अगर आपकी पीठ पर कोई मस्सा हो जाता है तो आप उसे कमीज के नीचे छिपा लेते हैं और इंतजार करते हैं कि वह ठीक हो जाए। तभी अचानक आपके माथे पर वैसा ही कुछ नजर आता है और आपके लिए शर्मिंदगी का सबब बन जाता है। आप कोई क्रीम तलाश करते हैं, किसी की सलाह लेते हैं। लेकिन अगर आपके पूरे शरीर पर ही निशान पड़ जाएं तो आप क्या करते हैं?
तब आप घबरा जाते हैं। या कहें कम से कम आप सचेत होते हैं और चिकित्सक के पास भागते हैं। काफी संभव है कि चिकित्सक आपको कुछ जांच के लिए भेजे। यह कुछ भी हो सकता है। कुछ ऐसा जो गंभीर हो लेकिन इलाज के काबिल हो। मसलन कोई संक्रमण आदि। यह कैंसर या डायबिटीज जैसी किसी गंभीर बीमारी का लक्षण भी हो सकता है। लेकिन इसका हमारी सशस्त्र पुलिस बलों में उठे सवालों से क्या लेनादेना। इन दलों को आमतौर पर केंद्रीय अद्र्घसैनिक बलों के रूप में भी जाना जाता है।
इस सप्ताह दो वीडियो सोशल मीडिया पर नजर आए। उनमें से एक सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) के जवान का है और दूसरा केंद्रीय आरक्षी पुलिस बल (सीआरपीएफ) के जवान का। दोनों ही मामले चेहरे पर निकले मस्सों जैसे ही बदसूरत हैं। हमारे पास उनको छिपाने का विकल्प है लेकिन इससे हमें मुक्ति नहीं मिलने वाली। इससे हालात और बिगड़ेंगे। यही वजह है कि खाने की शिकायत करने वाले बीएसएफ के जवान के खिलाफ कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई करने जैसी बेवकूफी करने के पहले यह तय करना चाहिए कि आखिर राष्ट्रीय टेलीविजन पर एक वरिष्ठï अधिकारी ने उसकी छवि खराब कैसे और क्यों की। यह कदम न केवल मूर्खतापूर्ण था बल्कि इसने एक अहम सवाल पैदा किया- आखिर सशस्त्र बलों के ये कैसे अधिकारी हैं जो अपने ही सैनिकों को सार्वजनिक रूप से शर्मिंदा करते हैं?
अहम तथ्य यह है कि ये वीडियो पहली बार सामने नहीं आए हैं। पिछले कई साल से खासतौर पर केंद्रीय बलों के माओवादियों से निपटने की शुरुआत होने के बाद ऐसी शिकायतें बढ़ी हैं लेकिन उनको दबा दिया जाता है। लेकिन ये कभी हमारे जवानों की जुबानी तो कभी पाकिस्तानी प्रोपगंडा मशीनरी के जरिये सामने आती रहती हैं। सीआरपीएफ के घायल जवानों (एक डिप्टी कमांडेंट समेत) के तीन वीडियो सामने आए थे जिनमें उनका खून बह रहा है, वे रो रहे हैं और मदद के लिए चिकित्सकों को गुहार लगा रहे हैं जो जाहिर है नहीं हैं। ये वीडियो छत्तीसगढ़ के बताए गए। भारतीय मीडिया ने सावधानीपूर्वक इनसे दूरी बनाई। ये वीडियो पीठ पर हुई गांठ के समान थे जिनको छिपा लिया गया। लेकिन पाकिस्तानी प्रोपगंडा फैलाने वालों ने इनका खूब इस्तेमाल किया क्योंकि अब मनोवैज्ञानिक जंग भी साथ-साथ लड़ी जा रही है। सर्जिकल स्ट्राइक के बाद भी उन्होंने ऐसा ही किया था।
घायलों में शामिल डिप्टी कमांडेंट को साधारण बस से ले जाया जा रहा है और वह मदद के लिए चीख रहा है। वह लोगों से कह रहा है कि घर पर उसके दो बच्चे हैं और अगर वह बिना डॉक्टर के मर गया तो उनका क्या होगा? इसे भी आसानी से दबाया जा सकता था और यही किया गया। लेकिन इससे यह सच नहीं बदलेगा कि सैन्य बलों के बीच चिकित्सा सुविधाओं की कमी शर्म का विषय है। अब वे सेना की तरह ही जंग में मुब्तिला हैं। बीते दशक के दौरान सेना की तुलना में इन अद्र्घसैनिक बलों के दुगने जवान मरे क्योंकि अब लड़ाई सीमा पर कम भीतर ज्यादा हो रही है। खासतौर पर देश के पूर्वी और मध्य इलाके में माओवादी उभार के चलते। सेना के उलट उनके पास फील्ड अस्पताल और उन्नत डे्रसिंग केंद्र नहीं होते। वहां आपातकालीन बचाव की बेहतर व्यवस्था नहीं होती। हेलीकॉप्टर भी यदाकदा ही उपलब्ध होते हैं। छत्तीसगढ़ में हमने देखा कि कैसे वायुसेना के हेलीकॉप्टरों ने सीआरपीएफ के जवानों को बचाने के बजाय उन्हें छोड़ दिया जबकि उनके साथ वायु सेना के गरुड़ कमांडो भी थे।
इसके बचाव में तत्काल दलील दी गईं। मुझे नहीं पता कि अगर सेना के जवान जोखिम में होते तो भी क्या वह इतनी आसानी से हार मान लेती? सीआरपीएफ यह बात भूली नहीं है। न ही अद्र्घसैनिक बल उस बदसूरत (मैं यह शब्द जानबूझकर इस्तेमाल कर रहा हूं) प्रतिक्रिया को भूल सके हैं जब तत्कालीन सेना और वायु सेना प्रमुखों ने कहा था कि सशस्त्र बल अपने ही लोगों से नहीं लड़ेंगे। उनसे सबसे पहले यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि कश्मीर और पूर्वोत्तर की जनजातियों से लड़ते वक्त अपने लोगों से न लडऩे का यह सिद्घांत कहां चला जाता है। दूसरी बात जो ज्यादा प्रासंगिक है, उनके ऐसा कहने से नक्सली इलाकों में तैनात अद्र्घसैनिक बलों को कैसा लगता है।
आज के जवान पुरानी शैली के जवान नहीं हैं। वे पढ़े लिखे, जागरूक जवान हैं जो सवाल करने की ताकत रखते हैं और अपने और अपने बच्चों को लेकर महत्त्वाकांक्षाएं पालते हैं। पहला प्रश्न जो उसे पूछना ही चाहिए वह यह है कि एक युद्घ जैसी स्थिति में जहां उसके अधिकारी कहां रहते हैं? केंद्रीय अद्र्घसैनिक बलों के वरिष्ठï अधिकारी जिनमें आतंकरोधी एनएसजी कमांडो शामिल होते हैं, वे अक्सर आईपीएस होते हैं जो अल्पकाल के लिए आते हैं और ऐसे सवालों का सामना नहीं कर सकते। लेकिन अब वे इनसे नहीं बच सकते।
केंद्रीय पुलिस बलों के बीच निराशा और हताशा चेतावनी वाले स्तर पर पहुंच चुकी है। यह आपको दिल्ली के फैंसी क्लबों और संस्थानों में नहीं नजर आएगी जो इन अधिकारियों के लिए बने हैं। न ही यह मंत्रियों को परेडों में नजर आएगी। साधारण जवानों के दिलोदिमाग की सिलवटें कम दिखती हैं लेकिन वे बहुत अधिक अहमियत रखती हैं। दशकों से सीआरपीएफ मामूली नोटिस पर एक जगह से दूसरी जगह जाती रहती है। वे ट्रकों के पीेछे लदकर तो कभी मालवाहक विमान में लदकर यहां से वहां जाते हैं। इस हद तक कि वे खुद को ‘चलते रहो प्यारे’ कहलवाना पसंद करते हैं।
यह सब इतना संस्थागत हो चुका है कि सन 1980 के दशक में इसके एक चर्चित डीजी ने अपने बैंड से अपने नाम की एक मार्चिंग धुन तक बनवाई थी। लेकिन यह सब कोई मजाक नहीं है। अधिकांश जगहों पर वे खुद को दूसरे दर्जे के सैनिक के रूप में पाते हैं, जिनके वेतन भत्ते कम हैं। सेना की तुलना में जिनका खान-पान, रखरखाव और पेंशन तक कमतर है। सेना में कम से कम वरिष्ठï जवान मीडिया के जरिये वेतन आयोग और एक रैंक एक पेंशन के मामले में अपनी बात कुशलतापूर्वक सामने रख लेते हैंं और जनभावना का निर्माण कर लेते हैं। लेकिन केंद्रीय बलों के जवानों के प्रमुख आईपीएस होते हैं और दोबारा वापस चले जाते हैं। सीआरपीएफ के उदाहरण के अनुरूप ही बीएसएफ खुद को बिस्तर संभाल फोर्स कहती है। यह अपने आप में अवमाननापूर्ण है। जरा सोचिए किस तरह उन्हें खराब खाना मिलता है, दवाओं और चिकित्सकीय मदद के लिए वे तरसते हैं और उनके शिविरों की सुरक्षा तक का मजबूत बंदोबस्त नहीं होता है। छत्तीसगढ़ में ई एन राममोहन जांच समिति ने ऐसे ही नतीजे निकाले थे।
बीते दो दशकों में केद्रीय अद्र्घसैनिक बलों, सीआरपीएफ, बीएसफ, एसएसबी (सशस्त्र सीमा बल), असम राइफल्स, एनएसजी, आईटीबीपी (भारत-तिब्बत सीमा पुलिस), सीआईएसएफ (केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल) आदि में 10 लाख से अधिक भर्तियां हुई हैं। अगर इस तरह देखा जाए तो भारत के सशस्त्र बल दुनिया में चौथी सबसे बड़ी ताकत हैं। लेकिन पांचवीं सबसे बड़ी ताकत भी भारत में है लेकिन वह रक्षा नहीं गृह मंत्रालय के अधीन है।
उनको सुधार, आधुनिकीकरण और बेहतर नेतृत्व की आवश्यकता है। यह प्रतिष्ठान बहुत बड़ा और प्रतिष्ठिïत है इसकी समुचित देखभाल आवश्यक है। इसे एक कैडर, कल्याण व्यवस्था और समीक्षा के साथ-साथ सक्रिय राजनीतिक नेतृत्व की आवश्यकता है। आंतरिक सुरक्षा से जुड़े एक अधिकारप्राप्त राज्य मंत्री के पद को राजीव गांधी के पांच साल के कार्यकाल की एक बड़ी सकारात्मक उपलब्धि माना जा सकता है लेकिन उसे वाजपेयी की राजग सरकार ने दबा दिया और फिर संप्रग ने भी उसे सामने नहीं आने दिया। हमें यहीं से शुरुआत करनी चाहिए। वरना हालात बिगड़ते देर नहीं लगेगी।