पिछले मंगलवार को एक साथ और करीब-करीब एक जैसी दिखने वाली तस्वीरें हमारे राजनीतिक यथार्थ को बयां करती हैं। एक तस्वीर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की थी, जो 7 रेस कोर्स रोड पर कंपनी जगत के सिपहसालारों से मिल रहे थे। दूसरी तस्वीर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की थी, जो अपनी पार्टी के आला नेताओं से बात कर रही थीं। दोनों बैठकें करीब-करीब एक ही वक्त पर हो रही थीं।
मोदी मंद पड़ती आर्थिक वृद्घि को रफ्तार देने की तरकीबें तलाश रहे थे। उन्हें वह भरोसा बहाल होने की उम्मीद भी थी, जो कारोबारी तबके को उनसे बहुत उम्मीदें होने के बाद भी डिगता दिख रहा है। गांधी भी बिल्कुल उसी तरह अपनी पार्टी की किस्मत पलटने के लिए पार्टी का मनोबल ऊंचा करने के लिए जद्दोजहद में लगी हुई थीं। टीवी के पर्दे पर जब ये दोनों तस्वीरें एक के बाद एक आईं तो मेरे मन में पहला खयाल यह आया कि दोनों में से कौन से श्रोता अधिक दीन-हीन लग रहे थे – कंपनी जगत के दिग्गज या कांग्रेस पार्टी। दोनों हारे हुए चाहे न लगे हों, थके हुए तो दिख ही रहे थे। और यकीनन उन बैठकों में उनमें से किसी की भी हिम्मत वे सवाल पूछने की नहीं हुई होगी, जो उनके लिए वाकई में अहम हैं।
कंपनी जगत मोदी से पूछता: आप चुनावी रंग से बाहर कब आएंगे और सामान्य राजनीति तथा प्रशासन की ओर कब लौटेंगे? सामान्य राजनीति का मतलब वह राजनीति है, जिसमें संसद काम करे, कानून पारित हों और विपक्ष तथा सत्तारूढ़ दल बेशक झगड़ें, सरकार का कामकाज न अटक जाए। कांग्रेसी नेता सोनिया गांधी से यह पूछ सकते थे: मैडम, हमारे पास मोदी पर तोहमत जडऩे के अलावा पार्टी को उबारने की कोई और योजना है या नहीं? या सीधे शब्दों में कहें तो ‘सूट-बूट’ के ताने के अलावा हमारी राजनीति में कुछ और भी है क्या? दूसरा सवाल तो जाहिर तौर पर राहुल गांधी के भविष्य और पार्टी की उत्तराधिकार की योजना के बारे में होता।
दोनों बैठकों के श्रोता ताकतवर थे, लेकिन उन्हें दीन-हीन मैंने इसलिए कहा क्योंकि उनमें से किसी के भी पास ये सवाल पूछने की हिम्मत नहीं थी। मोदी और सोनिया ने अपने आसपास ऐसा माहौल ही तैयार नहीं किया है, जहां उनके अपने भी उनसे सवाल पूछ सकें। वे केवल अपने नेता को सराह सकते हैं और सराहते रहते हैं। दिक्कत केवल यह है कि उनके पास सराहने के लिए आखिर है क्या? हमारी स्तरहीन राजनीति में आज वे एक नेता की तुर्श लहजे वाली भाषण कला की तारीफ करते हैं और दूसरे नेता के निरे नकारात्मक लहजे को सराहते हैं।
भारत की राजनीति का क्षरण हो रहा है क्योंकि मोदी और गांधी पर अभी तक चुनावी रंग ही चढ़ा हुआ है। उन्हें इस बात की फिक्र ही नहीं कि इससे उन्हें नुकसान हो रहा है और प्रशासन में रुकावट आ रही है। सोनिया गांधी और कांग्रेस न तो 2014 का पतन स्वीकार कर पा रही हैं और न ही मोदी को प्रधानमंत्री के तौर पर पचा पा रही हैं। चुनावों में उनके हाथ कुछ भी आने की उम्मीद नहीं है। बिहार और उसके बाद 2017 में उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजे कुछ भी रहें, उन्हें हाशिये पर ही रहना है। उन्हें घोटालों के नाम पर संसद को ठप करना ही इकलौता सियासी हथियार दिख रहा है।
अगर केवल ‘शोर शराबे’ से ही संसद को ठप किया जा सकता है और बहुमत वाली सरकार के कदम बांधे जा सकते हैं तो कांग्रेस इसे बेहद आसान रास्ता मानेगी। भारत के दूसरे सबसे बड़े राज्य में हाल ही में उसे पटखनी मिली है, लेकिन वहां नए सिरे से सियासत जमाने के लिए सूखाग्रस्त मराठवाड़ा में वक्त बर्बाद करना कुछ ज्यादा ही हो गया। जो पार्टी पूरी गंभीरता के साथ खुद को पाताल से उबारना चाहती है, उसे अपनी लापरवाही की वजह से असम में हिमंत विश्व शर्मा जैसी क्षेत्रीय सियासी ताकत को भाजपा की तरफ ढलकने नहीं देना चाहिए।
इसी तरह मोदी भी 2014 की जीत के बावजूद आक्रामक मुद्रा में ही हैं। उनकी शक्ल में एक ऐसा नेता दिल्ली में पहुंचा है, जिसने दो दशक से भी ज्यादा वक्त तक राजनीतिक, बौद्घिक और आंदोलनकारी विरोधियों की ताकतवर फौज का मुकाबला किया है और उन्हें चित करने के बाद भी वह आगे नहीं बढ़ पाया है। शोर शराबे भरे सियासी माहौल में सरकार चलाने के लिए न तो वह किसी विजेता जैसी दरियादिली दिखाते हैं और न ही संत जैसी विरक्ति। इसी वजह से वह ऐसे काम भी नहीं कर पा रहे हैं, जो सत्ता में बैठे नेता आम तौर पर करते हैं, जैसे एक-दूसरे के फायदे वाले समझौते, मुद्दों और कानून निर्माण के लिए सबको साथ लेना, नकारात्मकता कम करना, त्योरी चढ़ाकर काम बिगाडऩे के बजाय मुस्कराकर उसे आसान बनाना। कांग्रेस की ही तरह उन्हें भी हमलावर तेवर अपनाए रहना आसान लग रहा है।
यही वजह है कि बिहार चुनाव को लेकर हो रहा शोर-शराबा मुझे ठीक नहीं लगता। यह चुनाव बेशक काफी अहम है, लेकिन इसमें करो या मरो जैसा कुछ भी नहीं है। जीत हमेशा शानदार होती है, लेकिन अगर भाजपा जीतती है तो भाजपा और सरकार में मोदी का कद पहले से ऊंचा नहीं हो जाएगा। अगर पार्टी हारती है तो वह कमजोर नहीं हो जाएंगे। जाति का महागठबंधन तो उनके लिए पका-पकाया बहाना है और चाहे कुछ हो जाए, दिल्ली जैसा हश्र तो भाजपा का नहीं होगा। नतीजे से कांग्रेस के लिए भी बहुत कुछ नहीं बदलेगा। केवल नीतीश कुमार के लिए यह चुनाव करो या मरो जैसा है। जीत मिली तो राष्ट्रीय स्तर पर उनका कद बढ़ जाएगा क्योंकि उनके पास लालू प्रसाद की तरह जातीय वोट बैंक नहीं है। लेकिन उनके उत्थान या पतन का राष्टï्रीय राजनीति पर कोई असर नहीं होगा।
बिहार चुनाव बीतते ही राजनीति एक बार फिर संसद के गलियारों में पहुंच जाएगी क्योंकि शीतकालीन सत्र आने वाला होगा। चुनाव का नतीजा कुछ भी हो, राजनीति में दरारें गहरा जाएंगी। संसद का कामकाज लगातार रुका तो भारत को बड़ी कीमत चुकानी होगी और मोदी प्रशासन का वक्त गंवाएंगे। कांग्रेस के लिए भी लंबे अरसे तक यह कारगर नहीं रहेगा। संप्रग-2 के जमाने में जब भाजपा ने संसद ठप की थी तो बात कुछ और थी। भाजपा उस समय चढ़ रही थी और सुषमा स्वराज और जेटली जिस वक्त संसद में काम रोक रहे थे, उसी वक्त मोदी तेजी से सियासी जमीन तैयार कर रहे थे। लेकिन कांग्रेस केवल हारी हुई दिख रही है, जो मतदाताओं से बदला ले रही है।
जाहिर तौर पर सच तो यही है कि सरकार चलाना सत्तारूढ़ दल का काम होता है और संसद उसी का हिस्सा होती है। भारत की अर्थव्यवस्था को अगर अपनी शान वापस हासिल करनी है तो पहले राजनीति को सामान्य हालत में लाना होगा। ऐसा तब तक नहीं हो सकता, जब तक मोदी एक के बाद एक राज्यों के चुनाव में उलझे रहने के बजाय समझौते का हाथ नहीं बढ़ाते। अब किसी ने उन्हें अहमदाबाद के किले में नहीं घेर रखा है। कंपनी जगत के मुखिया ब्याज दर में कटौती और बैंकों को राहत पैकेज देने का घिसा-पिटा राग अलापने के बजाय उन्हें यह समझाते तो बेहतर होता। लेकिन आप जानते हैं कि यह उतना ही मुश्किल है, जितना कांग्रेस के लोगों के लिए सोनिया से यह कहना कि सूट-बूट का राग अच्छा है, लेकिन विपक्ष में अलग-थलग पड़े होने पर धीरज भरी, पुराने अंदाज की सियासत की जगह उसे लंबे वक्त तक नहीं आजमाया जा सकता।