scorecardresearch
Wednesday, November 6, 2024
Support Our Journalism
HomeSG राष्ट्र हितहमेशा हमारा रहे कश्मीर तो पेश करनी होगी नजीर

हमेशा हमारा रहे कश्मीर तो पेश करनी होगी नजीर

Follow Us :
Text Size:

कुछ कम विवादास्पद तथ्यों पर गौर करते हैं। पहला तो यही कि बुरहान वानी की मौत के बाद संकट का मौजूदा दौर शुरू हुआ। हालांकि वानी को उसके अंजाम पर पहुंचाना भी अपरिहार्य था। जिस दिन से उसने भारत के खिलाफ हथियार उठाए और वह सोशल मीडिया पर उसका महिमामंडन करने लगा तो समझो कि उसने अपनी मौत के कागज पर दस्तखत कर दिए। वह अपनी किस्मत और कौशल के दम पर ही इतने दिनों तक जिंदा रह पाया। अन्यथा, जब कोई सुरक्षा बलों के वांछितों की सूची में शीर्ष पर जगह बना लेता है तो उसे ठिकाने लगाने में एक साल से ज्यादा नहीं लगता।

क्या आपको उससे कोई सहानुभूति है? मैं किसी भी देशवासी की मौत पर संताप जाहिर करूंगा लेकिन मेरी सहानुभूति इस हद तक ही है कि उसके परिवार और दोस्तों ने उसे इस विध्वंसात्मक राह पर आगे बढऩे के लिए पे्ररित किया। उसकी मौत का तरीका भी अप्रासंगिक है। जब आप हथियार उठाकर लोगों को मारना शुरू कर देते हैं तो फिर बिना सुनवाई मुठभेड़ में मारने की शिकायत करने का नैतिक अधिकार खो देते हैं। किसी भी भारतीय का इस तरह मारा जाना दुखद है लेकिन यह मौत उसने खुद चुनी थी। यह और भी अफसोस की बात है कि उसके साथ दर्जन भर से ज्यादा नागरिक और वर्दी धारी भी विरोध प्रदर्शन की भेंट चढ़ गए।

मेरे और तमाम अन्य भारतीयों के लिए अगला निर्विवाद तथ्य यही है और मैं ऐसा कहने की हिम्मत करता हूं जो जेएनयू परिसर में चलने वाली बहस से जुड़ा है कि कश्मीर या यूं कहें कि भारत के हिस्से वाला कश्मीर भारतीय गणराज्य का अपरिहार्य और अविभाज्य हिस्सा बना (और अवश्य ही) रहेगा। इसी तरह पाकिस्तान के हिस्से वाला उसके पास रहेगा, वहीं संसद में समवेत स्वर में पारित हुए संकल्प को नहीं भूलना चाहिए, जिसमें पाकिस्तान और चीन के कब्जे वाले कश्मीर को भी वापस लेने का प्रस्ताव पारित हुआ था। परमाणु शक्ति संपन्न तीन पड़ोसी युद्घ के जरिये एक दूसरे के हिस्से की जमीन नहीं छीन सकते।

कश्मीर और कश्मीरी इन तीनों के बीच बुरी तरह फंस गए हैं। कोई भी नहीं झुकेगा। यहां तक कि अगर भारत-पाकिस्तान को अपने-अपने हिस्से वाले कश्मीर को बचाने के लिए दर्जन भर युद्घ लडऩे पड़ें और परमाणु जखीरे की धौंस दिखानी पड़े तो वे उससे परहेज नहीं करेंगे। पाकिस्तान कश्मीरियों को ‘आजादी’ और ‘जनमत संग्रह’ के सब्जबाग दिखा गुमराह कर रहा है। सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव में भी केवल भारत या पाकिस्तान का ही विकल्प है। किसी तरह की आजादी, स्कॉटलैंड या क्यूबेक और यहां तक कि ब्रेक्सिट जैसे किसी चयन की गुंजाइश नहीं है। जहां तक संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव की बात है तो भारत ने नहीं बल्कि पाकिस्तान ने उसे निष्प्रभावी किया और शिमला समझौते के साथ नहीं बल्कि उससे सात वर्ष पहले 1965 में उसे दफन कर दिया था, जब उसने बाहुबल से कश्मीर को हड़पने की नाकाम कोशिश की थी।

भारतीयों को अपने हिस्से का कश्मीर गंवाने को लेकर कभी चिंता नहीं करनी होगी। ‘हमारे’ कश्मीरी अलग मसला हैं। सेनाएं नागरिकों और इलाकों की रक्षा कर सकती हैं। मगर वे नाराज लोगों की भावनाएं नहीं बदल सकतीं। वे आदेश का अनुपालन और अपेक्षाकृत बेहतर व्यवहार कर सकती हैं। एकबारगी तमाम सम्मानित फौजी दोस्त इसका विरोध करेंगे लेकिन सेनाएं प्रताडि़त जनता के दिलो दिमाग को नहीं जीत सकतीं। आप दुश्मन को मात देना चाहते हैं तो सेना का इस्तेमाल कीजिए। आप नाराज भाई को मनाना चाहते हैं तो बड़ा दिल दिखाए। याद रखिए कि वाजपेयी ने संविधान की जगह सिर्फ ‘इंसानियत’ नाम के एक लफ्ज के साथ नाटकीय बदलाव ला दिया था, जिससे घाटी छह सालों तक शांत रही। मुफ्ती की जिस पीडीपी के साथ भाजपा के गठजोड़ के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था, जब नरेंद्र मोदी ने उसके साथ हाथ मिलाया तो हमने सोचा कि यह भी उसी दिशा में बढ़ाया गया कदम है। मगर उसके बाद यह मुहिम राह से भटक गई।

इसके पटरी से उतरने की एक वजह यही हो सकती है कि भाजपा अपने समर्थकों को इसे उचित रूप से नहीं समझा पाई। इस गठबंधन से यही अपेक्षा थी कि यह सत्ता की छल कपट वाली कोशिशों के बजाय नीति अनुसार शांति की राह वाला होगा क्योंकि वैचारिक धरातल पर एक दूसरे के विपरीत वाले धु्रवों को चुनावी नतीजों ने एकाकार होने पर मजबूर कर दिया था। जहां प्रधानमंत्री मोदी ने गठजोड़ कर बहुत बड़ा जोखिम लिया, जहां वह अपनी पार्टी के विचारकों और अपनी वृहद राजनीति के विरोधाभास में पिछड़ गए। आप हर शाम इसके गवाह बन सकते हैं, जब टेलीविजन स्टूडियो में भाजपा की ओर से कमान संभालने वाले सुरक्षा बलों की कार्रवाई को जायज ठहराते हैं, जिसमें सहानुभूति का एक शब्द नहीं होता और यहां तक कि कश्मीरियों के लिए वही पुराना राग छेड़ा जाता है कि ‘वे जो चाहते हैं, वही मिल रहा है।’ या फिर अपने सहयोगी में भरोसे का नकली भाव दिखाते हैं। अपने सहयोगी का समर्थन करने का यह विचित्र तरीका है, जिसमें ‘हमारे अपने लोगों’ का तुर्रा भी छेड़ा जाता है।

‘हमारे अपने लोग’ पर जानबूझकर जोर दिया जाता है। एक सीमा तक हम सभी अति-राष्ट्रवादी हैं, जहां ‘कश्मीर हमारा है, सारा का सारा है’ जैसे नारों का उद्घोष होता है। मगर ऐसे नारे लगाने वालों से पूछा जाना चाहिए कि उनके दिल में कश्मीर को लेकर जो जोश है, क्या वह उसकी जमीन को लेकर या पाकिस्तान के साथ झगड़े को लेकर ही है या फिर यहां के लोगों के लिए भी है? यह उसके प्रकार और उसकी ‘वफादारी’ (हिंदू और बौद्घ) वाले वर्गों तक है और मुस्लिम चाहें तो पाकिस्तान जा सकते हैं? अगर आपके यही विचार हैं तो आप पाकिस्तान को ही प्रतिध्वनित करते हैं जो हमेशा यही राग अलापता रहा है कि कश्मीर विभाजन का अधूरा एजेंडा है। वे जमीन और कुछ लोग (मुस्लिम) चाहते हैं, हम भी जमीन और शेष लोग चाहते हैं। अंग्रेजों ने हमें फूट डालो और राज करो का सबक सिखाया। हम फूट डालने और हारने की ओर बढ़ रहे हैं।

हमारी 97 फीसदी मुस्लिम आबादी देश के शेष मुख्य इलाकों में रहती है। उनके कश्मीरियों को लेकर कभी साझा हित नहीं रहे हैं। जाकिर नाइक जैसे सुन्नी दक्षिणपंथी विचारक भी कश्मीर को लेकर बेहद सतर्क हैं। इसने सरकार को यह मसला घाटी तक सीमित रखने में मदद की है। सेना वास्तविक रूप में धर्मनिरपेक्ष संस्थान है और अगर अतिरेक की बात आती भी है तो आपको सेना में वरिष्ठï या कनिष्ठï सैनिक से कुछ भी सांप्रदायिक या उकसाने वाली बातें सुनने को नहीं मिलेंगी। यह ऐसा संस्थान है कि असुरक्षित अल्पसंख्यक खासतौर से मुस्लिम भी दंगों के दौरान अपनी जिंदगी के लिए उस पर एतबार करते हैं। मगर अब इस बात को लेकर समस्या पैदा हो रही है, जो कश्मीर को हिंदू-मुस्लिम तनाव के चश्मे से देख रहे हैं। क्या होगा अगर भारत अपने सभी मुसलमानों से कहे कि देश की सीमाएं खोल दी गई हैं और जो पाकिस्तान जाना चाहते हैं, वे वहां चले जाएं। मुझे संदेह है कि हमारे देश को छोड़कर कोई वहां जाना चाहेगा बल्कि तमाम लोग बेहतर जीवन की आस में पाकिस्तान और बांग्लादेश से यहां चले आएंगे। कहीं भी रहने के लिए आर्थिक अवसर और राजनीतिक स्थिरता एक अहम कारक होती है, जो यहां संवैधानिक और धार्मिक आजादी के साथ उपलब्ध है।

मगर कश्मीर सीमा पर क्या होगा, यह एक पहेली है। मैं शर्त लगाऊंगा कि एक बड़ा तबका यहीं रह जाएगा, जिसमें कुछ लोग ही जाएंगे जो आजादी की रूमानियत या आईएसआई की जिहाद से प्रेरित होंगे। लिहाजा हमें कुछ और भारी सवाल पूछने की दरकार है कि क्या हिंदू अति-राष्ट्रवादियों की नई बढ़ती फौज यही चाहती है कि ‘हमारे कश्मीरी’ ‘उनकी’ जमीन पर ही रहें या वहां से रुखसत होकर ‘हमारी’ जमीन यहीं छोड़ जाएं? मेरी मंशा इसका ईमानदार जवाब तलाशने की नहीं थी बल्कि हिंदू-मुस्लिम पैमाने पर कश्मीर को परिभाषित करने के खतरे की ओर इशारा करने की थी, जहां हम कश्मीर पर तो काबिज रहेंगे लेकिन अधिकांश कश्मीरियों को गंवा देंगे।

Subscribe to our channels on YouTube, Telegram & WhatsApp

Support Our Journalism

India needs fair, non-hyphenated and questioning journalism, packed with on-ground reporting. ThePrint – with exceptional reporters, columnists and editors – is doing just that.

Sustaining this needs support from wonderful readers like you.

Whether you live in India or overseas, you can take a paid subscription by clicking here.

Support Our Journalism

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular