बिहार ने अल्पसंख्यक (मुस्लिम) वोट बैंक को राजनीतिक चर्चाओं में लौटा दिया है। चर्चा करने से पहले यह जानना जरूरी है: मुहम्मद अली जिन्ना के पाकिस्तान जाने के बाद से भारतीय मुसलमानों ने किसी हिंदुस्तानी मुसलमान को अपना नेता नहीं माना है। उन्होंने हमेशा किसी हिंदू को तरजीह दी है और जरूरी नहीं कि वह एक ही पार्टी का हो। करीब चार दशकों तक वे गांधी परिवार के साथ थे। उसके बाद शाह बानो से लेकर शिलान्यास तक राजीव गांधी की लगातार भूलों के कारण राजनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण इलाकों के मुसलमान वीपी सिंह, मुलायम सिंह और लालू प्रसाद की ओर खिसक गए। बाद में उत्तर प्रदेश में मायावती ने उनके विकल्प और बढ़ा दिए। आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, केरल, राजस्थान, असम और अन्य स्थानों पर मुसलमान हिंदुओं के नेतृत्व वाली कांग्रेस के साथ ही रहे। किंतु जहां भी विकल्प उभरे, जैसे बंगाल में वामपंथी दल और बाद में ममता बनर्जी, मुसलमान उनकी ओर ढलक गए। लेकिन वहां भी उन्होंने हिंदू नेताओं में ही भरोसा दिखाया। शायद वामपंथियों के अलावा इनमें से सभी हिंदू धर्म का पालन करने वाले और उसमें विश्वास करने वाले थे। भाजपा अथवा राष्टï्रीय स्वयंसेवक संघ ‘मौलाना मुलायम’ कहकर जिन्हें चिढ़ाते हैं, वह मुलायम पूरे गर्व के साथ स्वयं को हनुमान भक्त कहते हैं। रक्षा मंत्री (संयुक्त मोर्चा सरकार में 1996 से 1998 के दौरान) के तौर पर वह कृष्णा मेनन मार्ग में जिस मकान पर गए, वहां उन्होंने एक खूबसूरत छोटा हनुमान मंदिर बनाया और उस मकान में अभी रह रहे अरुण जेटली उस मंदिर की देखभाल बहुत यत्न से करते हैं। लालू भी आपको बताते हैं कि जेल में रहते हुए कैसे उन्होंने अपने इष्टï भगवान शिव की आराधना की और मांस छोडऩे के कारण उन्हें रिहाई मिल गई।
कांग्रेस पार्टी को मुसलमान नेता तैयार नहीं करने के लिए अक्सर कोसा जाता रहा है। हकीकत यह है कि उसने मौलाना अबुल कलाम आजाद से लेकर अहमद पटेल और सलमान खुर्शीद तक कोशिश की और डॉ. जाकिर हुसैन तथा फकरुद्दीन अली अहमद उसके कारण ही राष्ट्रपति भवन तक पहुंचे। किंतु आजाद समेत किसी को भी भारतीय मुसलमानों ने अपना नेता नहीं माना। भाजपा को ‘मुख्यधारा’ का अपना मुसलमान नायक एपीजे अब्दुल कलाम में मिला। वह हमारे सबसे लोकप्रिय राष्टï्रपति बने किंतु मुसलमानों के लिए प्रेरणास्पद व्यक्तित्व बनने के बजाय हिंदू छवि वाले ही रहे। दक्षिणपंथी टीकाकारों और इंटरनेट बहादुरों ने दुख (या खुशी?) के साथ इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि उनके निधन पर किसी भी मस्जिद में विशेष नमाज नहीं पढ़ी गई। ज्यादातर लोगों के लिए वह महान भारतीय नेता और (‘मुसलमान होने के बावजूद’) राष्टï्रवादी थे, जो वीणा बजाते थे, संस्कृत के श्लोक बोलते थे, बच्चों से अच्छी बातें कहते थे और कहलवाते भी थे। लेकिन मुसलमानों के लिए ऐसा नहीं था।
आजाद, कलाम या वैचारिक/धार्मिक दायरे के कट्टïरपंथी छोर पर मौजूद जाकिर नाइक (दुनिया भर में भारी तादाद में अनुयायियों वाले मुंबई के चिकित्सक, जो अब टेलीविजन पर धर्म प्रचार करते हैं) को खारिज करने की भारतीय मुसलमानों की प्रवृत्ति हमारी राजनीति की अनूठी विशेषता है। भाजपा इसके लिए ‘तुष्टïीकरण’ की राजनीति को दोषी ठहराएगी। लेकिन ऐसा नहीं है। जैसा कि सच्चर समिति ने बताया – हालांकि इस प्रमाण की जरूरत नहीं थी – मुसलमान दलितों की तरह ही आर्थिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े हुए हैं। राजनीतिक, प्रशासनिक और आर्थिक रूप से भी वे कम सशक्त हैं। वे दिवंगत अर्जुन सिंह जैसे नेताओं के शिकार हैं, जिन्होंने खुद को उनका संरक्षक बताया, लेकिन उनका फायदा उठाया और उन्हें उभरने नहीं दिया।
कांग्रेस, मुलायम, लालू, माकपा, ममता ने हालात बदलने के लिए कुछ नहीं किया है। फिर भी वे अपना स्वयं का नेता नहीं तलाशते। हरदिलअजीज और वीपी सिंह के सहयोगी रहे वसीम अहमद मुझे याद दिलाते हैं कि साठ के दशक के मध्य में उत्तर प्रदेश में मुस्लिम मजलिस नाम की पार्टी बनी। नेहरू/शास्त्री के बाद के कांग्रेसी पराभव के दौर में उसे कुछ वोट मिले और 1967 में संयुक्त विधायक दल की सरकार में वह शामिल हो गई। लेकिन उसे जल्द ही खारिज कर दिया गया।
इसे चुनौती देने वाली दो घटनाएं हुई हैं: हैदराबाद से एमआईएम के साथ असदुद्दीन ओवैसी और असम में बदरुद्दीन अजमल की एआईयूडीएफ। जब तक वे अपने इलाके में रहे, उन्हें खास तवज्जो नहीं दी गई। लेकिन महाराष्ट्र विधानसभा में ओवैसी का दो सीटें जीतना बदलाव की ओर इशारा कर गया। 2014 के लोकसभा चुनावों में अजमल का शानदार प्रदर्शन भी यही बता गया, जब असम के ज्यादातर मुसलमान मतदाताओं ने उन्हें वोट दिया और इसी बल पर भाजपा ने सबको हैरत में डालते हुए 14 में से 7 सीटें जीत लीं, जबकि कांग्रेस 3 पर सिमट गई। तो क्या भारतीय मुसलमान छह दशक पुराना रवैया बदल रहे थे और ‘अपना’ नेता तलाश रहे थे? क्या आखिकार उन्हें अहसास हो गया कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ पार्टियों ने उनके लिए कुछ किया नहीं है, केवल उनके डर को भुनाया है कि तुम मुझे वोट दो और मैं तुम्हें भाजपा/संघ से बचाने की कोशिश करूंगा? क्या मुसलमान केवल वजूद बचाने की मामूली सियासत के दौर से बाहर आ रहे थे? उनके लिए नरेंद्र मोदी का संदेश तो यही था: आपकी लड़ाई हिंदुओं से है या गरीबी और तकलीफों से है? वे भाजपा को वोट देने के लिए तैयार नहीं थे, लेकिन वे खुद को तवज्जो नहीं देने वाली पार्टियों को नकार रहे थे। ओवैसी और काफी हद तक अजमल की बोली आधुनिक थी, वजूद बचाने के बजाय नौकरियों और सशक्तीकरण की बोली थी। मुसलमान मतदाता डर के बजाय ताकत की ओर बढ़ रहे थे। कांग्रेस इस बदलाव की पहली शिकार बनी।
इसी धारणा की वजह से भाजपा को असम डाल पर लटका पका हुआ फल लग रहा है। उसका फॉर्मूला असम का धु्रवीकरण करने का होगा, जिसमें अजमल अल्पसंख्यकों के ज्यादातर वोट बटोर लेंगे और कांग्रेस चित हो जाएगी। बिहार में भाजपा के विद्वेष भरे अभियान ने शायद हवाओं का रुख बदल दिया है। मोदी ने तो ‘आपका बड़ा दुश्मन कौन है’ वाला अपना जुमला दोहराया, लेकिन अभियान बहुसंख्यकों का पक्षधर था। भारतीय मुसलमान खुद को पाकिस्तान से जोड़ा जाना पसंद नहीं करते, लेकिन गोमांस भक्षकों से पाकिस्तान जाने के लिए कहकर और शाहरुख खान का दिल पाकिस्तान में बताकर उन्हें भड़काया गया। अमित शाह की चेतावनी तो सब पर भारी पड़ गई कि भाजपा बिहार चुनाव हार गई तो पाकिस्तान में पटाखे छूटेंगे। इससे फिर वजूद का सवाल खड़ा हो गया। इस बार उन्हें पाकिस्तान ‘वापस’ भेजने की धमकी थी, उनकी वफादारी पर वास्तव में शक किया गया था और यह चुनाव अब उन्हें आथिक तरक्की का मौका नहीं लग रहे थे। वे एक बार फिर खौफ में घिर चुके थे और उसे थोक के भाव वोट देने निकले, जो भाजपा को हराता और इस तरह उन्हें बचाता दिखा। ओवैसी का सफाया हो गया।
मैं लताड़ खाने के जोखिम के साथ कह रहा हूं कि ओवैसी और अजमल आधुनिकता के चेहरे हो सकते थे। वे मुसलमानों के जेहन में बदलाव का संकेत दे रहे हैं और उन्हें अपना राजनीतिक तबका खड़ा करने की सलाह दे रहे हैं। बिहार में भाजपा की भूलों ने यह सिलसिला तोड़ दिया है। 2014 के चुनावों में मोदी ने मुसलमानों के साथ भाजपा के रिश्तों की जो नई कहानी लिखने की कोशिश की थी, वह अब पिट चुकी है और मुसलमान एक बार फिर अपने ‘धर्मनिरपेक्ष’ और हिंदू रहनुमाओं के इर्दगिर्द जुट रहे हैं।