सोमवार को लंच के वक्त तक ऐसा लगने लगा कि हमारी राजनीति सामान्य स्थिति की ओर बढ़ रही है या कहें कि कम से कम कुछ हद तक यह सच है। संसद शांतिपूर्ण ढंग से चली और राज्यसभा में यह सामान्य कामकाजी दिन रहा, जो हाल के दिनों में उतना ही दुर्लभ है, जितना लंदन की शीत ऋतु में चमकदार धूप वाला दिन। तीन लंबित विधेयक समय रहते पारित हुए। राजधानी के तुगलक रोड स्थित अपने निवास पर जनता दल (यू) के नेता शरद यादव भारतीय राजनीति के श्रेष्ठतम वर्ग, अपने वरिष्ठ पार्टीजनों व सांसदों और बेशक मीडिया के ज्यादातर हिस्से की मेजबानी कर रहे थे। अन्य समाजवादियों की तरह शरद यादव मीडिया के साथ अत्यंत सौजन्यता रखने वाले व्यक्ति हैं और उन तक पहुंचना बहुत आसान होता है। मौका था उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के हाथों उनके द्वारा लिखी कॉफी टेबल बुक के विमोचन का।
मजे की बात है कि एक हफ्ते में यह ऐसा दूसरा आयोजन था। इसके पहले शरद (पवार) ने अपने 75वें जन्मदिन और उन पर लिखी एक किताब के विमोचन के मौके पर सारे दलों से अपने प्रशंसकों को एक जगह एकत्रित किया था। दोनों आयोजनों में मोदी बहुत खुश, गर्मजोशी से भरे और मैत्रीपूर्ण रहे, उन लोगों के बीच भी, जो राजनीतिक रूप से ज्यादातर एक-दूसरे का गला पकड़े होते हैं। राजनीतिक मतभेदों के बावजूद मेजबान के प्रति सौहार्द्रपूर्ण अच्छी बातें कही गईं।
किंतु एक बड़ा अंतर था। पवार के जन्मदिन का जश्न लगभग विशुद्ध रूप से सामाजिक आयोजन का चरित्र लिए हुए था। मैंने ‘लगभग’ शब्द का प्रयोग इसलिए किया, क्योंकि राजधानी में कोई आयोजन, जिसमें राजनेता मौजूद हों, विशुद्ध रूप से व्यक्तिगत या सामाजिक आयोजन नहीं माना जाता, चाहे वह सीदा-सादा विवाह-समारोह ही क्यों न हो। कुछ पंडितों ने इसमें शरद पवार को 2017 की राष्ट्रपति पद दौड़ में अपनी टोपी फेंकते देखा- भाजपा किसी बाहरी व्यक्ति को यह मौका क्यों देगी, यह महत्वपूर्ण प्रश्न है, लेकिन जब राजनीतिक अटकलबाजी की बात हो तो किसे परवाह है। किंतु शरद यादव का आयोजन विशुद्ध राजनीति थी।
इस आयोजन का समय ऐसा रखा गया कि वह नई दिल्ली में जद (यू) के राष्ट्रीय अधिवेशन से मेल खाए। सबसे पहले तो यह ऐसा अवसर था, जिसमें पूरे जद (यू) नेतृत्व का प्रदर्शन किया गया, जिनमें ज्यादातर बिहार से हैं और दिल्ली से उतने वाकिफ नहीं हैं। भाषणबाजी नहीं हुई- एक भी भाषण नहीं हुआ। केवल गरिमापूर्ण दो मिनट का फोटो सत्र हुआ, जिसमें प्रत्येक दल का कोई न कोई सदस्य था। हालांकि, जब अरविंद केजरीवाल मंच पर आमंत्रित किए गए तो विशेष हर्ष-ध्वनि जरूर हुई। संगीत ऊंची आवाज में और महत्वपूर्ण था : ख्यात साबरी बंधु कव्वाली ग्रुप सूफी संगीत पेश कर रहा था, क्योंकि यह बिहार चुनाव के बाद धर्मनिरपेक्ष खेमे का शक्ति प्रदर्शन जो था और इस बारे में कोई सवाल ही नहीं था कि उस आयोजन में गुरुत्वाकर्षण का केंद्र किधर था।
ये नीतीश कुमार थे। वे जल्दी ही पहुंच गए थे और इसलिए उसके बाद आने वाली शख्सियतें सोनिया गांधी व मनमोहन सिंह, मुलायम सिंह यादव, तृणमूल के डेरेक ओ’ब्रायन, सीताराम येचुरी, दिग्विजय सिंह, गुलाम नबी आजाद, एनसीपी के डीपी त्रिपाठी उनसे मिले, बधाई दी और फिर उनके दाएं या बाएं बैठ गए। केवल अरविंद केजरीवाल अपने टीवी योद्धा राघव चड्ढा के साथ अलग सोफे पर बैठे। ठीक उसी वक्त अरुण जेटली पटियाला हाउस कोर्ट में केजरीवाल के खिलाफ मानहानि का मामला दायर करने गए थे। सच तो यह है कि शहरी विकास और संसदीय मामलों के मंत्री वेंकैया नायडू, जो वहां मौजूद वरिष्ठतम भाजपा नेता थे, बहुत जल्दी वहां से चले गए। जाहिर है वे अदालत में जेटली का साथ देने गए थे। हालांकि, भाजपा सांसद तरुण विजय वहां बने रहे।
इस आयोजन से जो कुल संदेश जा रहा था, वह सबके ध्यान में आए बिना नहीं रहा। विपक्ष में नई ऊर्जा का संचार हुआ है और ये सारे दल इसके लिए नीतीश को श्रेय दे रहे हैं। नीतीश ने लालू यादव जैसी ध्यानाकर्षण की कोई हरकत नहीं की और न उनमें सत्ता का वह आभामंडल नज़र आया, जो नरेंद्र मोदी में नज़र आता है, लेकिन उनकी अपनी देहबोली में आपको नई सत्ता के सबूत तलाशने की जरूरत नहीं है। यह तो वहां मौजूद अन्य सारे विपक्षी नेताओं की देहबाली में मौजूद था। हालांकि, मुझे कहना होगा कि लालू की पार्टी लगभग नदारद-सी थी।
बिहार चुनाव के बाद विपक्ष में जागे उत्साह के मूड की भी अनदेखी नहीं की जा सकती, खासतौर पर तब जब भाजपा के भीतरी लोग ही, कुछ खुले रूप से तो कुछ परदे के पीछे से प्रधानमंत्री के सबसे भरोसेमंद मंत्री अरुण जेटली पर निशाना साध रहे हैं। 7 तुगलक रोड के लॉन पर भी यह काफी स्पष्ट था। असम का काफी उल्लेख हो रहा था, जिसे विपक्ष भाजपा से मुठभेड़ के अगले रणक्षेत्र के रूप में देख रहा है, लेकिन कांग्रेस को अपने तीन बार के रिकॉर्ड का बचाव करते हुए इस लड़ाई का नेतृत्व करना होगा ताकि मोदी-शाह जोड़ी को एक और झटका दिया जा सके। धूप में चमक रहे लॉन पर यहां-वहां बतिया रहे विपक्ष के अनुभवी नेताओं को कोई शक नहीं है कि राज्य में कांग्रेस बिखरी हुई है, उसका कोई नेता नहीं है (तीन कार्यकालों के बाद 79 वर्षीय तरुण गोगोई से तो नेतृत्व की अपेक्षा नहीं की जा सकती)। हिमंत बिश्व शर्मा के नेतृत्व वाला इसका सबसे प्रतिभाशाली व संसाधन-संपन्न तबका तो भाजपा ने चुरा लिया है, जिसने पूर्व में क्षेत्रीय असोम गण परिषद के नेतृत्व को भी ऐसे ही खाली कर दिया था।
इसलिए किसी को यह भ्रम नहीं है कि असम में लड़ाई आसान होगी। एक ही तरीका है कि स्थानीय दलों से गठजोड़ किया जाए खासतौर पर बदरुद्दीन अजमल की क्षेत्रीय पार्टी से ताकि मुस्लिम वोट विभाजित न हों। किसी को भी, मैं फिर कहूंगा, किसी को भी भरोसा नहीं है कि कांग्रेस यह गठबंधन साकार कर सकती है। हर कोई नीतीश की ओर देख रहा है कि वे अपने नए रुतबे का इस्तेमाल कर यह कर दिखाएं।
भाजपा अब राष्ट्रीय राजनीति के लिए वही हो गई है, जो कांग्रेस हुआ करती थी : ऐसी प्रभावी राष्ट्रीय पार्टी, जो अपने खिलाफ बाकी सारे दलों को एकजुट करने का कारण है। लेकिन कांग्रेस का मतलब भूतकाल की भाजपा नहीं होता, तब जब इस एकीकृत कांग्रेस विरोधी नेतृत्व का अपना अलग वजूद है। मैं तो यहां तक कहना चाहूंगा कि विपक्षी दलों के संसार में आज कांग्रेस का उतना भी वजन नहीं है, जितना दिसंबर 1984 के बाद सिर्फ दो सीटों तक सीमित हो चुकी भाजपा का था। इसका एक कारण नीतीश कुमार का उदय है, ‘धर्मनिरपेक्ष’ राजनीति में एक नया ध्रुव।