अगर राजनीतिक इतिहास को युगों में बांटा जा सकता तो इंदिरा गांधी के युग की शुरुआत 1969 में कांग्रेस के विभाजन के वक्त हुई। इसका अंत सन 1989 में हुआ जब राजीव गांधी से सत्ता छिनी। इसकी वजह बनीं दो उभरती राजनीतिक ताकतें: मंदिर और मंडल। कांग्रेस उस पराभव से कभी नहीं उबर पाई। हालांकि इसके बाद वह 15 वर्ष सत्ता में रही (पहले नरसिंहराव और उसके बाद सोनिया गांधी/मनमोहन सिंह)। इस दौरान वास्तविक शक्ति अलग-अलग चरणों में मंदिर और मंडल की संतानों में बंटी रही। ठीक वैसे ही जैसे क्रिकेट टेस्ट मैच में अलग-अलग सत्र प्रतिद्वंद्वी टीमों के नाम होते रहते हैं। अब वह युग समाप्त हो चुका है।
वर्ष 1989 के बाद की राजनीति उत्तर प्रदेश में भाजपा को मिली 325 सीटों की जीत और योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के साथ समाप्त हो चुकी है। अब मामला सत्ता के इधर या उधर जाने का नहीं रहा। यह मूलभूत बदलाव है। यह राजनीति के नए सिद्घांतों का लिखा जाना है। पुराने नियमों के दौर में भाजपा ने कल्याण सिंह और राजनाथ सिंह को उत्तर प्रदेश का मुखिया बनाया था। किसी भी उदार विचारों के व्यक्ति ने उन दोनों में से किसी को मुख्यमंत्री की गद्दी पर खुले दिल से स्वीकार किया होता। लेकिन अब नए कायदों में आपका सामना और अधिक ‘योगियों’ से होगा।
मुस्लिमों के अलावा एक या दो दबदबे वाली पिछड़ी या अनुसूचित जातियों को साथ लेकर चुनाव जीतने के दिन अब गए। मोदी और अमित शाह की राजनीति ने उसका अंत कर दिया। इस उभार को बल देने वाला ईंधन है हिंदुत्व। अब यह केवल राम मंदिर तक सीमित नहीं है। मंदिर के बारे में भी अब कमोबेश यह माना जाने लगा है कि आज नहीं तो कल वह हकीकत में बदल जाएगा। उसका कोई राजनीतिक प्रतिरोध होगा, यह भी नहीं लगता। देश के मुख्य न्यायाधीश इस मामले में मध्यस्थता की पेशकश कर चुके हैं। यह इस बात का संकेत है कि राजनीतिक जीत तय हो चुकी है।
यह कहना मिथक ही है कि इस बार उत्तर प्रदेश में मुस्लिमों, खासतौर पर महिलाओं ने भाजपा को वोट दिया है। सपा, बसपा और कांग्रेस के बीच 50 फीसदी वोट बंट गए जबकि भाजपा को 39.7 फीसदी मत मिले। अगर मुस्लिमों ने भाजपा के खिलाफ जमकर मतदान नहीं किया होता तो उन दलों को 50 फीसदी मत नहीं मिलते। दरअसल पिछड़े और दलित हिंदुओं ने इस बार पाला बदला और भाजपा का समर्थन किया। ऐसा उन्होंने किसी मंदिर के लिए या गो संरक्षण या श्मशान घाट के लिए नहीं किया। इनमें से किसी काम के लिए मोदी को योगी आदित्यनाथ की आवश्यकता नहीं। यह तो कोई भी पारंपरिक भाजपा नेता कर सकता है। हर कोई कह रहा है कि योगी, मोदी की पसंद नहीं थे। उन्हें आरएसएस ने थोपा है। यह कोरी अटकलबाजी है। अगर आप इनमें से किसी बात पर भरोसा करते हैं तो आप इस कदम की अहमियत नहीं समझ पाएंगे। सात दशक तक कांग्रेस अथवा कांग्रेस जैसी वाम-मध्य राजनीति हमारे केंद्र में रही है। अब भाजपा ने उसका स्थान ले लिया है। अतीत की तरह अब सारा प्रतिरोध उसके खिलाफ है। यानी भूमिकाएं बदल चुकी हैं। इसकी तुलना मोदी की 2014 की जीत या वाजपेयी-आडवाणी युग से नहीं की जा सकती। इसलिए कि अतीत में हर मुकाबला अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व कर रहीं धर्मनिरपेक्ष ताकतों, कुछ जाति आधारित दलों और भाजपा के बीच होता था जो असुरक्षित बहुसंख्यकों का लाभ लेना चाहती थीं। आज का हिंदू वोट पुरानी असुरक्षा से दूर हो चुका है। उसमें एक नए किस्म का आत्मविश्वास है, एक तरह का दंभ है।
सन 1995 में लंदन के इंटरनैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ स्ट्रैटजिक स्टडीज के लिए लिखे एक लेख में मैंने भाजपा के सत्ता में आने का अनुमान लगाया था। मेरी दलील थी कि भारत एक ऐसे दौर में प्रवेश कर रहा है जहां तमाम बहुसंख्यकों में अल्पसंख्यक को लेकर दुर्भावना घर कर गई है। आडवाणी और आरएसएस ने अपना अभियान इसे केंद्र में रखकर तैयार किया। अयोध्या इसी का प्रतीक था। हिंदुओं पर यह विश्वास करने का जोर डाला गया कि अल्पसंख्यकों, खासतौर पर मुस्लिमों और ईसाइयों को कांग्रेसी शैली की धर्मनिरपेक्षता में प्राथमकिता दी जाती है। हज सब्सिडी, मंत्रियों की भव्य इफ्तार पार्टियां, अल्पसंख्यक संस्थानों को कानूनी संरक्षण (शिक्षा का अधिकार समेत), पाकिस्तान का बढ़ता आतंकवाद और इस्लामीकरण की भावना ने इसे बढ़ावा दिया। कई बार भाजपा बहुत करीब पहुंची और 1998-2004 के बीच वह छह साल सत्ता में रही। हालांकि तमाम धर्मनिरपेक्ष ताकतें उसके खिलाफ एकजुट रहीं। लेकिन इस नीति की सीमाएं थीं। सुधारों के बाद दो दशक की वृद्घि ने निजी क्षेत्र में तमाम अवसर उत्पन्न किए, खासतौर पर शहरी हिंदू और ग्रामीण अमीर वर्ग के लिए।
वाजपेयी और आडवाणी ने 2004 में दोबारा सत्ता में आने की कोशिश में इंडिया शाइनिंग का नारा चुना। ऐसे में हिंदू भावनाओं के दोहन और भारत की चमकदार तस्वीर के बीच का विरोधाभास सामने था। ऐसे में तमाम उच्चवर्गीय हिंदू मतदाता पुराने विकल्पों की ओर लौट गए। यही वजह है कि संप्रग आतंकनिरोधी अधिनियम (पोटा) को खत्म करने मे कामयाब रहा। राज्य सभा में बहुमत न होने के चलते उसने संयुक्त सत्र बुलाया और भाजपा का विरोध बेकार चला गया। वृद्घि को लेकर इसी आशावादी रुख ने संप्रग को दूसरा कार्यकाल दिलाया।
नरेंद्र मोदी यह समझने में कामयाब रहे कि भाजपा का बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक का पुराना फॉर्मूला अब खारिज हो चुका है। वैसे भी उनकी राजनीतिक शैली में पीडि़त दिखने के लिए कोई जगह नहीं है। उन्होंने अल्पसंख्यकवाद की शिकायत करने के बजाय आतंक से निपटने की शैली प्रदर्शित की। मसलन अगर पोटा नहीं है तो क्या हुआ। मुठभेड़ तो हो ही सकती है। अगर आप वर्ष 2007 के बाद से चीजों का विश्लेषण करें (जब उनका दूसरा पूर्ण कार्यकाल शुरू हुआ) तो उन्होंने जो भी कदम उठाए या जो भी कहा वह सीधे तौर पर हिंदुओं की बढ़ती दिक्कतों से हिंदुओं के उभार की ओर संकेत था। यह भी माना जा सकता है कि वर्ष 2007 के बाद उन्हें यह भरोसा हो गया कि एक मजबूत राष्टï्रवादी हिंदू नेता के अधीन वृद्घि और विकास राजनीति में अधिक प्रासंगिक है। तब से वह अल्पसंख्यकों के प्रति भी रूखे नहीं रहे, न ही उन्होंने कोई क्षमाभाव दिखाया। यही वजह है कि उनके नए कदम मसलन इस्लामिक टोपी पहनने से इनकार, प्रधानमंत्री आवास में इफ्तार की पुरानी परंपरा खत्म करना, किसी मुस्लिम या ईसाई को मंत्रिमंडल में अहम पद न देना और अब उत्तर प्रदेश में 403 विधानसभा सीटों में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार नहीं उतारना आदि सब सोचे समझे कदम थे। वह राजनीतिक धर्मनिरपेक्षता और हिंदूवादी भारतीय राष्टï्रवाद को नए ढंग से परिभाषित कर रहे थे। योगी की नियुक्ति इसी कड़ी का हिस्सा है। मोदी-शाह की धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा में भारत एक आत्मविश्वास से परिपूर्ण, हिंदुओं के उभार वाला धर्मनिरपेक्ष देश है। अल्पसंख्यक अगर अपनी हैसियत समझेंगे तो वे सुरक्षित रहेंगे। देश के शासकों के काम में या उन्हें चुनने में कोई खास अहमियत उनकी नहीं होगी। हिंदू बहुसंख्यक अब अपनी जगह बना चुके हैं। वे पहले के मुकाबले बहुत अधिक दबदबा रख रहे हैं और हमेशा से ऐसा होना चाहिए था। अब क्षमाशीलता के दिन लद गए। योगी आदित्यनाथ का चुनाव भी उतना ही सोचा समझा कदम है जितना कि इस्लामी टोपी पहनने से इनकार करना।
कांग्रेस समेत कोई भी विपक्षी दल पुराने नारों या तरीकों से इसका मुकाबला नहीं कर सकता। उत्तर प्रदेश में इस बार वे परास्त हो चुके हैं। यह हार हिंदू कट्टïरता से उतनी नहीं है जितनी मोदी के तगड़े हथियारों से है। उनके राष्ट्रवाद ने बहुसंख्यकों की परेशानियों और असुरक्षा का स्थान ले लिया। अब तक कांग्रेस और वाम धर्मनिरपेक्षता ने राजनीतिक बहस तय की। मोदी ने अब बहस को राष्ट्रवाद की ओर मोड़ दिया है। जेएनयू शैली के अतिवामपंथ की विसंगतियों ने इसमें मदद की। इस भारत के हृदय में जॉन लेनन की कल्पना के सीमारहित, राष्ट्र रहित विश्व की कोई जगह नहीं है। दुनिया के अन्य हिस्सों में राष्ट्रवादी उभार भी यही संकेत देता है। जब तक विपक्ष से कोई ऐसा नेता सामने नहीं आता जो राष्ट्रवाद का मुकाबला राष्ट्रवाद से कर सके,तब तक मोदी अपराजेय हैं।