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Wednesday, November 6, 2024
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शोषण का शिकार हो रहे सस्ते व लाचार कामगार

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गुडग़ांव में रहने वाले एक संपन्न दंपती पर गुरुवार को आरोप लगा कि वे 14 साल की अपनी घरेलू नौकरानी की बार-बार पिटाई करते हैं। नौकरानी झारखंड के आदिवासी समुदाय की है। जब उसे बचाया गया तो वह अलमारी के पीछे छिपी थी या जबरदस्ती छिपाई गई थी। उसके शरीर पर खरोंचें थीं, काटे और मारे जाने के निशान थे। उसने टेलीविजन चैनलों को बताया कि उसे अक्सर पीटा जाता था, दीवार में मारा जाता था और चाकू से घाव तक किए जाते थे। सबसे खौफनाक बात उसने यह बताई कि उसके मालिक उसे मारते जाते थे और कहते जाते थे कि ‘वह उन्हें फूटी आंख नहीं सुहाती।’ नौकरों के साथ बेरहमी का यह सबसे गंभीर मामला था, लेकिन यह इकलौता मामला नहीं है। गुडग़ांव में ही पिछले दिनों नेपाली मूल की एक अन्य नौकरानी को एक सऊदी राजनयिक के घर से छुड़ाया गया।

उसे बंधक बना लिया गया था और आईएसआईएस के अंदाज में बार-बार उसका बलात्कार किया जाता था और निर्ममता के साथ उस पर अत्याचार किए जाते थे। झारखंड वाले मामले में समाज और पुलिस ने बेहद फुर्ती के साथ प्रतिक्रिया की है क्योंकि शायद सऊदी राजनयिक वाली खबर ने उन्हें संवेदनशील बना दिया है। भारत में मालिक-नौकर का यह रिश्ता दिक्कतें कर रहा है। संपन्नता बढऩे, पति-पत्नी दोनों के कमाऊ होने और एकल परिवार होने के कारण घरेलू नौकरों की जरूरत बढ़ रही है और वर्ग विभेद भी बढ़ रहा है।

दुनिया भर में हम भारतीय ही सबसे ज्यादा ‘नौकरों’ के भरोसे रहते हैं। बर्तनों की धुलाई हो या टॉयलेट की सफाई हो, बच्चों की देखभाल हो या कुत्ता टहलाना हो, कार चलाना हो या खाने का डिब्बा खोलना और कपड़े इस्तरी करना हो, हमें हर काम के लिए नौकर चाहिए। कम से कम दिन में 16 घंटे तो चाहिए ही क्योंकि बाकी 8 घंटे हम नींद के आगोश में रहते हैं। इन कामगारों के लिए मुख्यधारा के अंग्रेजी मीडिया में भी सीधा सा शब्द है – ‘घरेलू नौकर।’

जितनी बड़ी तादाद में लोग संपन्न और व्यस्त होते जा रहे हैं या इतने आलसी होते जा रहे हैं कि घरेलू नौकरों के बगैर उनका काम नहीं चल रहा है, उतनी ही बड़ी तादाद में समाज के सबसे निचले और सबसे गरीब तबके के लोग उनकी जिंदगी और घरों में आते जा रहे हैं। रसोइये, ड्राइवर, सुरक्षा गार्ड, सफाई करने वाले, घरेलू नौकर, चाकर, बच्चों की आया उच्च या उच्च मध्य वर्ग वाले हमारे खांचे में अब भी सहूलियत से समा जाते हैं। आपको पता है कि अद्र्घकुशल कामगारों के इस बाजार का क्या हाल है? दूसरों के लिए कर्मचारी तलाश करने वाली और कम तथा मझोले कौशल वाले कामगारों का इंतजाम करने वाली सबसे बड़ी भारतीय कंपनी टीमलीज के मनीष सभरवाल गंभीर बात कहते हैं। उनका कहना है, ‘पिछले पांच साल में हमारी कंपनी ने हर पांच मिनट में किसी नए शख्स को काम दिलाया है, लेकिन हमारे पास जितनी अर्जी आई हैं, उनमें से केवल 5 फीसदी को ही हम काम दिला पाए हैं।’

न्यू यॉर्क टाइम्स में 2008 में प्रकाशित एक लेख (एक्सप्लोरिंग इंडियाज प्रॉस्पेरिटी थ्रू द आइज ऑफ द इनविजिबल मेन) मेरे जेहन में दर्ज हो गया। उसे लिखने वाले रिपोर्टर आनंद गिरिधरदास ने पांचसितारा होटल के टॉयलेट की मिसाल देते हुए इसी वर्ग विभेद की तस्वीर पेश की थी। उन्होंने लिखा था कि इन टॉयलेट में लोग दो जमातों में बंट जाते हैं। एक जमात वह होती है, जो डिस्पेंसर में से साबुन इस्तेमाल करती है और दूसरी जमात डिस्पेंसर दबाकर आपके लिए साबुन निकालती है, टोंटी खोलती-बंद करती है, आपके लिए तौलिया पेश करती है, उसे वापस लेती है और कूड़ेदान में डाल देती है। उसके बाद उस जमात का शख्स टोंटी पोछता है और आपका शुक्रिया अदा करता है, चाहे आप उसे बख्शीश दें या न दें।

सस्ते कामगारों की इस बड़ी जमात के नए-नए इस्तेमाल ढूंढे जाने लगे हैं। कुछ बेहद अमीर और पुरानी कंपनियों में एक चपरासी आपके पीछे-पीछे चलेगा। दस्ताने पहना हुआ वह चपरासी पीतल के चमचमाते हैंडल धकेलकर आपके लिए दरवाजा खोलेगा और अगर आप खुद ही दरवाजा खोलते हैं तो वह हैंडल को कपड़े से रगड़कर फिर चमकाएगा। कई महंगे होटल अब निजी खानसामे या चाकर रखने लगे हैं, जिन्हें देखकर आप खुश हो सकते हैं, लेकिन पश्चिम से आए कई यात्री इसे ठाठबाट नहीं मानते बल्कि जबरदस्ती की दखलअंदाजी मानते हैं। अर्थव्यवस्था में तरक्की से लोगों के रंगढंग और भी खराब हुए हैं। अगर किसी दंपती के तीन बच्चे हैं तो वहां तीन आया होने लगी हैं… हर बच्चे के लिए अलग आया। उन्हें रेस्तरां में भी जाना पड़ता है, किटी पार्टी में भी और मालिक के परिवार के साथ छुट्टिïयां मनाने के लिए हवाई जहाज पर भी बैठने को मिलता है।

इतनी निर्भरता चिंता की बात है, लेकिन विक्टोरियाकालीन ब्रिटेन की तर्ज पर यहां भी ‘बिलो स्टेयर्स’ तबके को नौकरी पर रखना आसान बात है। ब्रिटेन में यह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि वहां घरेलू नौकरों को मालिकों के घर में सीढिय़ों के नीचे संकरी जगह में ही सोना पड़ता था। अपने अपार्टमेंट पर नजर जरूर डालिएगा, जहां ताबूत जितनी जगह को ‘सर्वेंट क्वार्टर’ कह दिया जाता है।

अधिकार की यह भावना देवयानी खोब्रागडे मामले में साफ दिखी थी, जिसमें यही दिख रहा था कि हरेक अधिकार प्राप्त भारतीय को राजनयिक अभयदान के अलावा सस्ती नौकरानी रखने का भी बुनियादी हक है। इस मामले में तो गरीबों के हक की दुहाई देने वाली और वामपंथी झुकाव वाली सरकार ने भी अपने सबसे अहम साथी के साथ रिश्ते बिगाड़ लिए और मीडिया भी राजनयिक के पीछे खड़ी हो गई। सबने मिलकर उस नौकरानी को किसी विदेशी षड्यंत्रकारी की तरह दिखाया, जो भारत का नाम खराब कर रही थी और इतनी नमकहराम थी कि नौकरी देने के लिए शुक्रिया भी अदा नहीं कर रही थी, चाहे उसकी पगार कितनी भी कम हो।

जब मैंने 21 दिसंबर, 2013 के अपने एक लेख में ये मुदïदे उठाए तो भारतीय विदेश सेवा ने फौरन उस लेख को आड़े हाथों लिया। अब तो वह कहानी सबके सामने खुल चुकी है। 2008 के लेख में गिरिधरदास ने अपनी बात रखने के लिए मालिकों और उनके नौकरों की जिंदगियों पर बनी बॉलीवुड फिल्म (बारह आना) का भी जिक्र किया। मैं मेघना गुलजार के निर्देशन वाली और अपने दोस्त विशाल भारद्वाज की लिखी फिल्म ‘तलवार’ का जिक्र करूंगा, जो हाल ही में आई है। आरुषि-हेमराज मामले पर मेरी कोई राय नहीं है। उस कहानी में मैं केवल दो तरह के, दो तबके के लोगों की बात कह रहा हूं।

एक तरफ वे लोग थे, जो सौम्य, शिष्टï, प्यारे, कड़ी मेहनत करने वाले थे, जो पीडि़त लग रहे थे। दूसरी तरफ मस्तमौला, पीने वाले, लोगों को घूरने वाले, खी-खी करने वाले और कई बार तो मोगांबो के अंदाज में ठहाका लगाने वाले लोग थे, जिन पर कोई भी शक करता। हम जैसे ज्यादातर लोग जब फिल्म देखकर लौटे तो ‘अन्याय’ की बात सोचकर हिले हुए थे। हमें अच्छा लगा, टाइम्स ऑफ इंडिया, जिसके मालिक ने वह फिल्म बनाई है, ने अगले दिन के अंक में हमें अपने नौकरों को फिल्म दिखाने की सलाह दी ताकि आपको लगे कि वे सभी गुनहगार और सजायाफ्ता की तरह महसूस कर सकते हैं। कोई यह पूछने की जहमत नहीं उठाता कि उस लंबी तहकीकात और अदालती कार्यवाही में अगर पक्षपात किया गया था तो संपन्न डेंटिस्टों के बजाय उन तीन गरीब नेपाली नौकरों के पास ऐसा करने की ताकत कहां से आ गई?

कोई यह नहीं सोचता कि फिल्म में जो नारको परीक्षण दिखाया गया है, उसमें ‘डॉक्टर’ डेंटिस्ट दंपती के बजाय नौकरों के जिस्म में सच बुलवाने वाली ज्यादा से ज्यादा दवा ठूंसने की मंशा क्यों जाहिर करता है। हम सब मजे में ठहाके लगाते हैं, जब सीबाआई का एक अधिकारी उत्तर प्रदेश के अनाड़ी से पुलिस वाले को पतलून उतारने के लिए कहता है। सीबीआई का वह भला अधिकारी एक नेपाली नौकर की तो धुनाई भी करता है। हमें वह ठीक लगता है और पूरी घटना अपने फोन पर रिकॉर्ड करने वाला जूनियर अधिकारी गद्दार लगता है। हालांकि अगर डेंटिस्टों की पिटाई को फोन पर रिकॉर्ड किया जाता तो वह जूनियर हमें व्हिसल ब्लोअर लगता। अगर विशाल भारद्वाज जैसे संजीदा और संवेदनशील फिल्मकार ने स्क्रिप्ट लिखी हो तो इन खामियों पर ध्यान नहीं देने की तोहमत फिल्म आलोचकों पर क्यों थोपी जाए? उभरते भारत में वर्ग ही नई जाति हैं और एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। हम कभी-कभी, थोड़े वक्त के लिए जागते हैं, जब झारखंड से आई बुरी तरह सताई गई आदिवासी किशोरी हमारी अलमारी से सीधे हमारी आंखों में झांकती है।

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