तकरीबन चार साल पहले तक मुझे ‘ट्रोलिंग’ शब्द का वास्तविक अर्थ मालूम नहीं था। मुझे लगता था कि ट्रोल करने वाले कुछ काल्पनिक लोग होते होंगे जो बहुत अच्छे न हों तो भी कुछ ठीक दिखते होंगे। मेरे मन में यह छवि हैमलीज नामक मशहूर खिलौनों की दुकान पर देखी ट्रोल डॉल्स को देखकर बनी थी। इसका सही अर्थ मुझे तब मालूम चला जब मैं एकतरफा इलेक्ट्रॉनिक जंग में इनके हमले का शिकार हुआ। इंटरनेट युग में ट्रोलिंग से यह मेरा पहला सामना था। इंटरनेट पर मौजूद बेहतरीन अर्बन डिक्शनरी में इसकी सटीक व्याख्या मौजूद है: ‘इंटरनेट पर किसी मासूम व्यक्ति को पीड़ा पहुंचाना। एक या अधिक व्यंग्यात्मक या चुभने वाली टिप्पणियां करना। इसलिए क्योंकि इंटरनेट पर ऐसा करना आसान है।’ ट्रोल करने वाले एकदम इसी अवधारणा पर काम करते हैं।
लोगों पर दुर्भावनापूर्ण टिप्पणियां करना या उनका मजाक उड़ाना अब ट्रोलिंग के रूप में स्वीकार्य है। हमारे आसपास की दुनिया में यह सहज चलन में है। हमारे देश में यह और आसान है क्योंकि यहां जबरदस्त भाषायी विविधता गालियां देने या बुराई करने का खूब अवसर देती है। ‘दलाल’ और ‘कुत्ता’ जैसे शब्द भला किसी और भाषा में कहां? यह सिलसिला यहीं नहीं थमता। बल्कि ऐसे शब्दों तक पहुंच जाता है जो पांच साल पहले तक छापे भी नहीं जा सकते थे। दूसरों की मां-बहनों पर टिप्पणी करने के लिए विविध भाषाएं और रूपक हैं। पंजाबी में इसे ‘मां-बहन करना’ कहा जाता है।
हमारे राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन में किसी न किसी किस्म की ट्रोलिंग हमेशा मौजूद रही है। इंटरनेट और खासकर सोशल मीडिया ने अब इसे मुख्य धारा में ला दिया और सम्मानित भी बना दिया। अब उच्च पदों पर बैठे लोग मसलन दुनिया की चौथी सबसे बड़ी सेना के प्रमुख से लेकर किसी राज्य के मुख्यमंत्री या कैबिनेट मंत्री जैसे सम्मानित पदों पर बैठे लोग भी इस हथियार का बेधड़क इस्तेमाल कर रहे हैं। अगर आप कुश्ती से वाकिफ हैं तो राजनीति पहले ग्रीको-रोमन शैली के जैसी थी जहां केवल कमर के ऊपर की पकड़ की इजाजत होती है लेकिन अब यह डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की तरह है जहां आप कमर के नीचे वार पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं।
अगर आपको दलाल या कुत्ता कहा जाता है अथवा आपकी मां-बहन की जाती है तो क्या इससे किसी को चिंतित होना चाहिए? मुझे उन संगठनों से भी निपटना पड़ा है जो हमेशा नाराज रहते हैं और खासतौर पर शुक्रवार की दोपहर को जब उनको पता होता कि मैं ‘नैशनल इंटरेस्ट’ लिखने बैठा होऊंगा। वे ठीक मेरी खिड़की के नीचे पार्किंग वाली जगह पर इकठ्ठे होकर मुर्दाबाद के नारे लगाते और कई बार तो ढोल भी बजाते। मैंने अपने प्रबंधक की शरण ली जिनके पास यूनियनों से निपटने का लंबा अनुभव है। उन्होंने मुझसे कहा कि घबराइए मत बस सोचिए कि हर बार जब ये मुर्दाबाद बोलते हैं तो आपके जीवन में एक दिन का इजाफा होता है। यह कड़ी सलाह थी लेकिन यह उपयोगी रही। मुझे लगता है अब तक तो मेरे जीवन में महीनों का इजाफा हो चुका होगा।
एक अंतर यह है कि सोशल मीडिया ने ट्रोलिंग को सार्वजनिक कर दिया। सार्वजनिक जीवन जीने वाला कोई व्यक्ति दुव्र्यवहार से मुक्त नहीं है। लेकिन तब यह दो लोगों के बीच का मामला था। मेरी ऐसी ही एक याद अर्जुन सिंह से जुड़ी है जो मेरे समाचार पत्र से खासे नाराज थे। एक सुबह उन्होंने मुझे फोन किया और कहा तुम जिस व्यक्ति (रामनाथ गोयनका) के नाम पर यह पत्र चलाते हो, अगर वह जिंदा होते तो मैं तुम्हें एक सप्ताह भी नौकरी नहीं करने देता। मैंने उनसे जवाब में यही कहा कि सर, हम भी उनको आपके जैसे ही याद करते हैं लेकिन अब वह वापस नहीं आ सकते।
ये बातचीत अरुचिकर थी लेकिन बेहद निजी। इसके बावजूद कभी संवाद खत्म नहीं हुआ। एक बार मुलायम सिंह ने धमकी देते हुए कहा कि अगर हमारी स्तंभकार तवलीन सिंह की टांगें टूट जाती हैं तो वह जिम्मेदार नहीं होंगे। फोन पर तीखी नोकझोंक के तुरंत बाद उनका माफी भरा फोन आया। यह मजेदार भी हो सकता था। मसलन एक दिन जब मैंने उनको माफिया के रूप में चित्रित किया तो उन्होंने फोन करके कहा कि जितने भी लोग उनके बारे में खराब शब्दों का प्रयोग करते हैं मैं उनमें सबसे मजेदार ढंग से लिखता हूं। उन्होंने मुझे रात्रि भोज की पेशकश कर डाली। इसके बाद चर्चा मेरे खानेपीने पर चली गई। उनके 80वें जन्मदिन पर उन्होंने मुझे अपना सबसे सारगर्भित और खबरों से भरपूर साक्षात्कार दिया।
गाली और पेशेवर रिश्ते बने रहने की एक वजह यह थी यह सार्वजनिक नहीं होता था। मिजाज गरम होने पर बातें कह दी जातीं और अक्सर मामला क्षमायाचना पर समाप्त हो जाता। अगर गाली खाने वाले की गलती होती तो वह भी उसे स्वीकार कर लेता। आज के सोशल मीडिया की तरह एक बार इसके सार्वजनिक होने के बाद मामला जटिल और गड़बड़ हो जाता है।
पत्रकार चाहे जितनी मोटी चमड़ी के हों, आखिर होते तो मनुष्य ही हैं। श्रोताओं-पाठकों या कहें दर्शकों को भी प्रतिरोध की उम्मीद होती है। आखिर आप गाली को सहजता से कैसे ले सकते हैं? आप बाकी दुनिया को गालियों के आदान-प्रदान के सुख से कैसे वंचित कर सकते हैं? पेशेवर प्रश्न यह है कि किसी ने आपसे जिस स्तर की बदतमीजी की क्या उसका असर उसके या उसकी राजनीति के प्रति आपके संपादकीय दृष्टिïकोण में झलकना चाहिए? ज्यादातर लोगों को इसका उत्तर हां पसंद आएगा लेकिन सही मायनों में यह ना है। इसलिए कि आप वह लड़ाई लडऩे वाले योद्घा नहीं हैं। गाली देने वाला तो गाली देने वाला है। ठीक उसी तरह जैसे नाराज यूनियन आपकी खिड़की के नीचे मुर्दाबाद के नारे लगाती है। हकीकत में वह आपकी मृत्यु की कामना नहीं कर रही होती। अगर आप भड़क गए तो यह उनकी जीत है क्योंकि आपका ध्यान भंग हुआ। अगर आप ध्यान न देकर अपना काम करते रहते हैं तो आप जीत जाते हैं वह भी बिना लड़े।
बंसीलाल को देश के सबसे सख्त मिजाज राजनेताओं में गिना जाता है। मुझे अचरज होता है कि इंटरनेट और सोशल मीडिया के आगमन के बाद उन जैसे लोगों की क्या प्रतिक्रिया होती? क्या वे अत्यधिक उत्तेजित हो जाते? शायद नहीं क्योंकि उनमें से कई तो इतने खराब थे कि अगर आपका बुरा करना चाहते तो अपने इरादे सार्वजनिक करने के बजाय मुस्कराते हुए भी आपका नुकसान करा सकते थे। वे कोई सबूत तक न छोड़ते। मैं एक छात्र के रूप में इस बात का गवाह बना था जब बिजली बोर्ड के कर्मचारी बंसी लाल की एक रैली में उनको काले झंडे दिखा रहे थे। चौधरी साहब ने कहा, ‘भाइयो, जब मैं पैदा हुआ था तब मेरी मां ने 12 गज कपड़े का बना काला घाघरा पहना हुआ था। मैं उससे नहीं डरा और आपको लगता है कि आप इन झंडियों से मुझे डरा दोगे।’
ट्रोलिंग और दुव्र्यवहार स्थायी नहीं है। यह अच्छा नहीं है खासतौर पर सुबह जब आप सोकर उठते हैं। वहीं दूसरी ओर अगर आपको केवल इसलिए गाली-गलौच सुनना पड़े क्योंकि आपने राजधानी में चिकनगुनिया और डेंगू की बीमारी को लेकर सरकार की आलोचना कर दी हो और इससे कुछ चेतावनी गई हो और जिम्मेदार लोगों के काम शुरू करने से कुछ लोगों की जान बची हो तथा हजारों अन्य सुरक्षित हुए हों तो यकीनन आप जीत गए हैं। इस बीच थोड़ी असुविधा हो भी गई तो क्या?