पाकिस्तान के साथ जटिल रिश्ते हैं जो हमारे प्रतिकूल जाते हैं लेकिन तुम भी हमसे यह उम्मीद नहीं कर सकते कि हम तुम्हारी चिंताओं को लेकर संवेदनशील बने रहेंगे।’ हमारी पत्रकारिता के इस पड़ाव पर आखिर गलत यह है कि हम सहजता से अपने आपको सामूहिक प्रतिष्ठान का हिस्सा मान बैठे हैं।
पाकिस्तानी पत्रकार और टीकाकार अक्सर कहते हैं कि भारतीय मीडिया विदेश नीति और सैन्य नीतियों के मामले में उनकी तुलना में अधिक संस्थानवादी है। कठोर सत्य यह है कि कुछ पाकिस्तानी खबरों (ज्यादातर अंग्रेजी में) ने लगातार और बड़े साहस के साथ अपने सरकारी प्रतिष्ठान की नीतियों, उनके दावों पर सवाल उठाए हैं। इसमें कश्मीर नीति में कमी खोजना, आतंकी समूहों के पोषण और नागरिक-सैन्य रिश्तों पर सवाल शामिल हैं। रजा रूमी, हुसैन हक्कानी जैसे कुछ लोगों को निर्वासित कर दिया गया जबकि नजम सेठी जैसे पत्रकारों को जेल तक में डाल दिया गया। भारतीय पत्रकारों की दलील यह रही है कि नागरिक-सैन्य मुद्दों, अपारदर्शी नीतियों, आतंकी समूहों के पोषण आदि के मुद्दे विशिष्ट तौर पर पाकिस्तान से जुड़े हैं। भारत एक अधिक बेहतर लोकतंत्र है और यहां की सेना राजनीतिक नहीं है। इसलिए यहां वैसी कोई दिक्कत भी नहीं है। कहा यह भी जाता है कि जहां जरूरी होता है हम प्रश्न भी करते हैं। कोई भी भारतीय मीडिया पर उस वक्त की सरकार का अंध समर्थक होने का आरोप नहीं लगा सकता है जब तमिल मुक्ति चीतों को प्रशिक्षण दिया जा रहा था और हथियारबंद किया जा रहा था। सन 1984 में इंडिया टुडे ने मुझे यह खबर सामने लाने दी थी और उस वक्त शक्तिशाली मानी जाने वाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने हमें राष्ट्र विरोधी कहा था। या फिर बाद में भारतीय शांति सैनिकों के हस्तक्षेप, ऑपरेशन ब्ल्यूस्टार से लेकर बस्तर और कश्मीर घाटी तक सेना के प्रयोग की भी लगातार आलोचना की गई। इस पर काफी बहस हुई और सवाल उठाए गए। शीत युद्घ के बाद हमारी विदेश नीति पर और जमकर बहस हुई। भारत-अमेरिका परमाणु समझौता इसका बड़ा उदाहरण है।
लेकिन हालात में बदलाव आता गया। उड़ी की घटना के बाद इकलौता टीवी पत्रकार जो पूरे साहस से यह सवाल उठा रहे थे कि आखिर कैसे चार हल्के हथियारों से लैस आतंकी नियंत्रण रेखा से दो किमी दूर एक ब्रिगेड के मुख्यालय की सुरक्षा व्यवस्था में सेंध लगाने में सफल रहे, वह थे इंडिया टुडे पर करण थापर। इस चूक को स्वीकार करने वाले थे सेवानिवृत्त लेफ्टिनेट जनरल जे एस ढिल्लों। जनरल ढिल्लों ने सन 1987 में जाफना में एक टुकड़ी का नेतृत्व किया था। उनकी टुकड़ी सबसे कम नुकसान के साथ सबसे तेजी से अंदर घुसने में कामयाब रही।
जिस बदलाव की बात कर रहा हूं उसकी शुरुआत करगिल से हुई थी। करगिल जंग की शुरुआत तीन सप्ताह तक दोनों पक्षों के इनकार के बीच हुई। इसका नतीजा यह हुआ कि सेना के जनरलों से पहले पत्रकार वहां जा पहुंचे। इससे सेना की वहां कार्रवाई कर रही टुकडिय़ों और पत्रकारों के बीच गैर इरादतन लेकिन परस्पर लाभ वाला गठजोड़ आकार लेने लगा। एक ऐसा निजी और पेशेवर रिश्ता कायम हुआ जो किसी ने थोपा नहीं था। आखिर में यह सबके फायदे का सौदा रहा। भारत की विश्वसनीयता मजबूत हुई क्योंकि उसने स्वतंत्र प्रेस को बिना रोकटोक वहां जाने दिया। सेना की बहादुरी के किस्से देश भर में फैले और पत्रकारों को भी चमक बिखरने का मौका मिला।
आखिर इतनी बड़ी संख्या में पाकिस्तानी किस तरह से आने में सफल हुए और हमें इसकी जानकारी होने में इतना वक्त कैसे लग गया और असली हालत जानने के लिए हमने छोटे गश्ती दलों को आगे क्यों भेजा। कई महीनों से जारी घुसपैठ रोकने में आखिर कौन नाकाम रहा और घुसपैठ की गंभीरता का अंदाजा लगाने की जिम्मेदारी किसकी थी? इसका परिणाम यह हुआ कि किसी पर भी गाज नहीं गिरी। स्थानीय ब्रिगेड कमांडर को बलि का बकरा बनना पड़ा लेकिन सशस्त्र बल न्यायाधिकरण से उसे भी अभयदान मिल गया।
हम भारतीय सेना के जांबाज युवा अधिकारियों और सैनिकों की दिलेरी की कहानी को पेश करने में सही थे। लेकिन राजनीतिक और सैन्य प्रतिष्ठानों को उनकी गंभीर अक्षमता के बाद भी छोड़ देना गलत था। सैन्य कमांडरों की नाकामी से अधिक गंभीर कुछ नहीं होता है और यही वजह है कि परंपरागत सेना से अधिक जवाबदेही की उम्मीद की जाती है। करगिल में कई बहादुर जवानों और युवा अधिकारियों को वीरता सम्मानों से नवाजा गया लेकिन ऊंचे पदों पर बैठे दोषियों को छोड़ दिया गया। भारतीय मीडिया भी सेना के इस वीरता गान में समाहित हो गया। हमने इससे एक और गलत सबक यह सीख लिया कि पत्रकार भी जंगी मुहिम का हिस्सा होते हैं और अपनी सेना की ताकत को बढ़ाने में योगदान देते हैं। ये दोनों बातें सही हो सकती हैं लेकिन ऐसा सच्चाई जानकर और कहकर ही किया जा सकता है, न कि सेवानिवृत्त पाकिस्तानी जनरलों पर चिल्लाकर या अपने चैनल स्टूडियो को वार रूम में तब्दील कर ऐसा कर सकते हैं। कोई आश्चर्य नहीं है कि भारत में साइरल अलमीडा या आयशा सिद्दीकस की तरह का कोई पत्रकार नहीं है जो कड़वी सच्चाई को भी कहने की कूवत रखता हो, भले ही इसके लिए उसे ‘दुश्मन’ का प्रवक्ता ही क्यों न घोषित कर दिया जाए।
भारतीय समाचार जगत के टेलीविजन सितारों को देखने से पत्रकारिता के आत्म-विनाश को समझा जा सकता है। इन सितारों ने स्वेच्छा से ही खुद को काफी हद तक प्रचारक और नगाड़ा पीटने वाले उद्घोषकों की कतार में खड़ा कर लिया है। निस्संदेह उनका यह अंदाज चैनल के लिए व्यावसायिक नजरिये से कामयाब साबित होता है। हालांकि नकल करने वालों को इससे उतना फायदा नहीं होता है, इसके बावजूद वे इसे छोडऩे का मोह नहीं त्याग पाते हैं। भारतीय टेलीविजन के लड़ाकू रूप को देखते हुए गब्बर सिंह के अंदाज में ‘कितने पाकिस्तानी थे’ जैसा सवाल पूछने का विकल्प तलाश पाना आसान नहीं है।
उड़ी हमले के बाद मीडिया अलग-अलग धड़ों में बंट गया है। एक बड़े हिस्से का दबदबा दिख रहा है जो सरकार और सेना के दावों पर कोई भी सवाल नहीं खड़ा करता है। दूसरी तरफ एक ऐसा समूह है जो संख्या में कम है लेकिन दावों पर सवाल खड़े करने से पीछे नहीं हटता है। यह तबका सरकार के दावों पर सबूत की मांग करता है। पत्रकारिता में कदम रखने वाले हर युवा को यह बताया जाता है कि सरकार हमेशा छिपाने की कोशिश करती है लेकिन पत्रकार का काम उसे खोज निकालना है। एक समूह कहता है कि उसे सबूतों की जरूरत नहीं है लेकिन दूसरा कहता है कि सबूतों के अभाव में वह आपके दावों को झूठा मानेगा। अब यह मत पूछिए कि भारतीय पत्रकारिता क्यों अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रही है?