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Wednesday, November 6, 2024
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नेहरू विरोधी नहीं नेहरूवादी हैं मोदी

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बात की शुरुआत एक ऐसे जुमले से करते हैं जिसे नया मीडिया एक हद तक अपमानजनक मानेगा: क्या नरेंद्र मोदी जवाहरलाल नेहरू के बाद देश के सबसे अधिक नेहरूवादी प्रधानमंत्री हैं। खासतौर पर तब जबकि मोदी सरकार का एकमात्र एजेंडा नेहरू की विरासत को नष्ट करना, पाठ्यपुस्तकों से उनका नाम हटाना और आरएसएस के पुराने विचारों को बढ़ावा देना है जिनके मुताबिक देश की तमाम समस्याओं के लिए नेहरू जिम्मेदार हैं। गांधी की हत्या से लेकर कश्मीर समस्या और तिब्बत से लेकर गरीबी तक। या फिर जब भाजपा की एक राज्य सरकार ने एक आईएएस अधिकारी का तबादला इस अपराध के लिए कर दिया कि उसने नेहरू की तारीफ करती एक फेसबुक पोस्ट लिखी थी। नेहरू की 52वीं पुण्यतिथि पर ऐसा लग रहा है कि इस सरकार ने नेहरू और नेहरूवाद के खिलाफ जंग छेड़ दी है।

जरा देखते हैं इन बातों में कितना दम है। नेहरूवाद को व्यापक रूप से निम्र आधारों पर व्याख्यायित किया जा सकता है। तगड़ी धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक उदारवाद, समाजवाद (मिश्रित अर्थव्यवस्था), गुटनिरपेक्षता और अंतरराष्ट्रवाद। इनमें से किस पर मोदी अलग नजर आते हैं? इनमें से दो को तो कांग्रेस के प्रधानमंत्रियों ने ही खासा कमजोर कर दिया था। नरसिंह राव ने नेहरू की सख्त, संशयवादी धर्मनिरपेक्षता को निहायत नरम बना दिया। नेहरू और इंदिरा के समाजवाद को भी राव ने खत्म कर दिया। उनके वित्त मंत्री और आगे चलकर प्रधानमंत्री बने मनमोहन सिंह ने भी सोनिया गांधी और राहुल गांधी की छत्रछाया में यही किया। विदेश नीति के मोर्चे पर अनिवार्य बदलाव राव के कार्यकाल में आया जब इजरायल के साथ पूर्ण कूटनयिक संबंध कायम किए गए। इस बात पर कांग्रेस के भीतर मौजूद मणिशंकर अय्यर जैसे नेहरूवादी तक खासे कु्रद्घ हुए।

अटल बिहारी वाजपेयी जो बतौर युवा सांसद नेहरू के साथ अकसर भिड़ते रहते थे, उन्होंने भी कभी उनके बारे में एक कटु वाक्य नहीं बोला होगा। लेकिन आपको आश्चर्य होगा कि उन्होंने अपने कार्यकाल में कई सरकारी उद्यमों और होटलों के निजीकरण के जो सुधारवादी कदम उठाए वे संभव ही नहीं होते अगर राव और मनमोहन भारत को नेहरूवादी अर्थव्यवस्था से परे नहीं ले गए होते। नेहरू ने समाजवाद को हमारी राष्ट्रीय आर्थिक विचारधारा बना दिया और इंदिरा गांधी ने इसका प्रयोग अधिकांश निजी (खासतौर पर विदेशी स्वामित्व वाले) उद्यमों को खत्म करने में किया।

आपातकाल के बाद कांग्रेस का स्थान लेने वाली जनता पार्टी (जिसमें भाजपा का मातृ संगठन जनसंघ शामिल था) सरकार ने संपत्ति का अधिकार छीन लिया। वह दो अवैध संशोधनों धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद को हमारे संविधान की प्रस्तावना में बरकरार रखने को तैयार हो गई (अवैध इसलिए क्योंकि इसे लोकसभा के छठे साल में अंजाम दिया गया था जब अधिकांश विपक्ष जेल में था)। उसने कोक और आईबीएम को देश से बाहर का रास्ता दिखा दिया। उसने 77 (डबल सेवन) नाम से सरकारी कोला बाजार में उतारा। इसका नाम उसके सत्ता में आने के वर्ष 1977 का प्रतीक था। भले ही मोरारजी देसाई की छवि बाजार समर्थक की रही हो लेकिन वह दुनिया को यह भरोसा दिलाने के लिए बेकरार थे कि वह नेहरू से भी अधिक बड़े गांधीवादी हैं। वास्तव में अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कॉर्टर के साथ बातचीत में उनका यह कहना दर्ज है कि नेहरू के साथ उनके मतभेद यही थे कि उनके आदर्श महात्मा गांधी थे जबकि नेहरू के मैकियावेली।

अब जरा अपनी नजर द वॉल स्ट्रीट जर्नल को दिए मोदी के साक्षात्कार पर डालिए। चार दशक में पहली बार कोई भारतीय प्रधानमंत्री मिश्रित अर्थव्यवस्था और सरकारी क्षेत्र की इतनी जमकर वकालत कर रहा है। मोदी का पुराना रिकॉर्ड भी रहा है। जब वाजपेयी सरकारी कंपनियों को जमकर बेच रहे थे उस वक्त गुजरात ने अपने सरकारी उद्यमों में से एक भी नहीं बेचा था। हम जानते हैं कि मोदी ने अपनी काफी ऊर्जा और राज्य के प्रभाव को इन कंपनियों के समर्थन के लिए इस्तेमाल किया। खासतौर पर तेल एवं गैस कंपनियां। गुजरात गैस लिमिटेड और जीएसपीसी ऐसी ही कंपनियां हैं। वाजपेयी ने बड़ी तेल कंपनियों के अलावा तो एयर इंडिया तक से निजात पाने की कोशिश की थी। मोदी हिंदुस्तान फोटो फिल्म्स तक को नहीं छेड़ रहे। सही मायनों में अगर वह नेहरूवाद के विरोधी हैं तो उनको सबसे पहले उन बड़ी और बेकार सरकारी कंपनियों को खत्म करना था जिनको नेहरू नए भारत का मंदिर कहा करते थे। यह तीन दशक में पहली सरकार है जो इन कंपनियों में अहम निवेश कर रही है। ध्यान दीजिए कि आईसीआईसीआई बहुत खामोशी से सरकारी वित्तीय संस्थान से निजी कंपनी में बदल गया। इसी तरह यूनिट ट्रस्ट ऑफ इंडिया ने मोदी के पूर्ववर्ती के कार्यकाल में दो सबसे प्रमुख निजी संस्थानों, एक बैंक और एक परिसंपत्ति प्रबंधन कंपनी को जन्म दिया। मौजूदा सरकार के एजेंडे में ऐसी कोई पहल नहीं दिख रही। यहां तक कि बैंकों में सरकारी हिस्सेदारी कम करने की कोई योजना तक नहीं दिख रही।

उसी साक्षात्कार में मोदी जोर देकर कहते हैं कि भारत गुटनिरेपक्षता के लिए प्रतिबद्घ है। आप यह दलील दे सकते हैं कि वह ऐसा केवल राजनीतिक वजहों से कह रहे हैं लेकिन इसकी जरूरत ही क्या है? वह यह क्यों नहीं कह देते कि नेहरू ने हमारी विदेश नीति और सामरिक नीति जिस बुनियाद पर खड़ी की वही गलत है? एक टीकाकार के रूप में हालांकि मैं विदेश नीति में निरंतरता का स्वागत करता हूं लेकिन फिलीस्तीन-इजरायल मुद्दों पर मतदान का मोदी सरकार का रिकॉर्ड भी गुटनिरपेक्षता के दिनों की याद मनमोहन सिंह के कार्यकाल से भी अधिक दिलाता है। मोदी हर बड़े इस्लामिक देश की यात्रा कर चुके हैं (जो सकारात्मक भी है) लेकिन इजरायल रडार पर नहीं है। यहां तक कि इजरायल भी अपने राष्ट्रपति की भारत यात्रा के लिए तारीखें न जुटा पाने की वजह से हताश हो रहा है। इसकी तारीफ तो मणिशंकर अय्यर भी करेंगे।

मोदी सरकार के नाम बदलने के अभियान को लेकर तथाकथित वाम और दक्षिणपंथ के विचारवानों ने काफी कुछ लिखा है लेकिन नेहरू और उनके वारिसों के नाम पर रखा गया कोई नाम नहीं बदला गया है। न ही नेहरू के विचारों से कोई छेड़छाड़ की गई है। लुटियन की दिल्ली के कई इलाकों के नाम ब्रिटिशर्स ने मुगलों के नाम पर इसलिए रखे क्योंकि वे उनसे पहले दिल्ली के शासक थे। यही वजह है कि लाहौर से हुकूमत करने वाले जहांगीर का नाम नदारद है जबकि मुगलों के आगमन से पहले दिल्ली के शासक रहे पृथ्वीराज चौहान का नाम नजर आता है। औरंगजेब रोड का नाम बदलकर कलाम मार्ग करना नेहरू का अपमान नहीं है, बशर्ते नेहरू के गुटनिरपेक्षता के साझेदारों के नाम पर बनी सड़कें बनी रहें। नासिर, टीटो, एक्र्रूमाह आदि ऐसे ही नाम हैं। वास्तव में नेहरूवाद लुटियन की दिल्ली की इमारतों में नहीं बल्कि उन कूटनयिक हलकों में दिखता है जिन्हें उन्होंने बनाया। इस पर कोई दलील संभव नहीं।

आपको अन्य समानताएं दिख सकती हैं: अक्सर जनता को संबोधित करना, व्यक्तिकेंद्रित नेतृत्व, विदेश नीति और सामरिक नीति पर पूर्ण नियंत्रण और यहां तक कि स्टाइलिश पहनावा। मोदी जैकेट अब उसी तरह फैशन में है जैसे एक वक्त नेहरू जैकेट थी। नरेंद्र मोदी के वफादार कहते हैं कि उनको नेहरू से निजी तौर पर कोई दिक्कत नहीं। बात बस इतनी है कि दुनिया को देखने का उनका नजरिया नेहरू से उलट है। अगर ऐसा है तो हम आर्थिक और विदेश नीति के मोर्चे पर इसका प्रमाण देखने के इच्छुक हैं।

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