scorecardresearch
Wednesday, November 6, 2024
Support Our Journalism
HomeSG राष्ट्र हितआईपीएल : तमाशा या खेल संस्कृति का वाहक

आईपीएल : तमाशा या खेल संस्कृति का वाहक

Follow Us :
Text Size:

अगर आप महाराष्ट्र के बड़े शहरों में आयोजित हो रहे इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) और राज्य के अंदरूनी इलाकों में बनी सूखे की स्थिति के बीच संबंध तलाश करेंगे तो इसका उत्तर इस बात पर निर्भर करेगा कि आप आईपीएल की दो में से किस परिभाषा को प्राथमिकता देते हैं। तमाशा या खेल? इसके अलावा आप इसे बुर्जुआ वर्ग का पतनशील खेल मानते हैं या जनता का मनोरंजन करने वाला स्वस्थ खेल। आप यह भी कह सकते हैं: अमीरों के लिए, अमीरों के द्वारा अथवा अमीरों के स्वामित्व और फंडिंग वाला। यह बात प्रत्यक्ष भी है कि हमारे अधिकांश बौद्घिक और तर्कशील बुर्जुआ और टीवी स्टूडियो में बैठे जंगजू, इन सबने हर बार पहली परिभाषा को चुना। माननीय बंबई उच्च न्यायालय ने इसकी पुष्टि भी की।

आईपीएल के मई में होने वाले मैचों को महाराष्ट्र से बाहर कराने का आदेश देकर और राज्य की आईपीएल फ्रैंचाइजी से सूखा राहत में मदद देने को कहकर अदालत ने कुछ निष्कर्ष तय कर दिए हैं। पहला, जब महाराष्ट्र में ट्वेंटी-ट्वेंटी विश्व कप हो रहा था तब वहां कोई समस्या नहीं थी। आखिरकार वह देशों के बीच की स्पर्धा थी। दूसरी बात, आईपीएल का सीधा संबंध पूंजी निर्माण से है और इस क्रम में वह अमीरों (मालिकों) का मनोरंजन करने वाली स्पर्धा है, इसलिए उनको सूखा राहत में योगदान देना चाहिए।

एक बार अगर आप तमाशे की परिभाषा पर सहमत हो जाएं तो बाकी बातें तार्किक प्रतीत होने लगेंगी। अमीरों के लिए अतिरंजित तमाशा आयोजित करना और लाखों लीटर पानी की खपत (याद रखिए यह पैमाना आम बहस में मात्रा को खूब बढ़ाचढ़ाकर पेश करने के काम में आता है) एक किस्म की अश्लीलता है क्योंकि किसान सूखे से मर रहे हैं। यह बात मैचों को महाराष्ट्र से बाहर आयोजित कराने की दलील को उचित ठहराती है। इस बात को भी कि जो मैच अब दूसरी जगह नहीं कराए जा सकते वे बदले में नकद हर्जाना दें। इसके अलावा ऐसे सामान्य प्रश्न पूछने की आवश्यकता भी नहीं है कि आखिर घरेलू फ्रैंचाइजी को अपने घरेलू मैदान पर न खेलने देना कितना अनुचित है। दरअसल हमें पहले ही कहा जा चुका है कि यह खेल नहीं है तमाशा है।

आइए सबसे पहले यह स्वीकार करें कि हम कभी भी ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड या चीन की तरह खेलप्रेमी देश रहे ही नहीं। हां बीतते सालों के दौरान हम और अधिक खेल विरोधी हो गए हैं। पहली समस्या तो यही है कि हम प्रतिस्पर्धी खेल को राष्ट्रवाद से जोड़ देते हैं। जब भारत किसी और देश के साथ खेलता है तो यह खेल होता है और तब चाहे सूखा हो या सूनामी आए, खेल चलना चाहिए। लेकिन अगर यह मामला दो क्लबों के बीच का हो और इसमें खेल और खिलाडिय़ों पर काफी पैसा दांव पर लगा हो तो यह खेल के बजाय सर्कस बन जाता है।

जिन समाजों का खेल से खास सरोकार नहीं वे राष्ट्रवाद की थोथी भावना में खेल को तब तक प्यार नहीं करते हैं जब तक कि उसके साथ राष्ट्रीय सम्मान न जुड़ा हो। आपको हॉकी की कोई फिक्र नहीं है क्योंकि उसमें हमने अपना आखिरी ओलिंपिक मेडल सन 1980 में जीता था, वह भी मॉस्को में जहां स्पेन को छोड़कर हॉकी खेलने वाला कोई दिग्गज देश नहीं आया था। इस प्रक्रिया में घरेलू हॉकी समाप्त हो गई। घरेलू हॉकी लीग की बात करें तो नेहरू कप से लेकर बेटन कप तक प्रतियोगिताएं या तो खत्म हो गईं या फिर उन्हें शायद ही कोई देखता है। हॉकी को संरक्षण देने वाले संस्थान मसलन सेना, पुलिस, अद्र्घसैनिक बल, इंडियन एयरलाइंस, रेलवे आदि ने भी इसमें रुचि खो दी क्योंकि न तो इसके साथ सम्मान जुड़ा था और न ही घरेलू स्पर्धा जीतने से कोई सुर्खी बनती थी। अब तो ज्यादातर लोगों को पता भी नहीं होगा कि एक वक्त सिख रेजिमेंटल सेंटर, बंगाल इंजीनियरिंग ग्रुप (सेना से), इंडियन एयरलाइंस, रेलवे, पंजाब पुलिस और बीएसएफ के पास विश्वस्तरीय हॉकी टीम थंी जिनसे मिलकर ही राष्ट्रीय टीम बनती थी। आप किसी खेल को घरेलू स्तर पर जिंदा नहीं रख पाते और विश्व स्तर पर पदक की आशा करते हैं। फुटबॉल के साथ भी यही हुआ। डूरंड कप से लेकर बारदोलोई ट्रॉफी तक हमारे बड़े घरेलू टूर्नामेंट अप्रासंंगिक हो गए। आज फुटबॉल एक ऐसा क्षेत्र है जहां हमारी वैश्विक रैंकिंग मानव विकास सूचकांक से भी नीचे चली गई है।

राष्ट्रीय गौरव के लिए खेल बहुत अच्छा है लेकिन घरेलू प्रतिस्पर्धा बनते ही वह बेकार हो जाता है। नए शिक्षित और आकांक्षी भारतीयों में यह धारणा गहरे तक घर कर गई है। शिक्षक, मातापिता, टेलीविजन पर आने वाले लोग सभी यह बात दोहराते हैं कि युवाओं को पढ़ाई करनी चाहिए, बजाय कि खेल के अपना समय बरबाद करने के। हम सभी अपने मां बाप, शिक्षकों, बाबाओं आदि से यही सुनते हैं कि पढ़ोगे, लिखोगे, बनोगे नवाब, खेलोगे, कूदोगे, हो जाओगे खराब।

हमारे समाज में ही तमाम न्यायाधीश मौजूद हैं। क्या आप देखना चाहते हैं कि किस तरह खेलों को पढ़ाई के बरअक्स रखने, प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं को एथलेटिक्स, कुश्ती की मैट या एस्ट्रोटर्फ के समक्ष रखने ने हमारे खेलों को बरबाद कर दिया है? विजय हजारे कप, कूचबिहार और रोहिंटन बारिया ट्रॉफी जैसी हमारी स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय स्तर की क्रिकेट प्रतियोगिताओं के साथ जो भी हुआ लेकिन उन्होंने बहुत बड़े पैमाने पर क्रिकेटर पैदा किए। दिल्ली में सेंट स्टीफंस और हिंदू कॉलेज, चंडीगढ़ में डीएवी बनाम पंजाब यूनिवर्सिटी जैसी ऐतिहासिक क्रिकेट प्रतिद्वंद्विताएं अब नदारद हैं। ये चारों कैंपस राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी पैदा किया करते थे। यह सब खत्म हो गया क्योंकि हर कोई आईआईटी, जेईई, जीमैट या सैट की कोचिंग करने में लगा है।

खेल कोटे से दाखिला समाप्तप्राय है क्योंकि संस्थान अब खेलों में मिलने वाली सफलता की कद्र नहीं करते। हर कोई सीबीएसई में बढिय़ा नतीजे और कॉलेज में बढिय़ा रैंकिंग चाहता है या फिर कैंपस प्लेसमेंट। संस्थाओं में खेल संस्कृति के पराभव का सबसे बड़ा उदाहरण हमारे सैन्य बल हैं। 45 से कम उम्र के अधिकांश लोगों को पता भी नहीं होगा कि रणजी ट्रॉफी में सर्विसेज की टीम कितनी मजबूत होती थी और भारत की कप्तानी कर चुके हेमू अधिकारी वहीं से आते थे। हाल ही में बॉलीवुड की वजह से सुर्खियों में आए मिल्खा सिंह और पान सिंह तोमर समेत हमारे अधिकांश एथलीट सेना के थे। बॉक्सिंग जैसे खेल में उसका पूरा दबदबा था। निशानेबाजी (जिसका श्रेय हरियाणा को) को छोड़ दिया जाए तो सशस्त्र बल गोल्फ जैसी कॉर्पोरेट संस्कृति की ओर बढ़ गए हैं।

लेकिन एक आईपीएल ने देश में यह सब बदल दिया। दर्शक घरेलू क्रिकेट की ओर वापस लौटे। विज्ञापनदाता, प्रयोजक और अमीर वर्ग इस खेल से जुड़ा हर वर्ष कम से कम 150 क्रिकेटरों को अच्छे खासे डॉलर में रकम मिलती है। इनमें से अधिकांश को राष्ट्रीय टीम में जगह तक नहीं मिलती। तमाम संन्यास ले चुके खिलाड़ी भी कोच, मेंटर, सीईओ के रूप में टीमों से जुड़े हुए हैं। इसकी सफलता के बाद ही हॉकी, बैडमिंटन, फुटबॉल और कबड्डïी जैसे खेलों में लीग शुरू हुई और खिलाडिय़ों के पास पैसा आया। क्रिकेट खेलने वाले हर देश ने अपनी लीग शुरू की। इसमें पाकिस्तान, बांग्लादेश और वेस्टइंडीज तक शामिल हैं। क्लब स्तर का खेल तमाशा नहीं है। यह बहुत प्रतिस्पर्धी कारोबार है और जनता के मनोरंजन का सबसे स्वस्थ तरीका। खासतौर पर एक ऐसे मुल्क में जहां शारीरिक मेहनत की संस्कृति ही नहीं है। कारोबारी तरीके से चल रही घरेलू लीग भारतीय खेलों में नई जान फूंक रही हैं। और हां, सूखा उनकी वजह से नहीं पड़ता।

एक अलग स्तर पर क्लब के प्रति वफादारी पनपती है। अलग-अलग देशों के खिलाड़ी एक टीम के लिए खेलते हैं। इससे खेलों में अतिराष्ट्रवाद की धार कुंद होती है। मेरे लिए सबसे बेहतरीन पल तब आया था जब फुटबॉल के यूरो कप 2000 में फ्रांस और हॉलैंड का मैच चल रहा था। फ्रांस के मिडफील्डर पैट्रिक विएरिया ने स्वत:स्फूर्त ढंग से गेंद डच विंगर मार्क ओवरमार्स की ओर बढ़ा दी। उसके बाद दोनों ने एक दूसरे को देखा और शर्मिंदा होकर मुस्कराए। दोनों देशों के लाखों हिमायती दर्शक हंस पड़े। दोनों खिलाड़ी आर्सेनल की टीम में एक साथ खेलते थे। ईपीएल, यूरोपियन, लैटिन लीग आदि निहायत गंभीर लीग हैं न कि तमाशा। हमारे अभिजात्य वर्ग को जिनमें न्यायाधीश भी शामिल हैं, इन प्रतियोगिताओं को देखना चाहिए।

Subscribe to our channels on YouTube, Telegram & WhatsApp

Support Our Journalism

India needs fair, non-hyphenated and questioning journalism, packed with on-ground reporting. ThePrint – with exceptional reporters, columnists and editors – is doing just that.

Sustaining this needs support from wonderful readers like you.

Whether you live in India or overseas, you can take a paid subscription by clicking here.

Support Our Journalism

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular