अगर 2014 की गर्मियों पर नजर दौड़ाएं, जब नरेंद्र मोदी भाजपा के निर्विवाद नेता और प्रधानमंत्री बने थे तो किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि महज डेढ़ साल के भीतर पार्टी में किसी तरह के बगावती स्वर सुर्खियां बन जाएंगे। अपनी प्रतिद्वंद्वी पार्टियों और अपने परंपरागत सहयोगियों की तुलना में भाजपा निश्चित रूप से कहीं अधिक अनुशासित और आंतरिक लोकतंत्र वाली पार्टी है। यहां स्वस्थ मतभेदों का अतीत रहा है, मिसाल के तौर पर वाजपेयी और आडवाणी के बीच मतांतर को ही लें, जिनमें सबसे प्रमुख तो वही टकराव था कि 2002 के गुजरात दंगों के बाद मोदी के मामले में क्या किया जाए। मगर उनका समाधान आंतरिक चर्चाओं के जरिये किया जाता था, जिसमें कई मर्तबा किसी एक खेमे को झुकना पड़ता था।
अगर उससे भी गतिरोध दूर नहीं होता तो नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और दिल्ली के झंडेवालान में ही उसकी नजदीकी शाखा के रूप में हमेशा एक थर्ड अंपायर मौजूद रहा। मगर अब जो हो रहा है, वह अमूमन ऐसा है, जो भाजपा में नहीं होता। तीन बार के लोकसभा सांसद कीर्ति आजाद ने खुलेआम अरुण जेटली की छवि पर हमला किया। जेटली मोदी की उस अपरिहार्य त्रिमूर्ति का हिस्सा हैं, जो इस सरकार को चला रही है। शाश्वत विद्रोही और भाजपा सरकार में मंत्री रह चुके राम जेठमलानी अदालत में उन अरविंद केजरीवाली की पैरवी करेंगे, जिनके खिलाफ जेटली ने मानहानि का मुकदमा दायर किया है। अगर आप पार्टी के कुछ अन्य समर्थकों, पदाधिकारियों, विचारकों की कार्रवाइयों और सोशल मीडिया पर प्रतिक्रियाओं को देखेंगे तो इसमें एक खास प्रारूप (पैटर्न) नजर आएगा।
जेटली इस त्रिमूर्ति में सबसे कमजोर नजर आ रहे हैं और लोग उन्हें छद्म हमले करने के लिहाज से ज्यादा मुफीद मान रहे हैं, जिन हमलों में निशाना आखिरकार मोदी को बनाया जा रहा है। किसी में भी मोदी पर सीधा हमला करने की हिम्मत नहीं होगी और बिहार चुनाव के बाद अमित शाह को लेकर छिटपुट बातें हो रही हैं लेकिन कोई भी खुलेआम विरोध का बिगुल नहीं बजाना चाहता। जेटली मिलनसार, बहिर्मुखी और अनावृत्त नजर आते हैं और कुछ आकलनों के अनुसार मोदी के लिए उन्हें हटाना बहुत मुश्किल नहीं होगा। लिहाजा, प्रारूप यही है कि कीर्ति से लेकर केजरीवाल के साथ संघ से जुड़े कुछ चरमपंथी लोगों और पार्टी के गुस्साए पुराने दिग्गजों को यही लगा कि जेटली ही वह शख्स हैं, जिस पर उन्हें निशाना साधना है।
इसमें मिसालें या रूपक अलग-अलग हो सकते हैं जो इस बात पर निर्भर करेंगे कि आप किससे बात करते हैं। कोई कहेगा कि रणनीति हमेशा यही होती है कि जितना संभव हो सके कमजोर बल्लेबाज को ही अधिक से अधिक गेंदें खिलाई जाएं। दादी-नानी की कुछ कहानियों से भी इसकी मिसाल देते हैं कि अगर आप राजा को मारना चाहते हैं तो उसके प्रिय तोते की गर्दन मरोड़ दें। मगर इनका मतलब वही है। अगर आप उन्हें हटा सकते हैं तो मोदी को या तो अपने सत्ता संतुलन में फेरबदल करना होगा या फिर सत्ता को कुछ अन्य के साथ साझा करना होगा। केजरीवाल ने इस अवसर को ताड़ लिया और कीर्ति, जेठमलानी और अन्य के साथ मिलकर शिकारी दस्ते में शामिल हो गए।
हम अतीत में भी कमोबेश ऐसा कुछ देख चुके हैं। जैसे मोदी/शाह को घेरने के मामले में जेटली छद्म मोर्चा साबित हो रहे हैं, उसी तरह वाजपेयी सरकार में ब्रजेश मिश्रा पर हमले हुआ करते थे। मिश्रा को बाहरी करार दिया जाता था कि उनके पास हद से ज्यादा शक्ति (वह प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जैसे दोनों दायित्व संभाले हुए थे) है और उनका झुकाव अमेरिका की ओर कुछ ज्यादा ही है और यह कि वह सिर्फ निजी तौर पर एक शख्स के साथ जुड़े हुए हैं। उस समय वाजपेयी के दत्तक दामाद रंजन भट्टाचार्य को लेकर आसपास दबे स्वरों में चर्चा हुआ करती थी। मगर सार्वजनिक तौर पर बहुत कम सामने आते था और औपचारिक पद पर बैठे किसी व्यक्ति के माध्यम से निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जाता था। इस अभियान की गहराई और क्रूरता का अंदाजा मुझे बाद में ‘वॉक द टॉक’ कार्यक्रम के दौरान तत्कालीन संघ प्रमुख के एस सुदर्शन के साक्षात्कार के दौरान हुआ। यह उल्लेखनीय है कि संघ की ओर से ऐसे दबाव के बावजूद वाजपेयी ने वह लड़ाई अपने दम पर लड़ी। विरोधी अब मोदी को भी उसी स्थिति में धकेलना चाहते हैं।
तीन चीजें हैं जो वक्त के लिहाज से उनकी कवायदों पर मुहर लगाती हैं। पहली तो यही कि वृद्घि के चाहे जो आंकड़े रहें लेकिन आर्थिक संकेतकों में राजकोषीय घाटे को छोड़कर किसी वास्तविक बड़े सुधार के संकेत नहीं है और घाटे के मोर्चे पर बनी स्थिति भी कच्चे तेल की मेहरबानी का नतीजा है। दूसरी बात यह कि बिहार में बुरी तरह हार ने सत्तारूढ़ जत्थे को कमजोर किया है और हाल फिलहाल कोई महत्त्वपूर्ण राज्य (असम छोटा राज्य है) नहीं है, जहां से मिलने वाली जीत उसे ताकत हासिल करने का अवसर देगी। और तीसरी बात यह कि पार्टी अध्यक्ष का चुनाव जनवरी में आसन्न है। निश्चित रूप से अमित शाह अपने दूसरे तीन वर्षीय कार्यकाल की ओर देख रहे हैं और चूंकि यह 2019 के आम चुनावों से कुछ महीने पहले ही खत्म होगा, ऐसे में निरंतरता की दुहाई के नाम पर उन्हें विस्तार भी मिल जाएगा। शांत और मुखर सभी तरह के महत्त्वाकांक्षियों और विद्रोहियों के लिए यह अंतिम मौके के समान है।
यही वजह है कि राजनीति ऐसे स्तर पर पहुंच गई है। ऐसी खुसर-फुसर सुनने में आ रही है कि पार्टी के लोगों और मतदाताओं का दबंगई से लेकर पार्टी के अत्यधिक ‘गुजरातीकरण’ से मोहभंग हो रहा है। संघ में इस मसले पर सांत्वना का माहौल है लेकिन अभी तक संकेतों से यही लगता है कि बर्र के छत्ते को वहां से भी कोई नहीं छेडऩा चाहता और संघ उस स्तर पर दखल देने का भी इच्छुक नहीं लगता, जितना उसने वाजपेयी सरकार के अंतिम वर्षों में किया था।
यहां तक कि पार्टी के गुजरातीकरण से ज्यादा शिकायत पार्टी के अति कांग्रेसीकरण को लेकर हो रही है। भाजपा के भीतर आंतरिक लोकतंत्र की व्यवस्था आमतौर पर बेहतर रही है। मगर जब से शाह ने सत्ता संभाली है, तब से राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक ही नहीं हुई है। अगर कुछ कैबिनेट मंत्रियों को छोड़ दिया जाए तो उनके पास पर्याप्त अधिकार भी नहीं और इसका अंदाजा आप इससे लगा सकते हैं कि मोदी-शाह का निगरानी तंत्र यह सुनिश्चित करता है कि कोई कमाई के खेल में शामिल तो नहीं हो रहा।
प्रधानमंत्री और सर्वोच्च नेता के रूप में मोदी को कोई चुनौती नहीं मिलने जा रही। ऐसे में उनके भविष्य को लेकर कोई सवाल नहीं है बल्कि सवाल यही है कि वह कब अपना अंदाज बदलते हैं या मौजूदा चलन के साथ ही चिपके रहते हैं। इसका यही अर्थ है कि भाजपा में आलाकमान संस्कृति मजबूत होगी और उसे संस्थागत रूप मिलेगा, जो भाजपा में कभी नहीं रही, जबकि कांगे्रेस में 1969 से यह सिलसिला आगे बढ़ता गया। विद्रोहियों को यह भी उम्मीद है कि अति-केंद्रीकरण का तर्क संघ के गले भी उतरेगा।
भाजपा पर हमेशा संघ का साया रहा है और लेकिन समीकरण अतीत की तुलना में काफी बदल गए हैं। अंतिम बार संघ ने 2009 में आडवाणी के पराभव के बाद भाजपा के मामलों में सीधे तौर पर दखल दिया था। तब संघ प्रमुख मोहन भागवत ने पार्टी के चार वरिष्ठ नेताओं जेटली, सुषमा स्वराज, वेंकैया नायडू और अनंत कुमार से कहा था कि वे पहले अध्यक्ष का चुनाव कर पार्टी को नए सिरे से मजबूत करने की दिशा में मदद करें। संघ युवा अध्यक्ष चाहता था और उसने मनोहर पर्रिकर के नाम पर मुहर लगाई लेकिन आडवाणी को ‘सड़ा हुआ अचार’ बताने वाली पर्रिकर की टिप्पणी उनके आड़े आ गई। इस तरह नितिन गडकरी परिदृश्य में उभरे। अब ऐसे दखल के आसार नहीं लगते। मोदी इतने लोकप्रिय और शक्तिशाली हैं कि नागपुर के मठाधीश भी उनसे भिडऩे से गुरेज करेंगे। मोदी सत्ता वितरण में उन्हें उतनी गुंजाइश पहले ही दे चुके हैं, जितनी वाजपेयी के दौर में कभी नहीं मिली। मसलन कुछ खास मंत्रालयों और राज्यपाल के पदों पर, विशेषकर संघ की पसंद वाले पूर्वोत्तर के इलाकों में मोदी ने उनका खास ख्याल रखा। संघ यह भी जानता है कि अगर मोदी को छेड़ा गया तो वह पलटवार कर सकते हैं, जैसा कि उन्होंने गुजरात में किया। अब अगले चार हफ्तों तक इंतजार कीजिए कि जेटली-शाह के मसले पर मोदी क्या रुख अपनाते हैं। क्या वह कुछ ‘नरम’ होंगे या और सख्ती अपनाएंगे।