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Wednesday, November 6, 2024
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प्रधानमंत्री के ट्वीट पर हंगामा क्यों?

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पठानकोट में जब संघर्ष जारी था उस समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के योग के एक आयोजन में बोलने और उस पर ट्वीट करने की खूब आलोचना हो रही है, खिल्ली उड़ाई जा रही है। जब हमारे सैनिक खूनी संघर्ष में लगे हों तो वे जिंदगी को हमेशा की तरह कैसे जारी रख सकते हैं?

इस दलील पर निकट से और निष्पक्षता से गौर करने की जरूरत है। इसके जवाब का असर किसी भी माहौल में सरकार, सेना, कॉर्पोरेट या अन्य किसी भी क्षेत्र में नेतृत्व की मूल अवधारणा और उसके प्रति रवैये पर पड़ सकता है। किसी बड़े नेता को संकट में कैसी प्रतिक्रिया देनी चाहिए? क्या उसे हमेशा सारी चीजों पर नियंत्रण रखकर, अग्रिम मोर्चे से नेतृत्व देते हुए और जनता के साथ अपनी भावनाएं, चिंताएं और प्रतिबद्धता साझा करनी चाहिए? या उसे अपनी टीम पर भरोसा रखकर उन बातों पर निगरानी का काम जारी रखनी चाहिए, जो उसे करने की जरूरत है और ऐसे दिखाना चाहिए कि जैसे सब कुछ सामान्य है?

मेरा वोट, जैसा कि आपने अब तक अनुमान लगा ही लिया होगा, दूसरे विकल्प के लिए है। महान नेता अपनी टीम पर विश्वास करते हैं, एकदम जमीनी स्तर पर प्रबंधन में दखल नहीं देते, वे शांत नज़र आने और शांति फैलाने का प्रयास करते हैं। संकट से निपट रही उसकी टीम कभी नहीं चाहेगी कि उनका बॉस ऊपर-नीचे होता हुआ चीखे, ‘यह सब हो क्या रहा है।’ यह बात सबसे ज्यादा सैन्य स्थितियों पर लागू होती है, जहां जिंदगियां जोखिम में होती हैं और शांति खोजना सबसे कठिन होता है। यदि आप मुझे पढ़ते रहे हों, तो आप पुरानी पत्रकारिता के तीन उदाहरणों के नियम के प्रति मेरी कमजोरी को भी जानते होंगे। इसलिए यहां पर मेरी बात के संबंध में तीन वाकये पेश हैं। शुरुआत उस वाकये से करूंगा, जिसका मैं प्रत्यक्षदर्शी था, जिस पर मैंने पहले भी अटल बिहारी वाजपेयी की सहमति से लिखा है।

जून 1999 की शुरुआत में मुझे उनसे मिलने के लिए कहा गया था, करगिल युद्ध तब भी गंभीर दौर में था। उनके कार्यालय ने मुझे दोपहर बाद 3 बजे का समय दिया। मैं समय पर पहुंच गया और मुझे 7 रेसकोर्स रोड के प्रतीक्षा कक्ष में ले जाया गया। मैं इंतजार करता रहा…करता रहा, लेकिन मैंने शिकायत नहीं की, क्योंकि मुझे अहसास था कि किसी पत्रकार की बजाय प्रधानमंत्री का अपने समय पर ज्यादा हक होता है और उस वक्त तो युद्ध चल रहा था। मुझे 4:30 बजे एक सहायक बुलाने आया। वाजपेयी कमरे में टहल रहे थे और मैंने नमस्ते करते हुए अपने हाथ जोड़े, उन्होंने भी उसी प्रकार जवाब दिया।
फिर बनावटी खौफ दिखाते हुए कहा, ‘अरे, देखिए भाई, अनर्थ हो गया, शेखरजी को प्रतीक्षा करवा दी, नाराज हो जाएंगे।’ मैंने बड़ी विनम्रता से कहा, ‘नहीं, नहीं यह कैसे हो सकता है।’ और फिर उनसे पूछा कि क्या सब कुछ ठीक है या कोई नया संकट आ गया है, जिसमें वे व्यस्त हो गए हैं। यदि ऐसा है तो मैं फिर किसी दिन आ जाऊंगा। उन्होंने कहा, ‘नहीं..नहीं कोई संकट नहीं आया है। हम आधे घंटे के लिए सो गए थे और सोए ही रह गए, अनर्थ हो गया शेखरजी।’

अब बनावटी खौफ दिखाने की मेरी बारी थी। मैंने कहा, ‘कारगिल में युद्ध और अटलजी दो घंटे सोए दोपहर में?’ आप उनके साथ लिबर्टी भी ले सकते थे। उन्होंने कहा, ‘ठीक कहते हैं शेखरजी, मेरी राइफल कहां है, अटलजी अब करगिल की चोटी पर लड़ने जाएंगे, देश में जवानों की कमी हो गई है न।’ उन्हें तो अब तक राइफल नहीं मिली, लेकिन मैं पूरी तरह लाजवाब हो गया था। उसके बाद बहुत ही संक्षिप्त-सा व्याख्यान हुआ। शायद तीन वाक्य होंगे- बीच-बीच में उनके हमेशा के लंबे पॉज के साथ कि कैसे लीडर के लिए शांत रहना और दिखाई देना महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा, ‘झंझावात आपके भीतर चलता ही है, उसे दबा के रखिए।’
दूसरा उदाहरण हाल के दर्ज किए इतिहास से है कि कैसे जॉर्ज बुश (जूनियर) 9/11 के हमले की सूचना मिलने के बाद भी अविचलित बने रहे और एक स्कूल में व्याख्यान देने का वादा निभाया। तब उनकी बहुत आलोचना हुई थी, लेकिन वे बड़े नेता की भूमिका निभा रहे थे। तीसरा वाकया मैंने एक बहुत ही बुद्धिमान व्यक्ति, शीर्ष नौकरशाह रहे व दिल्ली के पूर्व उपराज्यपाल विजय कपूर से सुना। 1971 के युद्ध के समय वे सहायक थे और बताते हैं कि इंदिरा गांधी ने आदेश दिया था कि संसदीय समितियों की बैठकों सहित सारे रूटीन सरकारी कार्यक्रम हमेशा की तरह चलने चाहिए, जबकि उधर युद्ध भड़क गया था। ऐसी ही किसी बैठक में उन्हें गोपनीय लिफाफा सौंपा गया। उन्होंने इसे गंभीरता से पढ़ा, शांति से बंद किया और अपने हैंड बैग में रखकर उसे बंद कर दिया। लिफाफे में भेजे नोट में यह गंभीर समाचार था कि छंब सेक्टर में लड़ाई ठीक दिशा में नहीं जा रही है और ताजा टुकड़ियां भेजने के बाद भी यह मोर्चा मजबूत नहीं हुआ था। वे अविचलित शेष कमेटियों की बैठक में इस प्रकार शिरकत करती रहीं जैसे कुछ हुआ ही न हो।

दूसरी अति का उदाहरण राजीव गांधी के कार्यकाल का। श्रीलंका में भारतीय शांति रक्षक सेना (आईपीकेएफ) के संकट के दौरान देखा। वे काफी वक्त ऑपरेशन रूम्स में बिताते थे, लगातार अपने जनरलों से प्रश्न पूछते रहते थे, जो बदले में यह तनाव फील्ड कमांडरों में फैलाते थे, जिनके लिए चीजें वैसे भी ठीक नहीं थीं। बाद में जब वहां ओवर ऑल फील्ड कमांडर भेजा गया अौर जिसे सारे अधिकार दिए गए, तो वहां शांति और व्यवस्था कायम हो सकी। यदि आप इस बारे में और जानना चाहते हैं, कृपया आईपीकेएफ कमांडर रहे लेफ्टिनेंट जनरल एएस कालकट से बात कीजिए।

सबक : महान नेता अविचलित और दिलासा देने वाली मुद्रा में होते हैं, कई बार तो उदासीन तक दिखाई देते हैं। ऐसा करके वे अपनी टीमों पर भरोसा दिखा रहे होते हैं। मोदी के लिए ये शुरुआती दिन है, कृपया मामूली से योगा ट्वीट पर उन्हें सलीब पर मत लटकाइए।

आखिरी बात : मैं दिसंबर 1987 में जाफना युद्ध कवर करने गया था। शाम के समय मुझे 4/5 गोरखा राइफल्स के दस्ते ने रोका, जिसका नेतृत्व एक दृढ़ युवा मेजर कर रहे थे। उन्होंने मुझे रात के समय लैगून पार न करने की सलाह दी, क्योंकि वहां बारूदी सुरंग हो सकती थी, घात लगाकर हमला हो सकता था। मैंने बताया कि और कहीं जाने का ठिकाना नहीं है। वे मुझे अपने कैंप में ले गए और मैंने फील्ड पर बहुत अच्छी मेहमाननवाजी, बातचीत और रैनबसेरे का लुत्फ उठाया। वे युवा मेजर थे दलबीर सिंह। वे आज भी वैसे ही दृढ़ता रखते हैं और एकदम सुपर-फिट हैं। सिर्फ उनकी रैंक बढ़ गई है। अब वे हमारे सेनाध्यक्ष हैं।

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