बीते गुरुवार की देर शाम जब मैं अनिच्छापूर्वक हवाई अड्डे के लिए निकला तो सोच रहा था कि बेंगलूरु की मेरी उड़ान, जो दो घंटे देरी से थी, उसमें कुछ और देर हो जाए। मैं उस क्रिकेट के बारे में नहीं सोच रहा था, न ही सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त लोढ़ा समिति द्वारा बीसीसीआई नेतृत्व पर किए गए सर्जिकल स्ट्राइक के बारे में। मैं कुश्ती के बारे में सोच रहा था। वह भी फिल्म दंगल की कुश्ती नहीं बल्कि असली कुश्ती। मैंने थोड़ी देर पहले ही असली बबीता फोगाट को 46 सेकंड के एकतरफा मुकाबले में सोफिया मैटसन से हारते देखा था। उसके बाद एक जाना-पहचाना चेहरा मैट पर आया वह थे अजरबैजान के तोगरुल असगारोव। उन्होंने लंदन ओलिंपिक में 60 किग्रा वर्ग में स्वर्ण पदक और रियो में 65 किग्रा वर्ग में रजत पदक जीता था। उनके सामने थे अनजान से भारतीय पहलवान विकास कुमार। पहले दौर के बाद असगरोव 5-0 से आगे थे। दूसरे दौर में विकास दंगल फिल्म के महावीर फोगाट की तरह आक्रामक कुश्ती लड़े और उस राउंड को 3-2 से जीतने में कामयाब रहे। वह मैच हार गए लेकिन एक अनजान खिलाड़ी ने दुनिया के बेहतरीन खिलाड़ी से जमकर लोहा लिया। देश की प्रो रेसलिंग लीग में काफी पैसा और प्रतिष्ठा लगी हुई है। आईपीएल की तरह इसमें भी शहर और राज्य केंद्रित फैं्रचाइजी का मालिकाना हक दौलतमंद उद्यमियों के पास है। दुनिया के नामीगिरामी महिला और पुरुष पहलवान इसमें शिरकत कर रहे हैं। यह लीग आपको विश्वस्तरीय कुश्ती के दीदार का अवसर दे रही है, बजाय कि टीवी पर दिखाई जाने वाली सुल्तान फिल्म जैसी मार्शल आर्ट मिश्रित कुश्ती के। यहां आप देसी पहलवानों की एक नई पौध को देख रहे हैं जो नाम के साथ अच्छे पैसे भी कमा रही है।
एक अन्य खेल चैनल पर प्रीमियर बैडमिंटन लीग (पीबीएल) के मुकाबले चल रहे थे जहां भारतीय सितारे के श्रीकांत दुनिया के दूसरे नंबर के खिलाड़ी डेनमार्क के जान ऑस्टरगार्ड जॉर्गनसन के खिलाफ जूझ रहे थे। श्रीकांत की विश्व रैंकिंग 15 है लेकिन वह जीत गए। लखनऊ में स्टेडियम खचाखच भरा हुआ था। अगर आप इस लीग को देखें तो वीआईपी दीर्घा में भारतीय बैडमिंटन महासंघ (बीएआई) के प्रमुख अखिलेश दास नजर आएंगे। वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके स्वर्गीय बनारसी दास के बेटे हैं। उनके कई शिक्षण संस्थान हैं और वह संप्रग-एक में इस्पात राज्य मंत्री रह चुके हैं। बैडमिंटन भी आज बहुत अच्छी स्थिति में है। भारतीय कुश्ती महासंघ काफी हद तक पांच बार गोंडा से सांसद रह चुके बृज भूषण शरण सिंह की जागीर बना हुआ है। उन पर 16 की उम्र में ही भारतीय दंड संहिता की धारा 307 के तहत मुकदमा हो गया था। बाबरी-अयोध्या अभियान में शिरकत के लिए उनको जेल जाना पड़ा और बाद में वह टाडा के तहत अंदर हुए। उनकी वेबसाइट कहती है, ‘उन्हें बचपन से ही स्वास्थ्य के प्रति सचेत हैं। उन्हें हर सुबह घुड़सवारी, साइकिलिंग, व्यायाम, योग और कुश्ती करना पसंद है। समय के साथ यह लगाव बढ़ता गया और अब वह कुश्ती में गहरी रुचि रखते हैं। कुश्ती से उनका रिश्ता जिला, राज्य और राष्ट्रीय महासंघ के चुनाव लडऩे का है।
अगर बैडमिंटन और कुश्ती महासंघ को बीसीसीआई के बरअक्स रख दिया जाए तो सिंह और अखिलेश दास दोनों लोढ़ा समिति के मानकों पर विफल हो जाएंगे। लेकिन उनके नेतृत्व में खेल तो फल-फूल रहे हैं। कुछ अन्य खेलों की बात करते हैं जिनमें हमने प्रगति की है। वर्ष 2007-12 के दौरान मुक्केबाजी अपने शबाब पर रही। उस वक्त उस पर अभय चौटाला काबिज थे (पिछले दिनों उनको ओलिंपिक फेडरेशन का आजीवन अध्यक्ष बनाए जाने पर विवाद हुआ। कांग्रेस की भूपेंद्र सिंह हुड्ड सरकार के कार्यकाल में चौटाला के भाई और पिता को भ्रष्टाचार के आरोप में जेल हुई। परंतु उन्होंने हरियाणा को मुक्केबाजी में गजब ख्याति दिलाई। हरियाणा के विजेंदर सिंह उसी दौर के नायक हैं। वह देश के पहले विश्वस्तरीय पेशेवर मुक्केबाज बने हैं। चौटाला के बाहर होने के बाद मुक्केबाजी का भी पराभव हुआ। अब स्पाइसजेट के नए मालिक और प्रमोद महाजन के पुराने मित्र अजय सिंह के अधीन मुक्केबाजी महासंघ का पुनर्गठन हो रहा है।
कब्बडी भी खूब विकसित हो रही है। खिलाडिय़ों को भारत में होने वाली अंतरराष्ट्रीय लीग में करोड़ों रुपये मिल रहे हैं। दोनों धाराओं की राजनीति कर चुके जनार्दन सिंह गहलोत ने वर्षों तक देश में कबड्डी को संभाला और अब वह विश्व कबड्डी महासंघ के अध्यक्ष हैं। भारत में कबड्डी का जिम्मा उनकी पत्नी डॉ. मृदुल भदौरिया के पास है। इनमें से कोई भी लोढ़ा समिति की उम्र, पेशे या कार्यावधि की परीक्षा में खरा नहीं उतरेगा। एथलेटिक्स की बात करें तो वहां जरूर शीर्ष एथलीट अध्यक्ष है। एडिल सुमारीवाला वर्षों तक देश के सबसे तेज धावक रहे। वह मॉस्को ओलिंपिक में दौड़े और बाद में वर्षों तक भारत की सबसे तेज धाविका रही जेनिया एर्यटन को तैयार किया। वह अभी युवा हैं और लोढ़ा समिति के मानकों पर खरे। भारतीय एथलेटिक्स जगत की हालत खराब है। हॉकी भी एक ऐसा खेल है जो अच्छे बुरे की परिभाषा को धता बताता है। भारतीय हॉकी महासंघ (आईएचएफ) का नेतृत्व काफी समय तक केपीएस गिल के पास रहा लेकिन इसके अधिकारियों द्वारा राष्ट्रीय चुनाव में रिश्वत लेते पकड़े जाने के बाद इसे निलंबित कर दिया गया। कलमाड़ी के नेतृत्व वाले ओलिंपिक महासंघ और खेल मंत्रालय ने हॉकी इंडिया का गठन किया। अभी हाल तक उस पर नरिंदर बत्रा काबिज थे जो दिल्ली के एक अस्पताल के मालिक हैं। उनके कार्यकाल में ही हॉकी में महिला और पुरुष वर्ग में एशियाई चैंपियनशिप में जीत मिली। 25 साल बाद हम दुनिया में शीर्ष 5-6 टीमों में आए। जूनियर वर्ग में हम विश्व चैंपियन बने। बत्रा एफआईएच के अध्यक्ष बन गए हैं जो दुनिया भर में हॉकी का शीर्ष संगठन है। हॉकी इंडिया का जिम्मा उन्होंने एक महिला मरियम्मा कोशी को सौंपा है जो पूर्व राष्ट्रीय खिलाड़ी हैं। दुनिया के शीर्ष खिलाड़ी हॉकी इंडिया लीग में आ रहे हैं। इस खेल में वह पैसा आ रहा है जो पहले कभी सोचा भी नहीं गया। क्रिकेट के टी-20 के तर्ज पर 5-5 खिलाडिय़ों की टीम वाली हॉकी की शुरुआत के बाद इस खेल में और पैसा आएगा।
क्या हम इन आंकड़ों से कोई नतीजा निकाल सकते हैं? उम्र, राजनीति, समृद्घि, खेल रिकॉर्ड, इनमें किसी का खेल की सफलता से कोई संबंध नहीं है। ऐसे में आप यह मानक कैसे तय करेंगे कि देश के सबसे सफल खेल क्रिकेट का मुखिया कौन होगा? यह संगठन आर्थिक महाशक्ति भी है। बीसीसीआई अपारदर्शी, भ्रष्ट और दंभी संस्थान है। इसमें हितों के तमाम टकराव भी हैं। किसी भी अन्य शीर्ष क्लब की तरह यह ईष्र्या का शिकार भी है। ऐसे में न्यायालय और तीन वरिष्ठ सेवानिवृत्त न्यायाधीश (लोढ़ा, आर वी रवींद्रन और अशोक भान) इस समस्या को कैसे हल करेंगे? बीसीसीआई ने अदालत की बात न मानकर बड़ी गलती की। अदालत या उसकी समिति को बीसीसीआई में सुधार का काम अपने जिम्मे नहीं लेना चाहिए था। अब एक तरह का जोखिम पैदा हो गया है। सही तरीका यह था कि समिति की रिपोर्ट सरकार को सौंप दी जाती और उससे रिपोर्ट तलब की जाती। लेकिन अदालत ने खुद बदलाव लाने की ठानी।
न्यायाधीशों ने कड़ी मेहनत की लेकिन वह आधुनिक खेल से जुड़ी एक बात भूल गए। अब इसमें ग्लैमर, तड़क-भड़क, शोर, पैसा, रंगीनियत, पटाखे, चियरलीडर, खूबसूरत टीवी एंकर आदि सब शामिल हैं। ये सब एक समय भद्र जनों का खेल कहे जाने वाले क्रिकेट का हिस्सा हैं। अगर उद्यमी भावना के साथ खेल का व्यवसायीकरण किया जाए तो वह सफल होता है। आईपीएल इसका उदाहरण है। ऊपर जिन खेलों का वर्णन किया गया वे सभी इसलिए फलेफूले क्योंकि उन्होंने आईपीएल का अनुकरण किया। पैसे देकर खेल देख रहे लोगों को विराट कोहली और रवींद्र जाडेजा की आक्रामकता भाती है। उनको बापू नाडकर्णी के 21 मेडन ओवर या जहीर अब्बास द्वारा अपनी गेंद पर कवर ड्राइव लगाने पर ताली बजाते बिशन सिंह बेदी नहीं भाएंगे। खेल अब पैसे का खेल बन चुका है। यह तमाशा और दिखावा बन चुका है।