एक पंक्ति है, जो मैं प्राय: उस जड़ता को रेखांकित करने के लिए इस्तेमाल करता हूं, जो आमतौर पर हमारे दिमाग पर हावी रहती है। खेल में कहते हैं- दो प्रकार की टीमें होती हैं : एक जो पराजय के जबड़ों में से जीत खींच लेती है और दूसरी वह जो जीत के जबड़ों से पराजय खींच लाती है। हम भारतीय खास तीसरी तरह के लोग हैं, अपनी तर्कहीनता में बेजोड़ : हम दूसरे लोगों की पराजय को खींच लाते हैं। हम भूतकाल में वैश्वीकरण के साथ, फिर नब्बे के दशक वाला एशियाई आर्थिक संकट और कुछ नज़दीक 2008 की वैश्विक मंदी में हम ऐसा कर चुके हैं। हम पूर्वी व पश्चिमी बाजारों की सारी दिक्कतोंं के लिए आर्थिक सुधार और वैश्वीकरण को दोष दे रहे थे। या तो इस चिंता में थे कि ये दिक्कतें कभी न कभी जरूर हमारे यहां भी दस्तक देंगी, जबकि हमने उनके सुधारों व विनियमन को आंशिक तौर पर भी लागू नहीं किया था या वही ‘महाभूलें’ न करने के लिए खुद की पीठ थपथपा रहे थे।
याद है सोनिया गांधी ने कई बार दोहराया था कि भारत 2008 के आर्थिक संक्रमण से इसलिए बच सका, क्योंकि इंदिराजी ने हमारे बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। यह तब कहा गया जब हमारे राष्ट्रीयकरण के बाद आने वाले नए निजी बैंक अच्छी हालत में थे और कुल-मिलाकर भारतीय बैंकों को लेकर खतरे का कोई संकेत नहीं था। अब हम वही सब आईएसआईएस और वैश्विक जेहाद के मामले में कर रहे हैं।
इन दिनों एक बार मन बना लेने के बाद कोई भी तथ्य जानकर भ्रम में नहीं पड़ना चाहता। फिर भी ऐसा करना जरूरी हैं, जब हमारे सत्ता प्रतिष्ठान के माननीय सदस्य और टिप्पणीकार आतंक के खिलाफ ‘वैश्विक’ लड़ाई के पक्ष में सुर मिला रहे हैं। मानो आईएसआईएस के हमलावर भारत की दहलीज पर पहुंच गए हैं और यदि हम उन्हें वहीं न रोकें तो बहुत देर हो जाएगी। इसका असर यह है कि हमारे 15 करोड़ नागरिकों सहित सारे मुस्लिमों को एक ही रंग में रंगा जा रहा है। यह अद्भुत ढंग का मूर्खतापूर्ण, लेकिन जरा ज्यादा ही सरलीकरण है कि ‘भारतीय मूल’ के धर्मों के अनुयायियों ने कभी दूसरों के खिलाफ हिंसा का उपदेश नहीं दिया, जबकि ‘अब्राहमिक’ आस्थाओं में ‘दूसरे’ काफिर या नास्तिक हैं।
आइए दार्शनिक मुद्दों और इतिहास की दलीलों को पीछे छोड़ें, हालांकि हमारा अपना भारतीय इतिहास तब तक काफी कुछ हिंसक रहा है जब तक कि पहला मुस्लिम हमलावर मोहम्मद बिन कासिम 711 में सिंध नहीं पहुंचा। इतना हिंसक कि कलिंग के रक्तपात ने सर्वविजयी सम्राट अशोक को अहिंसक बौद्ध धर्म अपनाने पर विवश कर दिया। किंतु इस मामले को अभी यहीं छोड़ दें।
यह बात तो तय है कि भारत के सामने इस्लाम से प्रेरित आतंकवाद का खतरा तो है, लेकिन इसका अधिकतर उद्गम पाकिस्तान में है, जिसके पीछे लश्कर और इसके आका पाक सेना व आईएसआई की नफरत है, केवल इस्लाम नहीं। जेहाद का औचित्य ठहराने के लिए इस्लाम प्रेरणा देने वाला तत्व है, लेकिन इसके पीछे इरादा भारत को नुकसान पहुंचाना और शायद इसे नष्ट करना है या दिल्ली के लाल किले पर पाकिस्तानी झंडा फहराना है। लेकिन इसका मतलब इस्लामिक स्टेट की खिलाफत का यहां विस्तार करना नहीं है। मुझे बहुत सावधानी से इसे समझाना होगा। मैं जानता हूं कि अधिक सरलतावादी दिमाग तत्काल क्या निष्कर्ष निकाल लेंगे, यही कि मैं किसी तरह यह बताने की कोशिश कर रहा हूं कि पाकिस्तान द्वारा प्रशिक्षित इस्लामवादियों द्वारा नष्ट किया जाना या पराजित किया जाना किसी तरह आईएसआईएस द्वारा कुचले जाने से कमतर बुराई है।
मैं जो फर्क बता रहा हूं वह यह है : एक, पाकिस्तान की ‘वृहद योजना’ में भारतीय मुस्लिमों को स्वाभाविक सहयोगी नहीं माना गया है। दूसरा यह है कि भारत पर नज़र रखने वाली आईएसअाईएस खिलाफत जरूर मुस्लिमों को अपना सहयोगी मानती है। यह खतरनाक है। अब तक तो कश्मीर घाटी या पाकिस्तान में इक्का-दुक्का झंडा दिखने के अलावा आईएसआईएस की गतिविधियों का कोई संकेत नहीं है। भारत मंे 15 करोड़ की मुस्लिम अाबादी में से केवल चार संदिग्ध पकड़े गए हैं, जो या तो आईएसआईएस में गए थे या इसके लिए प्रयासरत थे और हमें बताया गया है कि 150 अन्य पर नज़र रखी जा रही है। यहां तक कि अपने चरम के दिनों में इंडियन मुजाहिदीन में भी सौ-दो सौ लोगों से ज्यादा नहीं थे। हर मुस्लिम धार्मिक संगठन, उलेमा और यहां तक कि पंथ आधारित राजनीतिक दल भी आईएसआईएस के खिलाफ हैं। हैदराबाद के भीतरी इलाकों में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ने होर्डिंग लगाकर आईएसआईएस को गैर-इस्लामी बताया है। मेरे साथ वॉक द टॉक इंटरव्यू में उन्होंने स्पष्ट रूप से मुझे यह बताया था।
मध्य-पूर्व में इस्लाम की समस्या उस क्षेत्र की विशिष्ट समस्या है। राज्य की पहचान स्थापित करने और उसकी ताकत दिखाने में वहाबी (सऊदी अरब) और शिया (ईरान), जैसे अति कट्टरपंथी इस्लाम के इस्तेमाल का यहां इतिहास रहा है। यहां पर बहुलता या बहु-सांस्कृतिकता का भी कोई इतिहास नहीं है कि सुन्नी, शिया, यजिदी कुर्द, तुर्क, ईसाइयों के विभिन्न पंथ, बेडूइन, हाशमी और बेशक यहूदी सारे शांतिपूर्वक रहे हैं। फ्रांस और ब्रिटेन सहित यूरोप द्वारा उपनिवेश बनाने तथा अमेरिका के हाल के हमले का यहां इतिहास रहा है। फिर इन बाहरी हस्तक्षेपों व हमलों के कारण बेवतन हो चुकी मुस्लिम आबादी और उनके पुराने यूरोपीय औपनिवेशिक आकाओं के बीच कई मुद्दे हैं। इनमें से कोई भी मुद्दा न तो आतंकवाद को जायज ठहरा सकता है और न उसका मूल कारण हो सकता है। लेकिन यह मुद्दा मध्य-पूर्व और यूरोप में मौजूद है।
अब हम खुद को इतना महत्वपूर्ण क्यों समझ रहे हैं कि संवैधानिक व्यवस्था को संरक्षित रखने की शपथ लेने वाले राज्यपाल तक कह रहे हैं कि मुस्लिम पाकिस्तान या बांग्लादेश जा सकते हैं? हमारे अखबारों व टीवी सहित हम क्यों आईएसआईएस के ‘खतरे’ को लेकर विक्षिप्त-से हो रहे हैं। बर्बर आतंकी हमारी दहलीज पर नहीं आ गए हैं और यदि ऐसा खतरा पैदा होता है तो भारत और भारतीय मुस्लिम इससे निपटने में पूरी तरह सक्षम हैं। हमें इस मूलभूत तथ्य पर गौर करना चाहिए कि उपमहाद्वीप के मुस्लिम, खासतौर पर भारतीय मुस्लिम ज्यादातर सूफी प्रेरणा लिए हुए हैं, जिससे आईएसआईएस की विचारधारा मूर्ति पूजा से भी अधिक नफरत करती है। उसी तरह उपमहाद्वीप के मुस्लिम आईएसआईएस से डरते हैं और उसका विरोध करते हैं। हमारे मुस्लिम और जिस तरह का इस्लाम उन्होंने अपनाया है, वह आईएसआईएस के संक्रमण के फैलाव के खिलाफ बहुत बड़ा अवरोध है। यदि आप उनके साथ आईएसआईएस के फिफ्थ कॉलम की तरह व्यवहार करेंगे तो आप नई यूरोपीय विक्षिप्तता और अनुदारवाद को गले लगाएंगे और इस तरह उनकी पराजय को अपने यहां खींच लाएंगे।