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Sunday, November 3, 2024
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मौजूदा बवाल के बीच चंद जरूरी सवाल

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यह मौसम ‘बच्चों’ को बुजुर्गों की ओर से मिलने वाले मशविरों का है। अब बच्चे ‘भटके हुए’ (जैसा मानव संसाधन मंत्री ने संसद में कहा) हैं अथवा नहीं यह बात दूसरी है लेकिन मैं सलाह देने का यह सुनहरा अवसर भला क्यों चूकूं? उम्र के इस मोड़ पर पहुंच कर मैं इतना तो कर ही सकता हूं और किसी अखबार की सुर्खियों में अगर मुझे अंकल लिख दिया जाएगा तो भी मैं इसकी शिकायत नहीं करूंगा। तो कन्हैया कुमार को मेरी सलाह यह है कि आजादी की उनकी तमाम मांगें ठीक हैं लेकिन अरे नौजवान भला पूंजीवाद से आजादी क्यों चाहिए? तुम्हारी समस्या क्या है भटके हुए बच्चे? यह पूंजीवाद ही है जो हमें समानता देगा और जेएनयू जैसे कई अन्य विश्वविद्यालय बनाने के लिए कर जुटाएगा। बस इसके बाद मैं हमारे चुने हुए ‘स्टूडेंट ऑफ द इयर’ को मिलने वाले कुछ अन्य सुझावों की ओर बढ़ूंगा। लेकिन ऐसे तीन परामर्शदाताओं से मेरी असहमति है।

भीम सेन बस्सी शायद विविधभारती के इंसपेक्टर ईगल के बाद सबसे मुखर और कल्पनाशील गुप्तचर हैं। उन्होंने न्यायशास्त्र के स्टालिनवादी सोच का स्पष्टï उल्लेख कर मुझे तो डरा ही दिया था। यानी जब तक आप निर्दोष नहीं साबित होते तब तक दोषी हैं। साफ कहा जाए तो हालांकि मैं उनके द्वारा बंद किए गए और उनकी नजर के सामने वकीलों द्वारा ‘बच्चों’ को पीटे जाने को लेकर बहुत कुछ महसूस करता हूं लेकिन बतौर पत्रकार मैं उनका भी ऋणी हूं क्योंकि उन्होंने न केवल सुर्खियां और प्राइमटाइम मनोरंजन को जन्म दिया बल्कि उन्होंने खंडित राजनीति के इस निराश करने वाले समय में हमें हंसने का अवसर भी दिया। कहने का आशय यह है कि भला किस परमाणु हथियार क्षमता संपन्न देश की राजधानी का पुलिस प्रमुख ऐसा होगा जो ट्विटर के पैरोडी हैंडल को एक ऐसे आतंकवादी का हैंडल समझ लेगा जो भारत द्वारा वांछित हो और जिस पर एक करोड़ डॉलर का इनाम हो। बस्सी ने न केवल पूरे देश की पुलिस को उसकी ‘धमकी’ के बारे में चेताया बल्कि उन पर विश्वास करने वाले गृहमंत्री तक को इसमें शामिल कर लिया। उसके बाद वही हुआ जिसे कहते हैं, खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे। जेएनयू के बारे में कंडोम, हड्डिïयों और महिला बहुलता को लेकर ऐसी-ऐसी बातें सुनने को मिलीं कि वह अल्बानिया से भी अधिक रोचक और वामपंथी नजर आने लगा। ऐसे में मेरा बस्सी से उलझने का कोई इरादा नहीं। लेकिन मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति इरानी की बात करूं तो मेरे पास उनकी बराबरी करने के लायक वाकपटुता, शब्दज्ञान या बौद्घिकता नहीं है तो उनसे तो मैं पनाह मांगता हूं।

इसके बाद केवल सम्माननीय न्यायाधीश ही बचती हैं लेकिन समस्या यह है कि उनसे तर्क कैसे किया जाए? बहरहाल, चूंकि न्यायाधीश अक्सर कहते हैं कि उनके कंधे इतने चौड़े होने चाहिए कि वे कुछ गंभीर पत्रकारीय धृष्टïताओं को क्षमा कर सकें तो मैं उनसे क्षमा मांगते हुए अपनी बात शुरू करता हूं। मुझे इस बात ने भी साहस प्रदान किया है कि सम्मानित बुजुर्ग अधिवक्ता और संविधानविद फली नरीमन ने भी वाक द टाक शो की रिकॉर्डिंग में मुझसे यही बात कही। उन्होंने कहा, ‘यह अच्छी बात है कि न्यायाधीश ने छात्र को ऐसी गतिविधियों में न शामिल होने की सलाह दी। लेकिन इस मामले में सीमा पर तैनात जवानों को क्यों खींचना और यह क्यों कहना कि वे हमारी आजादी की रक्षा करते हैं?’ निश्चित तौर हमारे बहादुर सैनिक बड़े काम करते हैं लेकिन हमारा संविधान न्यायपालिका, संसद आदि के जरिये हमारी आजादी सुनिश्चित करता है। मेरे लिए यह आसान होगा कि मैं फली नरीमन के बहाने अपनी बात कहूं लेकिन मैं इस बहस का दायरा बढ़ाना चाहता हूं।

यकीनन न्यायाधीश ने कन्हैया पर किसी बड़े चिकित्सकीय औजार का प्रयोग करने के बजाय एंटीबायोटिक की केवल एक खुराक देने का उदार फैसला किया। उन्होंने यह कहकर भी पर्याप्त निष्पक्षता दिखाई कि जांच शुरुआती स्तर पर है इसलिए दोषी ठहराने का नतीजा नहीं निकाला जा सकता है। लेकिन उनका यह कहना पसोपेश में डालता है कि जेल में कन्हैया को आत्मालोचन करने का अवसर मिला होगा? किस बात का आत्मालोचन? क्या उसने कुछ गलत किया है? मैं एक बार फिर कहूंगा कि मैं उसके निर्दोष होने का दावा नहीं करता। लेकिन अभी तक वह दोषी नहीं है। तो फिर उसे यह आजादी क्यों नहीं होनी चाहिए कि वह केवल संदिग्ध के रूप में आत्मालोचन कर सके? क्या हम वैचारिक जेल चला रहे हैं? यकीनन नहीं। हम संदिग्धों को जेल में नहीं डालते, वकीलों की भीड़ उनकी तब तक पिटाई नहीं करती, ‘जब तक उनकी पैंट न गीली हो जाए’ और क्या पुलिस ने उनसे कई दिनों तक पूछताछ इसीलिए की थी कि यदि वे दोषी नहीं हैं तो वे आत्मालोचन करें। निश्चित तौर पर न्यायपालिका बस्सी के उस फॉर्मूले पर नहीं चलती कि जब तक आप निर्दोष नहीं साबित होते तब तक आप दोषी हैं। नरीमन ने एक और बात कही जिसे मैं यहां रखने का साहस कर रहा हूं: हमारी संवैधानिक स्वायत्तता की रक्षा कौन करता है, न्यायपालिका समेत तमाम संस्थाएं या हमारी सेना? मैं संपूर्ण विनम्रता के साथ यह बात कह रहा हूं।

मैं ऐसा करने की हिम्मत जुटा पाया हूं क्योंकि गूगल मुझे बताता है कि माननीय न्यायाधीश और मैं कमोबेश एक ही पीढ़ी के हैं। वह पीढ़ी जिसके राष्ट्रवाद की व्याख्या मनोज कुमार के भारत कुमार अवतार ने की। वही मनोज कुमार जो करीब एक दशक तक महेंद्र कपूर की बुलंद आवाज में गाते रहे। शायद उन्होंने उपकार फिल्म भी देख रखी थी क्योंकि उन्होंने फिल्म के देशभक्ति भरे गीत ‘मेरे देश की धरती’ का उल्लेख किया। शायद हम कक्षा छह या सात में थे जब इस गीत से बहुत आसानी से प्रभावित हो गए थे।

मैं सन 60 के उतार-चढ़ाव भरे और असुरक्षित विश्व में पैदा हुआ था जब हम स्कूल में गाते थे, ‘नन्हा मुन्ना राही हूं, देश का सिपाही हूं’, साथ ही यह भी ‘आती है आवाज यही मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारों से, संभल के रहना अपने घर में छिपे हुए गद्दारों से’। तो मेरी दूसरी दलील के मुताबिक मुझे लगता है कि हम पड़ोसी पर संदेह करने वाली मानसिकता को कहीं पीछे छोड़ आए थे। भारतीय राष्ट्रवाद का उदय सन 60 के दशक से हुआ और देश एक आत्मविश्वासी देश के रूप में सामने आया। विविध विचार हमारा नाश नहीं कर सकते।

मैं स्वीकार करता हूं कि मुझ पर वर्षों तक पाकिस्तान की रिपोर्टिंग करने का भी असर है जहां सेना राष्ट्रवादी विचारधारा के मूल में है। जो बात वहां की सेना को सत्ता के ढांचे में केंद्रीय भूमिका प्रदान करती है, वह यह है कि सेना पाकिस्तान की विचारधारा की रक्षा करती है। उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान में हाल तक एक स्थायी संविधान नहीं था। सन 1990 की गर्मियों में जब तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टïो ने एक ऐसा प्रश्न उठाया था जो शायद वहां किसी को नहीं उठाना चाहिए, तब मैं वहीं था। उन्होंने पूछा था, ‘सेना पाकिस्तान के वैचारिक मोर्चों की रक्षक है या सीमा की?’ याद रखिए यह तब हुआ था जब सोवियत संघ टूटा ही था। भुट्टïो ने पूछा था कि अगर सेनाएं विचारधारा को बचा पातीं तो सोवियत संघ क्यों टूटता? उन्होंने यह बात क्वेटा में सशस्त्र बलों के स्टाफ कॉलेज में कही थी।

जानकार पाकिस्तानियों ने मुझसे कहा था कि वह कुछ दिनों या हफ्तों से ज्यादा नहीं टिक पाएंगी। पाकिस्तान में कोई निर्वाचित प्रधानमंत्री ऐसा कहकर बच नहीं सकता। उन्होंने तो खासतौर पर अपने जनरल की आंखों में अंगुली डाल दी थी, वह भी उनके संस्थान में। लेकिन वह कुछ सप्ताह से अधिक नहीं टिक सकीं। फौजी प्रतिष्ठान ने उन पर जो आरोप लगाए उनमें राजद्रोह और भारत समर्थक होने का आरोप भी था। भारत में इस बहस की आवश्यकता कभी नहीं पड़ी। हमारी शानदार, पराक्रमी सेना हमारी सीमाओं की रक्षा करती है। आजादी और नागरिकों के अधिकार संसद, न्यायपालिका और नागरिक समाज की जिम्मेदारी हैं। वास्तव में जब कोई सैनिक, या जनरल अन्याय महसूस करता है तो वह हमारी उत्कृष्टï न्यायपालिका के पास ही जाता है। मैं अपनी बात यहीं समाप्त करता हूं। योर लॉर्डशिप।

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