दीवार पर लिखी इबारत। यानी वह जो एकदम साफ नजर आ रहा हो। यानी क्या बदलाव हो रहा है और क्या नहीं इसकी स्पष्टï जानकारी। आप देश के तमाम हिस्सों से गुजरते हुए अपने आंख कान खुले रखें तो इस बदलाव की आहट आपको नजर भी आएगी और आप उसे सुन भी सकेंगे। भारतीय उपमहाद्वीप में यह रूपक खूब चलता है क्योंकि यह इलाका अपने दिल की बात को दीवारों पर उड़ेल देता है। ऐसे में भले ही तमिलनाडु की राजनीति अलग किस्म की हो लेकिन वह भला अपवाद क्यों होगा?
वर्षों से पूरे भारत में रेशम और मंदिरों के लिए प्रसिद्घ कांचीपुरम मेरा पसंदीदा स्थान रहा है। यह चेन्नई से 100 किलोमीटर से भी कम दूरी पर स्थित है। पुराने शहर के छोर पर स्थित प्राचीन शंकर मठ शंकराचार्य का निवास था। यह मठ पारंपरिक हिंदुत्व की आध्यात्मिक शक्ति का सबसे अहम पीठ था। अगर आप देर तक यहां ठहरेंगे तो आपको मठ से निकल रहे संस्कृत श्लोकों और करीब ही स्थित जुम्मा मस्जिद से गूंज रहे अजान के स्वरों की जुगलबंदी सुनने को मिलेगी।
सड़क के मोड़ पर जहां श्रद्घालु फूल और फल आदि खरीदते हैं वहीं पेरियार की आवक्ष मूर्ति स्थित है। उन्हें 20वीं सदी का सबसे बड़ा मूर्तिभंजक कहा जा सकता है। जो पीढिय़ां उनको भूल गई हैं वे सुनील खिलनानी की ताजा पुस्तक इन्कार्नेशन को पढ़कर उनके बारे में काफी कुछ जान सकती हैं। पेरियार ने देश के सबसे ताकतवर और विवादास्पद राजनीतिक-सामाजिक बदलाव आंदोलनों में से एक की शुरुआत की। उन्होंने ब्राह्मïणवाद से मोर्चा लिया, जातिवाद, सामाजिक असमानता और अंधविश्वास आदि के खिलाफ लड़ाई लड़ी। यह सारा काम उन्होंने तर्कवाद और नास्तिकता के दायरे में किया। अब उनकी आवक्ष मूर्ति तो मठ और मस्जिद के बीच स्थित है ही, तमाम जगहों पर ईश्वर और ईश्वरत्व को लेकर उनके विचार भी लिखे हुए हैं:
ईश्वर नहीं है:
ईश्वर नहीं है:
कहीं कोई ईश्वर नहीं है:
ईश्वर की खोज करने वाला मूर्ख है।
ईश्वर का प्रचारक बदमाश है।
ईश्वर का उपासक असभ्य है।
तमाम अन्य कटु बातें भी लिखी गई हैं। आत्मा और पुनर्जन्म आदि के आविष्कारकों को बदमाश, असभ्य और उनके अनुयायियों को मूर्ख लिखा गया है। अहम बात यह है कि जिस व्यक्ति ने ईश्वर की अवमानना इस अंदाज में की जैसी कोई अन्य जन नेता नहीं कर सका, उसे एक प्रमुख मस्जिद और हिंदू मठ के साथ जगह मिली है। दुनिया किसी और देश में आप ऐसी रूढि़वादी धार्मिकता और तार्किकता को एक साथ नहीं पा सकते। हिंदू समूहों ने तो इसे अपमानजनक बताते हुए चुनौती भी दी। लेकिन सन 1979 में दिए फैसले में मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा कि किसी व्यक्ति के अपनी राय जाहिर करने में कोई समस्या नहीं है। उस आदेश का सार पेरियार की एक अन्य चश्माधारी मूर्ति के नीचे लिखा हुआ है। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि इस महान मूर्तिभंजक की खुद की मूर्तियां लगाई गई हैं जिन पर ईश्वर का मखौल उड़ाती उनकी उक्तियां लिखी गई हैं।
द्रविड़ सशक्तीकरण के इस आंदोलन को गति देने वाली, ब्राह्मïणवाद को नष्टï करने वाली यह नास्तिकता अब पुरानी रूमानियत में तब्दील हो गई है। जयललिता खुद एक ब्राह्मïण हैं और उनकी धार्मिकता किसी से नहीं छिपी। मशहूर राजनीति विज्ञानी योगेंद्र यादव करुणानिधि के बारे में कहते हैं कि वह पुराने तर्कवाद की प्रमुख आवाज बने हुए हैं लेकिन उनके बाद इस कतार में कोई नजर नहीं आ रहा। उनके बेटे स्टालिन व उनका परिवार मंदिरों में जाते रहे हैं, हालांकि इसके लिए पुरातत्व और इतिहास को आड़ बनाया गया। चुनावी रंग में रंगे तमिलनाडु में पांच दिन बिताने के बाद मुझे एक भी मतदाता ऐसा नहीं मिला जिसे ईश्वर के नकार का विचार व्यापक रूप से याद हो या इसकी कमी महसूस करता हो। मंदिर श्रद्घालुओं से अटे पड़े हैं, तमाम गैर ब्राह्मïण पुजारी हैं। दक्षिण के कई प्रमुख धर्मगुरु राज्य से ताल्लुक रखते हैं, मसलन सदगुरु जग्गी वासुदेव और श्री श्री रविशंकर आदि। जैसा कि डीएमडीके के नेता और फिल्म अभिनेता विजयकांत ने हमें बताया कि करुणानिधि की पत्नियों में से एक बिंदी भी लगाती हैं। जाहिर है राज्य में देवताओं की वापसी हो चुकी है।
लेकिन तमिलनाडु की राजनीति और संस्कृति के जानकार और जानेमाने इतिहासकार और मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज के प्रोफेसर ए आर वेंकटचलपति हमें एक चेतावनी से रूबरू कराते हैं। वह कहते हैं कि वे मेरे निष्कर्षों से सहमत होंगे लेकिन वह यह भी कहते हैं कि जब सीएन अन्नादुरई ने खुद को पेरियार से अलग किया तो उन्होंने नास्तिकता से भी दूरी बना ली। यह अलगाव इसी प्रश्न पर हुआ था कि द्रविड़ आंदोलन को चुनावी राजनीति में शामिल होना चाहिए या नहीं। यह मामला काफी हद तक अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल के अलगाव की तरह था। उनको मालूम था कि तार्किकता की मदद से सामाजिक असमानता से लडऩा अलग बात है लेकिन देवताओं के खिलाफ मतदाता तैयार करना एकदम अलग बात है। वेंकटचलपति हमें गणेश की याद दिलाते हैं जो तमिलनाडु के सबसे लोकप्रिय देवता हैं। पेरियार ने जिन मूर्तियों को तोड़ा था उनमें सबसे अधिक गणेश की थीं। सन 1954 में अन्नादुरई ने कहा था, ‘मैं भगवान गणेश के लिए नारियल नहीं फोड़ता, न ही मैं उनकी मूर्तियां तोड़ता हूं।’ आज अम्मा और स्टाालिन के बीच वह दूरी पूरी हो चुकी है।
ब्राह्मïणों के दबदबे में आई कमी ने इसमें मदद की है। आमिर खान की फिल्म पीके में भगवान के मैनेजरों का जिक्र आने के बहुत पहले द्रविड़ आंदोलन के संस्थापकों ने इस बात को समझ लिया था लेकिन उनके बच्चों को ईश्वर से कोई समस्या नहीं है। कट्टïर नास्तिकों ने भी रास्ता निकाल लिया है। मुझे बताया गया कि करुणानिधि की ही उम्र के योग शिक्षक टी के वी देसीकचार ने कभी ओम का उच्चारण नहीं किया है लेकिन उनको सूर्य नमस्कार से कोई दिक्कत नहीं है। सूर्य उनकी पार्टी का चुनाव चिह्नï जो है।
तार्किकता के पराभव और द्रविड़ राजनीति के एक ही विचारधारा वाले दो धड़ों में बंटने के बाद अब दोनों ही विचारधारा विहीन दल हैं। ऐसे में चुनाव में कोई बड़ा मुद्दा ही नहीं रह गया है। यहां तक कि श्रीलंका भी अब कोई मुद्दा नहीं है। न सिद्घांत, न विचार, न नारे, कोई भी तमिल राजनीतिक के दो ध्रुवों को इंगित नहीं करता। दोनों में से कोई दूसरे को भ्रष्टï भी नहीं कह सकता। अब वहां करुणानिधि का परिवार है और अगर मैं थोड़ी छूट लूं तो दूसरा धड़ा एमजीआर से निकलता है। अब दोनों की आस्था केवल पात्रता में रह गई है। अम्मा आपको रसोई देंगी, पारिवारिक मनोरंजन का सामान देंगी और यहां तक कि मुफ्त में सोना भी। वहीं द्रमुक उनकी आलोचना करेगी लेकिन खुद छात्रों और किसानों का कर्ज माफ करेगी। विजयकांत ने तो मामला एक और स्तर पर पहुंचा दिया है। वह राशन मुफ्त में घर पहुंचाने का वादा कर रहे हैं। ईश्वर पूरी क्षमता से मंच पर वापसी कर चुके हैं और मुफ्तखोरी नई राजनीतिक विचारधारा है। द्रविड़ पुनरुत्थान के कुछ संकेत दिख रहे हैं। छोटे-छोटे कस्बों में किताबों और समाचार पत्रों की दुकानों पर पेरियार का लेखन नए सिरे से नजर आ रहा है। वेंकटचलपति कहते हैं कि जब राजनीतिक विचारधारा के अनुयायी इसे त्याग देते हैं तो बची हुई धाराएं और सख्त हो जाती हैं। तमिलनाडु में आज बढ़ते युवा और छात्र पेरियार अनुयायियों में यही नजर आता है। प्रदेश के शिक्षित युवा दलितों में भी पेरियार को चाहने वाले अधिक हैं। यह नया बदलाव कितना ताकतवर होगा, यह हम आंबेडकर-पेरियार ग्रुप के रूप में आईआईटी मद्रास में देख चुके हैं। भारतीय राजनीति में हमेशा चौंकाने का माद्दा है। तब भी जब यह तमिलनाडु की तरह सपाट हो जहां कोई भी कयास लगा सकता हो।